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चन्द्रप्रभचरितम् : एक परिशीलन
१९५ १. राजा श्रीवर्मा-पुष्करार्ध द्वीपवर्ती सुगन्धि' देश में श्रीपुर नामक पुर था। वहाँ राजा श्रीषेण निवास करते थे । उनकी पत्नी का नाम श्रीकान्ता था। पुत्र के न होने से वह सदा चिन्तित रहा करती थी। किसी दिन गेंद खेलते बच्चों को देखते ही उसके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। उसकी सखी से इस बात को सुनकर राजा श्रीषेण उसे समझाते हुए कहते हैं-देवि, चिन्ता न करो। मैं शीघ्र ही विशिष्ट ज्ञानी मनियों के दर्शन करने जाऊँगा. और उन्हींसे पुत्र न होने का कारण पूऊँगा। कुछ ही दिनों के पश्चात् वे अपने उद्यान में अचानक आकाश से उतरते हुए चारण ऋद्धिधारी मुनिराज अनन्त के दर्शन करते हैं। तत्पश्चात् प्रसङ्ग पाकर वे उनसे पूछते हैं—'भगवन् , मुझे वैराग्य क्यों नहीं हो रहा ?' उन्होंने उत्तर दिया-'राजन् , पुत्रप्राप्ति की इच्छा रहने से आपको वैराग्य नहीं हो रहा है। अब शीघ्र ही पुत्र होगा। अभी तक पुत्र न होने का कारण आपकी पत्नी का पिछले जन्म का अशुभ निदान है।' घर पहुँचने पर वे अपनी पत्नी को पुत्र न होने की उक्त बात सुनाते हैं, जिससे वह प्रसन्न हो जाती है । दोनों धार्मिक कार्यों में संलग्न रहने लगते हैं। इतने में आष्टाह्निक पर्व आ जाता है। दोनों ने इस पर्व में आठ-आठ उपवास किये, आष्टाह्निक पूजा की और अभिषेक भी। कुछ ही दिनों के उपरान्त रानी गर्भ धारण करती है। धीरे-धीरे गर्भ के चिह्न प्रकट होने लगे। नौ मास बीतने पर पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। उसका नाम श्रीवर्मा रखा गया । वयस्क होने पर राजा उसका विवाह कर के युवराज बना देते हैं। उल्कापात देखकर राजा श्रीषेण को वैराग्य हो जाता है । फलतः वे अपने पुत्र युवराज श्रीवर्मा को अपना राज्य सौंप कर श्रीप्रभ' मुनि से जिन दीक्षा लेकर घोर तप करते हैं, और फिर मुक्तिकन्या का वरण करते हैं। पिता के वियोग से श्रीवर्मा कुछ दिनों तक शोकाकुल रहते हैं। मन्त्रिमण्डल के समझाने-बुझाने पर वे दिग्विजय के लिए प्रस्थान करते हैं। उसमें सफल होकर वे घर आते हैं। शरत्कालीन मेघ को शीघ्र ही विलीन होते देख कर उन्हें वैराग्य हो जाता है फलतः वे अपने पुत्र श्रीकान्त को अपना उत्तराधिकार देकर श्रीप्रभ मुनि के निकट जाकर दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं, और फिर घोर तपश्चरण करते हैं।
___२. श्रीधरदेव-घोर तपश्चरण के प्रभाव से श्रीवर्मा पहले स्वर्ग में श्रीधरदेव होते हैं। वहाँ उन्हें दो सागरोपम आयु प्राप्त होती है। उनका अभ्युदय अन्य देवों से कहीं अच्छा था । देवियाँ उन्हें स्थायी उत्सव की भांति देखती रहीं।
१. पुराणसारसंग्रह (७६. २) में देश का नाम गन्धिल लिखा है। २. पुराणसारसंग्रह (७६. ३) में रानी का नाम श्रीमती दिया गया । ३. उत्तर पुराण (५४. ४४) में राजा का चिन्तित होना वर्णित है । ४. उ. पु. (५४.५१) में गर्भ धारण करने से पहले चार स्वप्न देखने का उल्लेख है, और पुराण सा.
(७६.५) में पांच स्वप्न देखने का। ५. पुराण सा. में गर्भचिह्नों की चर्चा नहीं है। ६. उ. पु. (५४.७३ ) में मुनि का नाम श्रीपद्म और पुराण सा. (७८.१९ ) में श्रीधर मिलता है। ७. पुराण सा. (७८.१९) में श्रीकान्त के स्थान में श्रीधर है।
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