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आचार्य श्रीमान् नेमिचंद्र व बृहद्रव्यसंग्रह
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३. विभाव पर्यायविशेष - ध्रुवस्वभाव का भान न होने से अनादि परम्परागत विकारभाव का आश्रय लेकर जो स्वभाव - विरुद्ध विकाररूप परिणमन होता है उसको विभावविशेष कहते हैं । वह जीव का अपराध होने से उसको जीव का कहना यह असद्भूतव्यवहारनय का विषय है ।
पर्याय का आश्रय होने से व्यवहार और वह विकार वस्तुभूत नहीं है, वस्तु का परमार्थस्वरूप नहीं है। अद्भूत अभूतार्थ है । मोक्षमार्ग के लिए वह प्रयोजनभूत नहीं है । बिना माबाप का यह व्यभिचारीभाव है, स्वाभाविकभाव नहीं है इसलिए असद्भूत है ।
जैसे औदयिकभाव, रागादिविकारभाव जीव के स्वभाव न होकर विभाव होने से उनको जीव के कहना यह असद्भूत व्यवहारनय है ।
सब शास्त्रों में जो कथन आता है वह सब इन तीन नयों में अन्तर्भूत है । अन्य जो भी नयभेद कहे गए हैं वे सब इन्हींके भेद - प्रभेद हैं ।
५. प्रथम अध्याय संक्षिप्त वर्णन
इस बृहद्रव्यसंग्रह ग्रन्थ में आचार्य नेमिचन्द्र के द्वारा वस्तु का वर्णन करते समय प्रामुख्य से तीन नयों की विवक्षा अभिप्रेत की गई है ।
कहा है ।
१. वस्तु का जो स्वभावकथन वह निश्चयनय से किया है ।
२. वस्तु का जो अशुद्धभाव वह द्रव्य का अशुद्ध परिणमन होने से उसको अशुद्ध निश्चयनय
३. वस्तु के अन्यद्रव्याश्रय से जो उपचार कथन है उसको व्यवहारनय अथवा उपचारनय कहा है । (१) जीव का वर्णन करते समय ९ अधिकारों में जीव का वर्णन करते समय व्यवहारनय से जो बाह्य दश प्राणों को धारण करता है वह जीव है । निश्चयनय से जो सहज सिद्ध शुद्ध चेतन प्राण को धारण करता है वह जीव है ।
(२) व्यवहारनय से ८ प्रकार ज्ञानोपयोग ४ प्रकार दर्शनोपयोग जीव का सामान्य लक्षण है । निश्चयनय से शुद्ध ज्ञान - दर्शन उपयोग जीव का लक्षण है ।
(३) निश्चयनय से वर्णादिक से रहित होने से जीव अमूर्त है । व्यवहारनय से कर्म के साथ बद्ध होने से जीव मूर्तिक है।
४. व्यवहारनय से जीव ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों का कर्ता है । अशुद्ध निश्चयनय से रागादि भावकर्मों का कर्ता है। शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध ज्ञान भाव का कर्ता है ।
५. व्यवहारनय से पुद्गल कर्मोदयका फल सुखदुःख का भोक्ता है । निश्चयनय से अपने शुद्ध चैतन्य भाव का भोक्ता है ।
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