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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ तृतीय पर्व में चौदहवें कुलकर श्री नाभिराज के समय गगणाङ्गण में सर्व प्रथम घनघटा छाई हुई दिखती है, उसमें बिजली चमकती है, मन्द मन्द गर्जना होती है, सूर्य की सुनहली रश्मियों के सम्पर्क से उसमें रंगबिरंगे इन्द्र धनुष दिखाई देते हैं, कभी मन्द, कभी मध्यम, और कभी तीव्र वर्षा होती है, पृथिवी जलमय हो जाती हैं, मयूर नृत्य करने लगते हैं, चिर सन्तप्त चातक संतोष की सांस लेते हैं और प्रवृष्ट वारिधारा वसुधा तल में व्याकीर्ण हो जाती हैं।
इस प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन कवि ने जिस सरसता और सरलता के साथ किया है वह एक अध्ययन की वस्तु है। अन्य कवियों के काव्य में आप यही बात क्लिष्ट-बुद्धिगम्य शब्दों से परिवेष्टित पाते है और इसी कारण स्थूल परिधान से आवृत कामिनी के सौन्दर्य की भ्रांति वहां प्रकृति का सौन्दर्य अपने रूप में प्रस्फुटित नहीं हो पाता है परन्तु यहां कवि के सरल शब्दविन्यास से प्रकृति की प्राकृतिक सुषमा परिधानावृत नहीं हो सकी है किन्तु सूक्ष्म-महीनवस्त्रावलि से सुशोभित किसी सुन्दरी के गात्र की अवदान आभा की भांती अत्यन्त प्रस्फुटित हुई है।
श्रीमती और वज्रजंघ के भोगोपभोगों का वर्णन भोगभूमि की भव्यता का व्याख्यान, मरुदेवी गात्र की गरिमा, श्री भगवान् वृषभदेव के जन्म कल्याणक का दृश्य, अभिषेक कालीन जल का विस्तार, क्षीर समुद्र का सौन्दर्य, भगवान् की बाल्यक्रीडा, पिता नाभिराज की प्रेरणा से यशोदा और सुनन्दा के साथ विवाह करना, राज्यपालन, कर्मभूमि की रचना, नीलांजना के विलय का निमित्त पाकर चार हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण करना, छह माह का योग समाप्त होनेपर आहार के लिये लगातार छह माहतक भ्रमण करना, हस्तिनापुर में राजा सोमप्रभ और श्रेयांस के द्वारा इक्षुरस का आहार दिया जाना, तपोलीनता, नमि विनमि की राज्य प्रार्थना, समूचे सर्ग में व्याप्त नाना वृत्तमय विजयाईगिरि की सुन्दरता, भारत की दिग्विजय, भरत बाहुबली का युद्ध, राजनीति का उपदेश, ब्राह्मण वर्ण की स्थापना, सुलोचना का स्वयंवर, जयकुमार और अर्ककीर्ति का अद्भुत युद्ध, आदि आदि विषयों के सरस सालंकार-प्रवाहान्वित वर्णन में कविने जो कमाल किया है उससे पाठक का हृदयमयूर सहसा नाच उठता है। बरबस मुख से निकलने लगता है धन्य महाकवि धन्य ! गर्भ कालिक वर्णन के समय षट्कुमारिकाओ और मरु देवी के बीच प्रश्नोत्तर रूप में कवि ने जो प्रहेलिका तथा चित्रालंकार की छटा दिखलायी है वह आश्चर्य में डालनेवाली वस्तु है ।
यदि आचार्य जिनसेन भगवान् का स्तवन करने बैठते हैं तो इतने तन्मय हुए दिखते हैं कि उन्हें समय की अवधि का भी भान नहीं रहता और एक-दो-नहीं अष्टोत्तर हजार नामों से भगवान् का सुयश गाते हैं। उनके ऐसे स्तोत्र आज सहस्र नाम स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे समवशरण का वर्णन करते हैं तो पाठक और श्रोता दोनों को ऐसा विदित होने लगता है मानों हम साक्षात समवशरण का ही दर्शन कर रहे हैं। चतुर्भेदात्मक ध्यान के वर्णन से पूरा पर्व भरा हुआ है। उसके अध्ययन से ऐसा लगने लगता है कि मानों अब मुझे शुक्लध्यान होनेवाला ही है और मेरे समस्त कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष प्राप्त हुआ ही चाहता है। भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय का वर्णन पढते समय ऐसा लगने लगता है कि जैसे मैं गंगा, सिंधु, विजयार्ध, वृषभाचल और दीपाचल आदि का साक्षात् अवलोकन कर रहा हूं।
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