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महाबंध
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उदय स्थान के बिना मूल प्रकृतियों का बन्ध न हो सकने से सब प्रकृतियों के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान समान हो जायेंगे। अतएव सब मूल प्रकृतियों के अपने-अपने उदय से जो परिणाम उत्पन्न होते हैं वे अपने-अपने स्थितिबन्ध के कारण हैं, अतः उन्हें ही यहाँ स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान स्वीकार किया गया है ।
___ श्री समयसार आस्रव अधिकार (गाथा १७१ ) में बतलाया है कि ज्ञान गुण का जब तक जघन्यपना है तब तक वह यथाख्यात चारित्र के पूर्व अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त में पुनः पुनः परिणमन करता है, इसलिए उसके साथ राग का सद्भाव अवश्यंभावी होने से वह बन्ध का हेतु होता है। आगे (गाथा १७२ में ) इसे
और भी स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि यद्यपि ज्ञानी के बुद्धिपूर्वक अर्थात् मैं रागादि भावों का कर्ता हूँ और वे भाव मेरे कार्य है इस प्रकार रागादि के स्वामित्व को स्वीकार कर राग, द्वेष और मोह का अभाव होने से वह निरास्रव ही है, फिर भी जबतक वह अपने ज्ञान (आत्मा) को सर्वोत्कृष्ट रूप से अनुभवने, जानने
और उसमें रमने में असमर्थ होता हुआ उसे जघन्य भाव से अनुभवता है, जानता है और उसमें रमता है तब तक जघन्य भाव की अन्यथा उत्पत्ति न हो सकने के कारण अनुभीयमान अबुद्धिपूर्वक कर्म कलंक के विपाक का सद्भाव होने से उसके पुद्गल कर्म का बन्ध होता ही है ।
यह आगम प्रमाण है। इससे ज्ञात होता है कि केवल कषाय-उदयस्थानों की स्थिति बन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा न होकर कषाय-उदयस्थानों से अनुरंजित ज्ञानावरणादि कर्मों में से अपने-अपने कर्म के उदय से होनेवाले परिणामों की स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा है। अब इन स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानों के सद्भाव में ज्ञानावरणादि कर्मों का उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्ध किसके होता है इसका विचार करते हैं। ज्ञानावरण का बन्ध करनेवाले जीव दो प्रकार के हैं-सातबन्धक और असातबन्धक, क्योंकि जो जीव ज्ञानावरणीय कर्मों का बन्ध करते हैं वे यथासम्भव सातावेदनीय और असातावेदनीय इनमें से किसी एक का बन्ध अवश्य करते हैं। उनमें से सातबन्धक जीव तीन प्रकार के हैं-चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । जघन्य स्पर्धक से लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक सातावेदनीय का अनुभाग चार भागों में विभक्त है । उनमें से प्रथम खण्ड गुड के समान है। दूसरा खण्ड खाँड के समान है, तीसरा खण्ड शर्करा के समान है और चौथा खण्ड अमृत के समान है। जिसमें ये चारों स्थान होते हैं उसे चतुःस्थानबन्ध कहते हैं, जिसमें अन्तिम खण्ड को छोडकर प्रारम्भ के तीन स्थान होते हैं उसे त्रिस्थानबन्ध कहते हैं तथा जिसमें प्रारम्भ के दो स्थान होते हैं उसे द्विस्थान बन्ध कहते हैं । जिसमें प्रारम्भ का एक भाग हो ऐसे अनुभागसहित सातावेदनीय का बन्ध नहीं होता, सत्त्व होता है, इसलिए यहां सातावेदनीय का एक स्थान बन्ध नहीं कहा । उक्त प्रकार से सातावेदनीय के बन्धक जीव भी तीन प्रकार के हो जाते हैं।
असातबन्धक जीव भी तीन प्रकार के हैं—द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक, और चतुःस्थानबन्धक। जघन्य स्पर्धक से लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक असातावदनीय का अनुभाग चार भागों में विभक्त है। उनमें से प्रथम खण्ड नीम के समान है, दूसरा खण्ड कांजीर के समान है, तीसरा खण्ड विष के समान है और १८
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