Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan

Previous | Next

Page 470
________________ पं. आशाधरजी और उनका सागारधर्मामृत २६५ घरभिक्षा नियमवाला क्षुल्लक अनेक घरों से भिक्षा लाकर जहाँ प्रासुक पानी मिलता है वहाँ आहार ग्रहण करता है । ऐलक एक लंगोटी, पीछी तथा कमंडलु रखता है, कैशलोच करता है, हाथ में भोजन करता है । इस 'को आर्य भी कहते हैं । परस्पर में यह सब ' इच्छामि' बोलते हैं । शास्त्र में जो पूर्व की दोनों प्रतिमाओं के पालन करने के साथ साथ तीनों कालों में निरतिचार सामायिक करता है उसको सामायिक प्रतिमाधारी कहते हैं । जो पूर्वकथित तीन प्रतिमाओं के साथ निरतिचार प्रोषधोपवास व्रत का पालन करता है उसको प्रोषध प्रतिमाधारी कहते हैं । जो पूर्व की चारों प्रतिमाओं के साथ सचित्त आहार आदिक का त्याग करता है उसको सचित्त त्याग प्रतिमाधारी कहते हैं । जो पूर्व की पांच प्रतिमाओं के साथ दिन में मैथुन सेवन का त्याग करता है उसको दिवामैथुन त्याग प्रतिमाधारी कहते हैं । जो पूर्व की छः प्रतिमाओं के स्त्रीमात्र का त्याग करता है उसको ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी कहते हैं । जो पूर्व की सात प्रतिमाओं के साथ कृषि आदि आरंभ का त्याग करता है उसको आरंभत्याग प्रतिमाधारी कहते हैं । जो पूर्व की आठ प्रतिमाओं के साथ परिग्रह का त्याग करता है उसको परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी कहते हैं । जो पूर्व की नौ प्रतिमाओं के साथ अनुमति का त्याग करता है उसको अनुमतित्याग प्रतिमाधारी कहते हैं । जो पूर्व की दस प्रतिमाओं के साथ उद्दिष्ट आहार का त्याग करता है उसको उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी कहते हैं । साधारणतया संसार परिभ्रमण का विनाश करने के लिए दान देना, शील पालना, चतुष पर्व में उपवास करना और जिनेन्द्रदेव की पूजा करना श्रावक का मुख्य धर्म है । गुरु तथा पंच परमेष्ठी की साक्षीपूर्वक ग्रहण किए व्रतों को प्राण जाने पर भी भंग नहीं करना चाहिए क्योंकि प्राणनाश केवल मरण के समय दुःखकर है परन्तु व्रत का नाश भव भव में दुःखकर है । जो सब प्रकार के इंद्रिय के सुखों में आशक्त न होकर विषयभोगों में संतोष धारण करके शीलवान होता है वह सकलसदाचारों में सिद्धपुरुष माना जाता है, इंद्रादिक के द्वारा पूजनीय होता है, शील और सन्तोष ही संसार का अनुपम भूषण है । जो मनुष्य सज्जन और स्वाभिमानी यतियों के द्वारा अंगीकार किये जानेवाले पापनाशक सन्तोष भाव को धारण करता है, ऐसे उत्तम पुरुष में विवेकरूपी सूर्य नष्ट नहीं होता है अज्ञान अन्धकारमय रात्री नहीं फैलती है । दयारूपी अमृत की नदी नहीं रुकती है । सन्तोषी मनुष्य के हृदय में दीनता रूपी ज्वर उत्पन्न नहीं होता है । धनसंपदाएँ विरक्तता को प्राप्त नहीं होती है और विपत्तियां सदैव उससे दूर रहती है। श्रावक अपने व्रतों को पूर्णतया पालन करने के लिए आध्यात्म शास्त्र आदि का अध्ययन करे । तथा बारह भावना और सोलह कारण भावनाओं का चिंतन करे । क्योंकि स्वाध्याय और भावनाओं के चितवन से आत्म कर्तव्य में उत्कर्ष की प्राप्ति होती है । जो स्वाध्याय भावनाओं में आलस्य करते हैं उनका अपने कर्तव्य में उत्साह नहीं रह सकता है । 1 ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566