Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

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Page 494
________________ २८९ आचार्य श्रीमान् नेमिचंद्र व बृहद्र्व्य संग्रह वर्णन द्रव्य भाव रूपसे किया गया है। जो जीव द्रव्य का विभाव परिणमन है उसको भावतत्त्व रूपसे संबोधित किया है । जो कर्म का परिणमन है वह द्रव्यतत्त्व रूपसे संबोधित किया है । जिस प्रकार स्फटिकमणि स्वभावनय से निर्मल है तथापि जपापुष्पादि के उपाधि से लाल-नील आदि रंगरूप से परिणत दिखता है। उसी प्रकार जीव यद्यपि निश्चयनय से द्रव्य रूप से सहजशुद्ध चिदानंद एकस्वभाव है तथापि अनादि कर्मबंध पर्यायनय से भावरूप से रागादि विकाररूप परिणमता है। यद्यपि भावरूप से पर्याय से रागादि पर पर्यायरूप परिणमता है तथापि द्रव्यरूप से अपना शुद्ध स्वरूप छोडता नहीं-उस रागादि से तादात्म्य होता नहीं। वे रागादिभाव द्रव्य के स्वभाव में प्रवेश करते नहीं। विकाररूप परिणमने पर भी जीव अपना ध्रुव स्वभाव कायम रखता है। नित्य विद्यमान उस शुद्ध ध्रुव स्वभाव के अवलंबन से वह अशुद्ध परिणमन को नष्ट कर शुद्ध परिणमन में तादात्म्य हो सकता है । यहां पर रागादि उपाधि को ही प्रामुख्यता से भाव अजीवतत्व कहा है । उस उपाधि का कारण रागादिकभाव ही है उनको आस्रव और बन्धतत्त्व कहा है। इसलिए अजीव-आस्रव बन्ध तत्त्व उपाधिरूप होने से, संसार दुःख का कारण होने से हेय है। शुद्ध चैतन्यभाव को जीव कहा है । उसके आश्रय से संवर-निर्जरा-मोक्ष साधकतत्त्व है। उनको उपादेय कहा है। इन सात तत्त्वों का हेय-उपादेयरूप से जो समीचीन श्रद्धान उसको सम्यग्दर्शन कहा है। अथवा ये ७ तत्त्व एकही जीव के ७ बाह्य स्वभाव-विभावरूप है । उनको ७ रूप मानना यह अतत्त्वश्रद्धान है । उन सात तत्त्वों में ध्रुवस्वभावरूप से रहनेवाला जो पारिणामिक भावरूप कारणपरमात्मतत्त्व-शुद्धजीवतत्त्व उसीको एकरूप समझना यह ७ तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान है। १. भावात्रव-आत्मा के जिस परिणाम से कर्म आते हैं उनको भावास्रव कहते हैं । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग इन परिणामों से नवीन कर्मों का आस्रव होता है। २. द्रव्यास्त्रव-भावास्रव के निमित्त से कर्मों का आना द्रव्यास्रव है । १. भावबंध-आत्मा के जिस परिणाम से कर्म बंधते हैं वह भावबंध है। २. द्रव्यबंध-भावबंध के निमित्त से जो आत्मप्रदेश और कर्मपरमाणु इनका परस्पर बंध होता है वह द्रव्यबंध है। १. भावसंवर-आत्मा के जिन परिणामों से नवीन कर्म का आस्रव रुकता है । सम्यग्दर्शन सहित व्रत, समिति, गुप्ति, धर्मअनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र इन परिणामों से नवीन कर्मों का आस्रव रुकता है । उन परिणामों को भावसंवर कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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