________________
स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा की विशेषता
२७९ सुदैव से रत्नत्रय प्राप्त होनपर भी कषाय की तीव्रता से वह रत्नत्रय नष्ट होकर पुनः उसकी प्राप्ति होना समुद्र में गिरे हुए रत्न की प्राप्ति समान दुर्लभ है।
___ संयम प्राप्ति से देवपद प्राप्त हुआ तो भी वहां सम्यक्त्व प्राप्ति ही होती है संयम, तप आदिक की प्राप्ति होती ही नहीं।
अतः मनुष्य जन्म प्राप्त होना अतिशय दुर्लभ है। मनुष्य गती में रत्नत्रय पालन हो सकता है। चह मिलने पर भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का पालन कर आत्महित करना चाहिये। तभी मानव भव पाना सफल होता है । स्वामि कार्तिकेय इस विषय में ऐसा कहते हैं
इय सव्वदुलहदुलहं दसण णाणं तहा चरित्तं च ।
मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि ॥ इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र अर्थात रत्नत्रय अत्यन्त दुर्लभ है ऐसा समझकर इनका अत्यंत आदरपूर्वक धारण करो।
१२. धर्मानुप्रेक्षा निर्दोष सर्वज्ञ तीर्थंकरों ने धर्म का स्वरूप कहा है । असर्वज्ञ से सर्व प्राणियों का हित करनेवाले सत्य धर्म का स्वरूप कहना शक्य नहीं है । इन्द्रिय ज्ञान स्थूल होता है उससे वस्तु का सत्य स्वरूप कहना शक्य नहीं है। जिनके क्षुधादि दोष नष्ट हुए हैं, राग द्वेषादिक नष्ट हुए हैं, ज्ञान को ढकनेवाले ज्ञानावरणादिक नष्ट हुए हैं। ऐसे जिनेश्वर अनन्त ज्ञान धनी सर्वज्ञ हुए अतः उन्होंने परिग्रहोंपर आसक्त हुए गृहस्थों को तथा निष्परिग्रही मुनिओं को अलग अलग धर्म कहा है। गृहस्थों के लिये उन्होंने बारह प्रकार का धर्म कहा है और मुनियों के लिये उन्होंने दश प्रकार का धर्म कहा है ।
गृहस्थधर्म के बारा भेद इस प्रकार हैं १. पच्चीस दोषों से रहित सम्यग्दर्शन-जीवादिक तत्व तथा जिनेश्वर, जिनशास्त्र और निष्परिग्रही जैन साधु इनके ऊपर श्रद्धा रखना यह गृहस्थ धर्म का प्रथम भेद है । तीन मूढता, आठ प्रकार का गर्व, छह आनायतन और शंका, कांक्षादिक आठ दोष इनसे रहित सम्यग्दर्शन धारण करना, यह अविरति सम्यग्दृष्टि का पहिला गृहस्थ धर्म है । इसके अनन्तर व्रति गृहस्थों के लिये धर्म के प्रकार उन्हों ने कहे है वे इस प्रकार
२. मद्य, मांस, मधु का दोषरहितत्याग, पंच उदुंबर फलों का त्याग --जिनमें त्रसजीव उत्पन्न होते हैं ऐसे फल सेवन का त्याग, यह दुसरा भेद, जुगार आदि सप्त व्यसनों का त्याग, तथा कंदमूल पत्रशाक भक्षण त्याग इसका दुसरे गृहस्थ धर्म के भेद में अन्तर्भाव है ।
३. पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षाबत ऐसे बारा व्रतों का पालन करना यह तीसरा भेद । ४. त्रिकाल सामायिक करना ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org