________________
१६८
आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ वसुनन्दि की 'देवागमवृत्ति' इन तीन उपलब्ध टीकाओं के अतिरिक्त कुछ व्याख्याएँ और लिखी गई हैं जो आज अनुपलब्ध हैं और जिनके संकेत मिलते हैं।' देवागम की महिमा को प्रदर्शित करते हुए आचार्य वादिराज ने उसे सर्वज्ञ का प्रदर्शक और हस्तिमल्ल ने सम्यद्गर्शन का समुत्पादक बतलाया है। इसमें दस परिच्छेद हैं, जो विषय-विभाजन की दृष्टि से स्वयं ग्रन्थकार द्वारा अभिहित हैं। यह स्तोत्ररूप रचना होते हुए भी दार्शनिक कृति है । उस काल में दार्शनिक रचनाएँ प्रायः पद्यात्मक तथा इष्टदेव की गुणस्तुति रूप में रची जाती थीं। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन की ' माध्यमिक कारिका' और ' विग्रहव्यावर्तनी', वसुबन्धु की 'विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' (विंशतिका व त्रिशत्का), दिग्नाग का 'प्रमाणसमुच्चय' आदि रचनाएँ इसी प्रकार की दार्शनिक हैं और पद्यात्मक शैली में रची गयी हैं । समन्तभद्र ने स्वयं अपनी (देवागम, स्वयम्भू स्तोत्र और युक्त्यनुशासन ) तीनों दार्शनिक रचनाएँ कारिकात्मक और स्तुतिरूप में ही रची हैं ।
प्रस्तुत देवागम में भावैकान्त-अभावैकान्त, द्वैतैकान्त-अद्वैतैकान्त, नित्यैकान्त-अनित्यैकान्त, अन्यतैकान्त-अनन्यतैकान्त, अपेक्षकान्त-अनपेक्षैकान्त, हेत्वैकान्त-अहेत्वैकान्त, विज्ञानैकान्त-बहिरर्थैकान्तदैवैकान्त-पौरुषेयैकान्त, पापैकान्त-पुण्यैकान्त, बन्धकारणैकान्त-मोक्षकारणैकान्त जैसे एकान्तवादों की समीक्षापूर्वक उन में सप्तमङ्गी (सप्त कोटियों) की योजना द्वारा स्याद्वाद (कथञ्चिद्वाद ) की स्थापना की गयी है । स्याद्वाद की इतनी स्पष्ट और विस्तृत विवेचना इससे पूर्व जैन दर्शन के किसी ग्रन्थ में उपलब्ध
१. विद्यानन्द ने अष्टसहस्री (पृ. २९४) के अन्त में अकलङ्कदेव के समाप्ति-मङ्गल से पूर्व 'केचित् '
शब्दों के साथ 'देवागम' के किसी व्याख्याकार की व्याख्या का 'जयति जगति' आदि समाप्तिमंगल पद्य दिया है। और उसके बाद ही अकलदेव की अष्टशती का समाप्ति-मंगल निबद्ध किया है। इससे प्रतीत होता है कि अकलङ्क से पूर्व भी 'देवागम' पर किसी आचार्य की व्याख्या रही है, जो विद्यानन्द को प्राप्त थी या उसकी उन्हें जानकारी थी और उसी पर से उन्हों ने उल्लिखित समाप्तिमंगल पद्य दिया है । लघु समन्तभद्र (वि. सं. १३ वीं शती) ने आ. वादीमसिंह द्वारा 'आप्तमीमांसा' के उपलालन (व्याख्यान) किये जाने का उल्लेख अपने 'अष्टसहस्री-टिप्पण' (पृ. १) में किया है। उनके इस उल्लेख से किसी अन्य देवागम-व्याख्या के भी होने की सूचना मिलती है। पर वह भी आज अनुपलब्ध है। अकलङ्कदेव ने अष्टशती (का. ३३ की विवृति) में एक स्थान पर 'पाठान्तरमिदं बहुसंगृहीतं भवति' वाक्य का प्रयोग किया है, जो देवागम के पाठभेदों और उसकी अनेक व्याख्याओं का स्पष्ट संकेत करता है। 'देवागम' के महत्त्व, गाम्भीर्य और विश्रुति को देखते हुए
कोई आश्चर्य नहीं कि उस पर विभिन्न कालों में अनेक टीका-टिप्पणादि लिखे गये हों । २. स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् ।
देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदर्श्यते ॥-पार्श्वचरित ३. देवागमनसूत्रस्य श्रुत्या सद्दर्शनान्वितः ।-विक्रान्तकौरव ४. विद्यानन्द ने अकलङ्क देव के 'स्वोक्तपरिच्छेदे' (अ. श. का. ११४) शब्दों का अर्थ "स्वेनोक्ताः
परिच्छेदा दश यस्मिंस्तत् स्वोक्तपरिच्छेदमिति (शास्त्रं) तत्र" (अ. स., पृ. २१४) यह किया है। उससे विदित है कि देवागम में दश परिच्छेद स्वयं समन्तभद्रोक्त हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org