________________
आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
संस्कृत भाषा क्लिष्ट थी, अतः उसके पश्चात् प्राकृत, पाली, अपभ्रंश क्रमशः अति अश्लिष्ट होती गई । उसमें सरलीकरण की प्रवृत्ति आती गई । धातुरूप कारकरूप आदि कम होते गये । अपभ्रंश तक आते आते भाषा का अश्लिष्ट रूप अधिक स्पष्ट हो गया । यह भाषा हिन्दी के अति निकट है। श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने तो अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी ही माना है और अपभ्रंश साहित्य के अनेक उद्धरणों का विश्लेषण करके वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे है की यह उद्धरण अपभ्रंश कहे जाय किन्तु यह उस समय की पुरानी हिन्दी ही है । वर्तमान हिन्दी साहित्य से उनका परंपरागत संबंध वाक्य और अर्थ से स्थान स्थान पर स्पष्ट होगा । ? (पुरानी हिन्दी, पृ. १३०)
१८०
भाषा विकास में कान्ति युग आये हैं, जब कि एक भाषा अपने स्थान से च्युत होने लगती और दुसरी भाषा उसका स्थान ग्रहण करने के लिये सक्रिय हो उठती है । ऐसे सक्रान्ति युग, संस्कृत, पालि, पालि-प्राकृत, प्राकृत - अपभ्रंश और अपभ्रंश - हिन्दी के समय में आये है । छटी शताब्दि को प्राकृतअपभ्रंश का संक्रान्ति युग माना जाता है जब कि प्राकृत के स्थानपर अपभ्रंश साहित्यिक भाषा का स्थान ले रही थी और कवि गण अपभ्रंश की ओर झुक रहे थे । किन्तु अभी तक अपभ्रंश का स्वरूप निर्णीत नहीं हो सका था । उसके अनेक प्रयोग हिन्दी जैसे थे। योगीन्दु मुनि के परमात्म प्रकाश और योगसार की जो भाषा है उसे हम छटी शताब्दि की नहीं मान सकते क्यों कि उस भाषा में हिन्दी जैसा अत्यधिक सरलीकरण आ गया था । देखिये योगसार के दोहे हिन्दी के कितने निकट हैं
देहा दिउ जे परि कहिया ते अप्पणु ण होहिं ।
इउ जाणे विण जीव तुह अप्पा अप्प मुणें हि ॥ ११ ॥
Jain Education International
चउ राशि लक्खहिं फिरउं कालु अणाई अनंतु ।
पर सम्मत्तु ण लद्ध जिय एहउ जाणि णि मंतु ॥ २१ ॥
66
' हेमचन्द्र ने अपने सिद्ध हेम शब्दानुशासन में आठवे अध्याय में प्राकृत व्याकरण पर विचार किया है । उन्होंने व्याकरण की विभिन्न विशेषताओं के कारण प्रमाण रूप में अपभ्रंश रचनाओं को उद्धृत किया है ।
हेमचन्द का समय सं. ११४५
ये उद्धरण पूर्ववर्ती एवं समकालीन ग्रंथकारों की रचनाओं से लिये गये हैं । से १२२९ माना जाता है । अधिकांश उद्धरण आठवी नवीं और दशमी के भी तीन दोहे थोडे अंतर के साथ हेमचन्द्र के व्याकरण में पाये जाते हैं
शताब्दि के हैं । परमात्मप्रकाश
।
इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि हेमचन्द्र ने आठवीं शताब्दि से १२ वीं शताब्दि तक की अपभ्रंश पर विचार किया है । अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि योगीन्दु मुनि आठवीं शताब्दि के अंत अथवा नवमी के प्रारंभ में हुए होंगे । डॉ. हरिवंश कोछड ने भी योगीन्दु का समय आठवीं नवमीं शताब्दि माना है । उन्होंने डॉ. उपाध्ये के मत का खंडन करते हुए लिखा है कि चण्ड के प्राकृत लक्षण में परमात्मप्रकाश का एक दोहा उद्धृत किया हुआ मिलता है, जिसके आधार पर डॉ. उपाध्ये योगीन्दु का समय चण्ड से पूर्व छठी शताब्दि मानते हैं किन्तु संभव है कि वह दोहा दोनों ने किसी दुसरे स्रोत से लिया हो। इसलिये इस युक्ति से हम
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org