Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 503
________________ २९८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ पूजार्थक धातु से ही इसका संबंध जोड़ा गया है। हिंसार्थक हन् धातु से नहीं जोड़ा गया। फिर आर्हत्-दर्शन तो 'अहिंसा परमोधर्मः' का परमपोषक है; साथ में परकर्तृत्व अभाव भी तो है । अरहंत परमेष्ठी कर्म का हनन न करके स्व को स्व में प्रकट करते हैं और कर्म स्वयं ही अकिंचित्कर हो जाते हैं और इसीसे अरहंत पूज्यपना प्राप्त करते हैं । अतः णमो अरहंताणं ही उपयुक्त अँचता है । णमो सिद्धाणं-'सिद्ध' शब्द 'षिध्' धातु से बना है, जिसका अर्थ गति है। संप्रसारण में 'सिध्' धातु से निष्ठा सूत्र से क्त प्रत्यय हुआ और 'झलां जशोऽन्ते' 'झलां जशझन्नि' सूत्रों से त् को ध् व द् होकर सिद्ध पद बना। सिद्ध से तात्पर्य है जो आत्ममार्ग को सिद्ध कर चुके-संसार परिभ्रमण से सदा के लिये मुक्त हो गये । सिद्धों के स्वरूप का वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार मिलता है 'अट्ठविहकम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा।। अट्ठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥'-नेमिचन्द्र चक्रवर्ती जो अष्टविध कर्म से रहित, शान्त, निरंजन, नित्य, अष्टगुणसहित, कृतकृत्य और लोकाग्रवासी हैं वे सिद्ध हैं सिद्धभक्ति में लिखा है 'असरीरा जीवघना उवजुत्ता दंसणेय णाणेय ।। सायारमणायारा लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥'-सिद्धभक्ति' कर्ममल और तज्जन्य पाँच शरीरों का अभाव होने से वे सिद्ध शरीर रहित हैं। स्वजीव द्रव्य में परमरूप होने से अन्य किसी पदार्थ द्वारा उत्पादित विकार भाव से समाविष्ट नहीं हैं और अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान से पूर्ण हैं । अन्तिम शरीराकार आत्मप्रदेश होने से साकार और वास्तव में निराकार [ पुद्गल आदि अन्य द्रव्यों से भिन्नजातीय ] हैं। णमो आइरियाणं-आइरियाणं पद में 'आ' उपसर्ग है जो समन्तात् अथवा पूर्णतया अर्थ में आता है । 'आ' उपसर्ग पूर्वक गत्यर्थक 'चर' धातु से योग्य अर्थ में ‘ण्यत् ' प्रत्यय होकर 'आ + चर + य' बना । 'क् ग् च् त् द् य् व् वां प्रायो लुक् ' से च का लोप हुआ 'यस्यरि' से 'रकार' को 'रिकार' हुआ । ' इ सप्तादौ ' से अ को इ होने पर 'आइरिय' रूप बना । नमस्कारार्थ में 'आणं' चतुर्थी विभक्ति होने पर आइरियाणं बना । आचार्य [ आइरिय ] का अर्थ है-आचारण में चलाने योग्य, आचारशास्त्र के अधिकारी । इनके ३६ गुण होते हैं3-१२ तप, ६ आवश्यक, ५ आचार, १० धर्म, ३ गुप्ति । १. स्वर्गावतरण जन्माभिषेक परिनिष्क्रमण केवलज्ञानोत्पत्ति परिनिर्वाणेषु देवकृतानां पूजानां देवसुरमानव प्राप्तपूजाभ्योऽभ्यधिकत्वादतिशयानामहत्वाद योग्यत्वादरहन्तः।'- (धवला) 'सम्मत्तणाण दंसण वीरिय सुहम तहेव अवगहणं । अगुरुलहुमव्वावाहं अट्ठगुणाहुति सिद्धाणं ।' द्वादशधा तपोभेदा आवश्यकाः परे हि षट् । पंचाचारा दशधर्मास्तिस्रः शुद्धाश्च गुप्तयः॥ आचार्याणां गुणाः प्रोक्ताः षट्त्रिंशच्छिवदायकः॥ सो० त्रै० १२।४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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