Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 505
________________ ३०० आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ श्रमणों का अस्तित्व नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव चारों निक्षेपों की अपेक्षा को लिये हुए हैं। 'श्रमण' और 'मुनि ' दोनों शब्दों की परस्पर में साम्यता है। जैसे 'श्रम' शब्द प्रकृत प्रसंग में आध्यात्मिकता से संबंधित है वैसे ही मुनि शब्द भी आध्यात्मिकता की ओर संकेत करता है । कहा भी है—'मान्यत्वादाप्तविधानां महद्भिः कीर्त्यते मुनिः'--यशस्तिलक ८।४४ । अर्थात् आप्तविद्या [आगम ] में वृद्ध और मान्य होने से महान पुरुषों ने इसे मुनि संज्ञा दी है। ‘मननात् मुनिः ' ऐसा भी कहा जाता है अर्थात् जो तत्त्वों का-आत्मा का मनन करें वे मुनि हैं । 'श्रम' शब्द तीन रूपों में ग्रहण किया जाता है-श्रम, परिश्रम और आश्रम । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल कहते हैं- 'एकतः श्रमः श्रमः ।' 'परितः श्रमः परिश्रमः ।' और 'आ समन्तात् श्रमः आश्रमः ।' एक ओर अर्थात् शरीर से किया गया श्रम 'श्रम' कहलाता है। दो ओर अर्थात् शरीर और मन से किया गया श्रम 'परिश्रम' कहलाता है। और तीनों ओर से अर्थात् मन-वचन-काय से किया गया श्रम 'आश्रम' कहलाता है। उक्त प्रसंग से श्रमण और आश्रम की पारस्परिक घनिष्टता विदित होती है क्यों कि भ्रमण मुनि मन-वचन-काय तीनों की एकरूपता पूर्वक ध्यान का अभ्यास करते हैं। वास्तव में श्रमणमुनियों के ही आश्रम अध्यात्म से सम्बन्ध रखते रहे हैं । शेष आश्रम तो श्रम और परिश्रम तक ही सीमित हैं। यही कारण है कि श्रमणधर्म को अन्य आश्रमों का जनक बतलाया गया।' श्रमण परम्परा का उल्लेख प्राचीनतम ग्रन्थों में मिलता है। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज भी इसी श्रमण परम्परा के मुनि थे। उन्होंने इस युग में श्रमण धर्म को मूर्तरूप देने में प्राथमिक मंगल कार्य किया है । आज के श्रमणमुनि उन्हीं की परम्परा से उबुद्ध हुए हैं; जो आर्हत् धर्म और श्रमण संस्कृति के साक्षात्-प्रतीक रूप हैं। 'ठाणाङ्ग सुत्त' में श्रमण मुनियों की अनेक वृत्तियों का वर्णन है। वहाँ लिखा है श्रमणमुनियों की वृत्ति उरग, गिरि, ज्वलन, सागर, आकाशतल, तरुगण, भ्रमर, मृग, धरणी, जलरुह, रवि और पवन सम होती है। इसका विस्तृत व्याख्यान फिर कभी किया जायगा, लेख विस्तृत होने के कारण यहाँ संकोच ही श्रेष्ठ है। 'श्रमण' शब्द का अस्तित्व वेद-पुराण-व्याकरण-उपनिषद्-भागवत आदि अनेक ग्रन्थों में पाया जाता है। इतना ही नहीं इस शब्द का प्रयोग भिन्न भिन्न भाषाओं में भी हुआ है। श्रमण-संस्कृति प्राचीन भारत में हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक व्याप्त थी यह तो निर्विवाद सिद्ध है और ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि इस श्रमण धर्म के शास्ता तीर्थकर तिब्बत तक भी गए हैं, अंग, वंग, कलिंग आदि तो १. 'श्रमण परम्परा के कारण ब्राह्मण धर्म में वानप्रस्थ और सन्यास को प्रश्रय मिला ।'-- -वासुदेवशरण अग्रवाल [ जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका से उद्धृत] पृ. १३ २. 'उरग-गिरि-जलन-सागर, नहतल तरुगण समो अजो होइ । भमर मिय धरणिजलरुह रवि पवणसमो असो समणो |॥'-ठाणांग सुत्त ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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