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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ प्राणी मरते हैं। जगत् में मनुष्य का रक्षण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र से होता है। इसलिये परम श्रद्धा से रत्नत्रय का सेवन करना चाहिये । जब जीव में क्षमा, विनय, निष्कपटता आदि धर्म उत्पन्न होते हैं तब वह जीव अपना रक्षण करने में समर्थ होता है। तीव्र क्रोधादि कषायों से भरा हुआ जीव स्वयं अपना घात करता है।
दसणणाणचरित्तं सरणं सेवेहि परमसद्धाए । अण्णं किं पि य सरणं संसार संसरंताणं ।। अप्पाणं पि य सरणं खमादिभावहिं परिणदं होदि ।
तिव्वकसायाविठ्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥ इन गाथाओं का अभिप्राय ऊपर अ
३. संसारानुप्रेक्षा यह जीव एक शरीर को ग्रहण करके उसको छोड देता है तदनंतर दूसरे शरीर को ग्रहण करता है। उसे भी छोडकर तीसरा शरीर धारण करता है । इस प्रकार इस जीव ने मिथ्यात्व कषाय वश होकर अनन्त देह धारण कर चतुर्गती में भ्रमण किया है । इसको संसार कहते हैं। इसी अभिप्राय को आचार्य दो गाथाओं में कहते हैं
एकं चयदि सरीरं अण्णं गिण्हेदि णवणवं जीवो। पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचदि बहुवारं ॥ एवं जं संसरणं णाणादेहेसु हवदि जीवस्स ।
सो संसारो भण्णदि मिच्छकसायेहिं जुत्तस्स ॥ पाप के उदय से जीव नरक में जन्म लेता है। वहां अनेक प्रकार के दुःख सहते हैं। नारकी जीवों में सतत क्रोध का उदय होता है जिससे वे अन्योन्य को आमरण व्यथित करते हैं। नरक से निकल कर जीव तिर्यंच पशु होता है। उस गति में भी उसको दुःख भोगने पड़ते हैं। क्रूर मनुष्य पशुओं को मारते हैं । हरिणादिक दीन पशुओं में जन्म होने पर सिंह व्याघ्रादिकों के वे भक्ष बनते हैं।
___ मनुष्य गति में जन्म लेने पर भी मातापिता के विरह से उनको कष्ट भोगना पडता है। याचना करना, उच्छिष्ट भक्षण करना, आदिक दुःखसमूह पापोदय से प्राप्त होते हैं। कोई मनुष्य-सम्यग्दर्शन, तथा व्रतों को धारण करता है, उत्तम क्षमादि धर्म धारण करता है, कुछ पापकर्म होने पर उसको कहकर अपनी निंदा करता है, गुरु के आगे अपने दोषों को कहता है, ऐसे सदाचार से उसको पुण्यबन्ध होता है तथा उसे सुख की प्राप्ति होती है तो भी उसको कभी इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग हो जाता है। इस विषय में ग्रन्थकार कहते हैं
पुण्ण जुदस्स वि दीसइ इट्ठविओयं अण्णिट्ठसंजोयं । भरहो वि साहिमाणो परिज्जिओ लहुयभायेण ॥
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