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स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा की विशेषता
श्री महावीरस्वामी अन्तिम तीर्थकर के पश्चात और श्रुतकेवली की परम्परा समाप्त होने के बाद जब स्वामिकार्तिकेय नाम के महान् आचार्य हुए हैं। इनका स्वामिकुमार यह नाम भी प्रसिद्ध है। इन्हों ने आजन्म ब्रह्मचर्य धारण किया था। इन्हों ने-'अनुप्रेक्षा' नामक महान् ग्रन्थ रचा है।
कुन्दकुन्दादिक अनेक आचार्यों ने अनुप्रेक्षा विषय पर अनेक रचनाएँ कि है परन्तु इनका यह अनुप्रेक्षा ग्रन्थ उपलब्ध सब अनुप्रेक्षा ग्रन्थों की अपेक्षा से बडा है।
महावीर जिनेश्वर के तीर्थ प्रवर्तन के काल में दारुण उपसर्ग सहकर ये विजयादिक पंचानुत्तर में से किसी एक अनुत्तर में इनकी उत्पत्ति हुई है । ऐसा उल्लेख राजवार्तिकादि ग्रन्थों में हैं ।
ऋषिदास धन्य सु नक्षत्र कार्तिकनन्दन शालिभद्र, अभय, वारिषण, चिलात पुत्रा इत्येते दश वर्धमान तीर्थे । इत्येते दारुणानुपसर्गोनिर्जित्य विजयाद्यनुत्तरेषु उत्पन्ना।
इत्यते मनुत्तरोपपादिक दश ॥ (राजवार्तिक, अ. १ ला, पृ. ५१ ) भगवती आराधना में भी इनका उल्लेख आया है यथा
रोहे उ यम्मि सत्तीए ह ओ को चेण अग्गिदई दो बि । तं वेयण मधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अहं ॥१५४९॥
अग्गिदई दोवि अग्नि राजनाम्नो राज्ञः पुत्रः कार्तिकेय संज्ञः। रोहतक नाम के नगर में क्राच नामक राजा ने शक्तिशास्त्र का प्रहार कर कार्तिकेय मुनिराज को विद्ध किया। परन्तु उन्होंने वेदनाओं को सह लिया तथा साम्य परिणाम तत्पर होकर स्वर्ग में देव हुए। ये कार्तिकेय मुनिराज अग्निराजा के पुत्र थे, इनकी माता का नाम कृत्तिका था अतः इनको कार्तिक तथा कार्तिकेय और कुमार ऐसा नाम था ।
श्रीशुभचन्द्रभट्टारक जो कि इस ग्रन्थ के टीकाकार हैं उन्हों ने इनके विषय में ऐसा उल्लेख किया है।
" स्वामि कार्तिकेय मुनिः क्रौञ्च्चराजकृतोपसर्ग सोढ्वासाम्यपरिणामण समाधिमरणेन देवलोकं प्राप्तः" इस ग्रन्थकार के विषय में इतना परिचय मिलता है जो कि पर्याप्त है।
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