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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ कर्म, शरीर और मोह से जिनराज यद्यपि भिन्न हैं तथापि वे अपने केवल ज्ञान से भिन्न नहीं है वे अभिन्न हैं।
६. अशुचित्वानुप्रेक्षा ___यह छठ्ठी भावना है । यह देह मनुज शरीर अपवित्र पदार्थों से उत्पन्न हुई है। यह असंख्य कृमियों से भरी है। यह दुर्गन्ध तथा मलमूत्र का घर है। ऐसा हे आत्मन् तूं इसका स्वरूप जानकर इससे विरक्त होकर आत्मस्वरूप का चिन्तन कर ।
जो पुत्र, स्त्री आदिकों के देह से तथा स्वदेह से भी विरक्त है जो अपने शुद्ध चिद्रूप में लीन है उसकी देहविषयक अशुचित्व भावना सच्ची है ऐसा समझना योग्य है। उपर्युक्त अभिप्राय की गाथा यह है--
जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं । अप्पसरूवि सुरत्तो असुईत्ते भावणा तस्स ॥ ८७॥
७. आस्रवानुप्रेक्षा संसारी जीव में मोह के उदय से नानाविध सुखदुःख आदिक देनेवाले स्वभावों को धारण करनेवाले कर्मों का आगमन मन, वचन और शरीर के आश्रय से होता है। उसे आस्रव कहते हैं। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार से है--जीव के प्रदेशों में जो कम्पन होता है उसे योग कहते हैं। इस योग के मनोयोग, वचनयोग तथा काययोग-शरीरयोग ऐसे तीन भेद हैं। यह चंचलता मोह कर्म के उदय से होती है तथा मोह के अभाव में भी होती है । इन योगों को ही आस्रव कहते हैं।
शरीर नाम कर्म के उदय से मन, वचन तथा शरीर से युक्त जो जीव की शक्ति आत्मप्रदेशों में कर्मों का आगमन होने के लिए कारण होती है उसे योग कहते हैं । ये योग आस्रव के कारण है। कारण में कार्यों का उपचार करने से कारण रूप योग को भी आस्रव कहा है। संसारी जीव के सर्व आत्म प्रदेशों में रहनेवाली तथा कर्मों को ग्रहण करनेवाली जो शक्ति उसे भावयोग कहते हैं। इस भावयोग से जीव के प्रदेशों में मनोवर्गणा, वचनवर्गणा तथा कायवर्गणाओं के निमित्त से चंचलता उत्पन्न होती है उन्हें मनोयोग, वचनयोग और काययोग कहते हैं ये योग तरह वे सयोगकेवली गुणस्थान तक रहते हैं।
मिथ्यात्व गुणस्थान से सूक्ष्म लोभ नामक दसवे गुणस्थान तक मोह कर्म के साथ योग रहते हैं इस लिये इन गुणस्थान से तेरहवे गुणस्थान तक भी कर्म का आगमन होता है परन्तु इस से कर्मबंध नहीं होता है। आये हुए कर्म एक समय तक रहकर निकल जाते हैं यहां जो कर्म का आगमन होता है उसे इर्यापथ आस्रव कहते हैं । इन तीन गुणस्थानों में बिना फल दिये ही निकल जाता है। इन तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय या सांपरायिक आस्रव के कारण नहीं रहते हैं। चौदहवे अयोग केवली गुणस्थान में योग भी नहीं रहते हैं । अतः यहां आस्रव तथा बंध ही होने से अयोग केवली जीव मुक्त होते हैं।
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