Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

Previous | Next

Page 491
________________ २८६ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ उसको आचार्य देव जागृत कर समझाते हैं, हे आत्मन् , जिसमें तू रम रहा है वह तेरा स्थान नहीं है । वह वस्तु नहीं है। वह अवस्तु है । चित्रपट पर दीखनेवाले चित्र के समान भ्रम रूप है । तेरा पद तो तेरे अंतरंग वस्तु में है । वह ध्रुव शाश्वत है । उसका अवलंबन लेनेपर तुझे शाश्वत सुख की प्राप्ति होगी। यही सब शास्त्रकारों का सारसंक्षेप है वे यद्यपि भिन्न भिन्न नयभाषा में शास्त्र में वर्णन करते हैं तथापि सब शास्त्रकारों का अभिप्राय एक ही है । विकार यह विकार ही है। विकार जीव का स्वरूप नहीं है। विकार का जीव से तादात्म्य नहीं है। विकार को भिन्न, परवस्तु समझ कर अपनी ध्रुव वस्तु जो ज्ञानस्वभाव उसका आश्रय लेना ही मोक्षमार्ग है । वही जीव का सच्चा धर्म है। जहां व्यवहारशास्त्र में विकार जीव का ही है ऐसा कहा है वहां आचार्य का अभिप्राय जीव का. स्वभाव कहने का नहीं है । अज्ञानी विकार को पर का अपराध मानकर, मेरा अपराध नहीं है ऐसा मानकर यथेच्छ विकार में रममाण होता है उसके लिये व्यवहारी जन को व्यवहारी भाषा में समझाने के लिये व्यवहार नय से विकार को आत्मा का कहा है। लेकिन वहां भी वह आत्मा का अपराध ही कहा है। उसको स्वभाव या परमार्थ वस्तु नहीं कहा है। विकार परके, कर्म के उदय के कारण नहीं आता है। यह जीव अज्ञान से स्वयं अपने अपराध से राग से तन्मय होता है, उस समय कर्म का उदय अवश्य रहता है लेकिन अपने रागपरिणमन का कार्यकारण भाव कर्म के उदय के साथ लगाना यह उपचार-व्यवहारनय कथन है। वास्तव में कर्मोदय के साथ उसका कार्यकारण भाव नहीं है। उसका कारण जीव का स्वयं अपराध है । इस अभिप्राय से व्यवहारशास्त्र में रागविकार जीव का ही है ऐसा व्यवहारनय से कहा है। __ इस प्रकार वस्तु में प्रामुख्यता से २ अंश और उसके भेदरूप से ३ अंश विवक्षित होते हैं । इसलिये उनको कथन करनेवाले नय भी प्रामुख्यता से ३ ही हैं । १ सामान्य अंश, २ स्वभाव विशेष अंश, ३ विभाव विशेषांश । १. सामान्य अंश-को कथन करना निश्चयनय का विषय है। जीव इस संसार अवस्था में भी विद्यमान अपने ध्रुव, नित्यशुद्ध सामान्य अंश का पारिणामिक भाव का आश्रय लेकर पर्याय में शुद्ध परिणमन कर सकता है। यह निश्चयनय का अभिप्राय है। जीव का केवल ज्ञान स्वभाव त्रिकालवर्ती ध्रुव है। २. स्वभाव पर्यायविशेष- सामान्य अंश के आश्रय से जो निर्मल परिणमन होता है वह स्वभावपर्याय विशेष है । वह सद्भुत व्यवहारनय का विषय है। पर्याय का कथन होने से व्यवहार है। वह पर्याय शुद्धपर्याय है, उसका द्रव्य के साथ तादात्म्य है, उसकी द्रव्य में अस्ति है इसलिये उसको सद्भूत कहते हैं। जैसे जीव का केवल ज्ञानस्वभाव पर्याय ध्रुव केवल ज्ञानस्वभाव के आश्रय से प्रगट होता है । क्षायिकभाव स्वभाव पर्याय विशेष है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566