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तत्त्वार्थसार
२१९ लोक के मध्य में अवस्थित मध्यलोक में असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं जो क्रम से गोलाकार होकर एक दूसरे को वेष्टित कर के स्थित हैं । सब के मध्य में जम्बूद्वीप और उसके मध्य में मन्दर ( सुमेरू) पर्वत है । जम्बूद्वीप को घेरकर लवणसमुद्र, इसको घेरकर घातकी खण्डद्वीप, इसको घेरकर कालोद समुद्र और इसको घेरकर पुष्करद्वीप स्थित है। पुष्करद्वीप के बीचोंबीच एक मानुषोत्तर नाम का पर्वत स्थित है, जिससे उस द्वीप के दो विभाग हो गये हैं। इस प्रकार दो द्वीप पूरे, दो समुद्र और मानुषोत्तर से इधर का आधा पुष्करद्वीप, इतना क्षेत्र अढाई द्वीप गिना जाता है। इसके भीतर ही मनुष्यों का निवास है । वे मनुष्य आर्य
और म्लेच्छ के भेद से दो प्रकार के हैं। आर्यखण्डों में उत्पन्न होनेवाले आर्य और म्लेच्छखण्डों में उत्पन्न होनेवाले शक आदि म्लेच्छ कहलाते हैं । कुछ मनुष्य अन्तर द्वीपों में भी उत्पन्न होते हैं ।
भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये चार भेद देवों के हैं। घर्मा पृथिवी के प्रथम व द्वितीय विभाग में कुछ भवन हैं, जिनमें भवनवासी देव रहते हैं। रत्नप्रभा पृथिवी के मध्य में तथा उपरिम तलपर विविध अन्तरों में व्यन्तरदेव रहते हैं। रत्नप्रभा पृथिवी से ऊपर तिर्यग्लोक को आच्छादित कर आकाशगत पटलों में ज्योतिष्क देव रहते हैं। वैमानिक देव ऊर्ध्वलोक में स्थित तिरेसठ विमान प्रतरों में रहते हैं। ये देव क्रम से ऊपर ऊपर अपने कर्म के अनुसार कान्ति, लेश्याविशुद्धि, आयु, इन्द्रिय विषय, अवधि विषय, सुख और प्रभाव इनमें अधिक तथा मान, गमन, शरीर और परिग्रह इनमें हीन होते हैं। इस प्रकार संसारी जीवों का क्षेत्र समस्त लोक तथा सिद्धों का क्षेत्र लोक का अन्त है । अन्त में इस अधिकार को समाप्त करते हुए कहा गया है कि जो शेष तत्त्वों के साथ इस जीवतत्त्व का श्रद्धान करता है व उपेक्षा करता है उनमें रागद्वेष नहीं करता है-वह मुक्तिगामी होता है।
३ अजीवतत्त्व-धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये पांच अजीव हैं। ये पांचों अजीव और पूर्वोक्त जीव ये छह द्रव्य कहे जाते हैं। इनमें एकप्रदेशात्मक कालको छोड़कर शेष पाच द्रव्य प्रदेश प्रचयात्मक होने से अस्तिकाय माने गये हैं। द्रव्यका लक्षण उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य है। वह (द्रव्य ) गुण व पर्यायों से सहित होता है । अवस्थान्तर की प्राप्ति का नाम उत्पाद, पूर्व अवस्था के विनाश का नाम व्यय और पूर्वोत्तर दोनों ही अवस्थाओं में रहने वाले त्रैकालिक स्वभाव का नाम ध्रौव्य है। द्रव्य की विधि को उसके शाश्वतिक अस्तित्व को प्रकट करनेवाले स्वभाव को गुण और उसकी परिवर्तित होनेवाली अवस्थाओं को पर्याय कहा जाता है। ये दोनों ही-गुण और पर्यायें-उस द्रव्यसे भिन्न नहीं हैं-तदात्मक ही हैं। उक्त छह द्रव्यों में एक पुद्गल रूपी ( मूर्तिक) और शेष पाच अरूपी हैं। धर्म, अधर्म और आकाश ये एक एक द्रव्य हैं तथा काल, पुद्गल और जीव ये अनेक रूपता को लिये हुए हैं। उक्त छह द्रव्यों में क्रियावान् जीव
और पुद्गल ये दो ही द्रव्य हैं, शेष चार निष्क्रिय हैं । इस प्रकार से अजीव तत्त्व की प्ररूपणा करते हुए आगे उन द्रव्यों की प्रदेश संख्या, अवगाह व उपकार का निरूपण किया गया है ।
तत्पश्चात् धर्म-अधर्म आदि उक्त द्रव्यों का स्वरूप प्रगट करते हुए उनके अस्तित्व को सिद्ध किया गया है। प्रसंगानुसार काल और पुद्गल द्रव्य के कुछ भेद-प्रभेदों का भी विवेचन किया गया है।
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