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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ और यह निर्जरा मोक्षकी कारण होती है। ऐसी निर्जरा चतुर्थ गुणस्थान से शुरू होती है। और अयोगि जिनकी अवस्था प्राप्त होने तक होती है । यह निर्जरा अन्तिम अवस्था को प्राप्त करती हुई जीव को मोक्ष प्रदान करती है। जिससे आत्मा पूर्ण शुद्ध बनकर अक्षय निर्मलता धारण करती है । जो चतुर्गति में घुमनेवाले प्राणियों को होती है वह निर्जरा सविपाक निर्जरा है, वह बंध सहित है।
जिन साधुओं ने रागद्वेषों का त्याग किया है, जिनको समस्त सुख का सतत स्वाद आरहा है, जिनको आत्म चिन्तन से आनंद प्राप्त हो रहा है ऐसे साधुओं की निर्जरा परम श्रेष्ठ है।
जो समसुक्खणिलीणो वारं वारं सरेइ अप्पाणं । इंदियकसायविजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ।
१०. लोकानुप्रेक्षा इस अनुप्रेक्षा का चिन्तन मुनिराज किस प्रकार से करते हैं उसका निरूपण संक्षेप से ऐसा हैजगत् को लोक कहते हैं। इसमें एक चेतन तत्त्व तथा दूसरा अचेतन तत्त्व है । जीव को चेतन तत्त्व अर्थात अन्तस्तत्त्व तथा अचेतन तत्त्व को बहिस्तत्त्व जडतत्त्व कहते हैं । जडतत्त्व के धर्म, अधर्म, आकाश, काल, तथा पुद्गल ऐसे पांच भेद हैं। जीवतत्त्व के साथ तत्त्व के छह भेद होते हैं। आकाश नामक तत्त्व महान तथा अनन्तानन्त प्रदेशयुक्त है। इससे बडा कोई भी नहीं है। इस तत्त्व के बहु सध्यमें जीवों के साथ धर्माधर्मादि पांच तत्त्व रहते हैं। जितने आकाश में ये पांच तत्त्व रहते हैं उसको लोकाकाश कहते हैं। तथा वह असंख्यात प्रदेशवाला है। आकाश के साथ ये छह द्रव्य परिणमनशील हैं। अतः इनको सर्वथा नित्य वा सर्वथा अनित्य कहना योग्य नहीं हैं । द्रव्यों की अपेक्षा से ये सर्व ही पदार्थ अपने स्वरूप को कभी भी नहीं छोडते हैं अतः ये नित्य हैं और अपने चेतन तथा अचेतन स्वभाव को न छोडते हुए भी नरनारकादि अवस्थाओं को धारण करते हैं अतः ये पदार्थ कथंचित अनित्य हैं। इनसे उत्पत्ति तथा विनाश होते हुए भी अपने स्वभावों को ये तत्त्व नहीं छोडते हैं। अपनी अपनी पर्यायों से परिणत होते हैं।
यहां जीव तत्त्व के विषय में विचार करना है। लोक धातुका अर्थ देखना अवलोकन करना है। अर्थात जिसमें जीवादिक सर्व पदार्थ दिखते हैं उसे लोक कहते हैं । इस लोक के अग्रभाग में ज्ञानावरणादि संपूर्ण कर्मों से रहित अनन्त ज्ञानादि गुण पूर्ण शुद्ध जीव विराजमान हुए हैं तथा वे अनन्तानन्त हैं।
जीवों के संसारी तथा मुक्त ऐसे दो भेद हैं । कर्मोका नाश कर जो अत्यन्त शुद्ध स्वरूप को प्राप्त हुए हैं वे जीव मुक्त सिद्ध हैं।
संसारी जीव चार गतियों में भ्रमण करते हैं। नर, नारक, पशु तथा देव अवस्थाओं को धारण करते हैं। ये अवस्थायें अनादि काल से कर्म संबंध होने से उन्हें प्राप्त हुई हैं। इस कर्म संबन्ध से चारों गतियों में वे सुखदुःखों को भोगते हुए भ्रमण करते हैं। पशुगति के जीव एकेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय तक होते हैं । नरक गति के जीव संज्ञी पंचेन्द्रिय होते हैं परन्तु अतिशय दुःखी होते हैं। पुण्य से देव गति में जीव
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