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पं. आशाधरजी और उनका सागारधर्मामृत
२६१ पालन करना शील कहलाता है तथा निरतिचार पालन करना प्रतिमा कहलाती है, जैसे दूसरी प्रतिमा धारी के सामायिक आदि सात शील व्रत होते हैं वह सातिचार है वही निरतिचार सामायिक करनेवाले को सामायिक प्रतिमा कहलाती है।
व्रत की अपेक्षा रखकर व्रत के एकदेश भंग को अतिचार कहते हैं। वह अतिचार अज्ञान और प्रमाद से ही होते हैं। यदि बुद्धिपूर्वक व्रत भंग किया जाता है तो अनाचार कहलाता है, अतिचार नहीं । शास्त्राम्नाय से सभी व्रतों के पांच पांच अतिचार कहे हैं परन्तु अतिचार पांच ही होते हैं ऐसा नहीं समझना चाहिये । (परेऽप्यूह्यास्तथात्ययाः) इस वाक्य से सिद्ध होता है जिन कारणों से व्रतों में मलीनता आती है वे सब अतिचार हैं। जिस प्रकार बिना हल जोती हुई खेती उत्कृष्ट फलप्रद नहीं होती उसी प्रकार सातिचार व्रत इष्ट फलप्रद नहीं होते है। प्रतिमाओं में अतिचार लगनेपर प्रतिमा वास्तव में प्रतिमा नहीं रहती है। ग्रन्थकार अष्ट मूल गुण आदि के अतिचारों का विवेचन इसी दृष्टिकोण से किया है जिस प्रकार इस ग्रन्थ में अष्ट मूल गुणों के अतिचारों का वर्णन है वैसा और ग्रन्थ में नहीं मिलेगा। इसका कारण है सर्वांगरूप से अज्ञान जनों को धर्म का स्वरूप बताना ।
चतुर्थोऽध्याय चौथे पांचवे और छटे अध्याय में व्रत प्रतिमा का वर्णन है। उनमें से चौथे अध्याय में तीन शल्य रहित व्रती होना चाहिये इसका वर्णन है क्योंकि शल्य सहित व्रती निंद्य है । श्रावको के पंचाणु व्रत, तीन गुण व्रत तथा चार शिक्षा व्रत ये १२ उत्तर गुण कहलाते हैं।
चारित्रसार में रात्रि भोजन त्याग नामका छट्टा अणुव्रत अलग माना है परन्तु उसका आलोकित पान भोजन नाम की भावना में अन्तर्भाव हो जाता है इसलिये ग्रन्थकार उसको अहिंसा व्रतका पोषक माना है स्वतंत्र नहीं क्योंकि रात्रि भोजन के त्याग से अहिंसा व्रत की रक्षा होती है। मूल गुणों की विशुद्धि होती है इसलिये रात्रि भोजन त्याग ग्रन्थकारने मूल गुण माना है। वा रात्रि भोजन त्याग को स्वतंत्र नहीं मानने का एक कारण यह भी है कि आचार्य परम्परा पांच व्रतों के मानने की है इसलिये भी इसे स्वतंत्र व्रत न मानकर उसका अहिंसा व्रत में ही अन्तर्भाव कर लिया है।
जिस प्रकार ज्ञान जब स्थूल पदार्थों का विषय करता है । तब वह स्थूल ज्ञान कहलाता है परन्तु जब वहीं ज्ञान सूक्ष्म पदार्थों का विषय करता है तब वह विशाल ज्ञान कहलाता है उसी प्रकार स्थूल हिंसादि पांच पापों का त्याग करने से अणु व्रती और सूक्ष्म हिंसादि पांचों पापों का त्याग करने से महा व्रती कहलाता है ।
गृहविरत तथा गृहरत के भेद से श्रावक के दो भेद हैं। गृहरत श्रावक अनारंभी संकल्पी हिंसा का त्याग करता है तथा आरंभजनित हिंसा की प्रति यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करता है। अर्थात् अहिंसाणुव्रतधारी गृहरत श्रावक के त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का सर्वथा त्याग रहता है परन्तु जिस
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