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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ रूप से अवस्थित होता है वह सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण और अभव्यों से अनन्त गुणा होता है । इस प्रकार प्रत्येक समय में बन्ध को प्राप्त होने वाले कर्मपुञ्ज की समयप्रबद्ध संज्ञा है। मूल प्रकृति प्रदेशबन्ध और उत्तर प्रकृति प्रदेशबन्ध के भेद से वह दो प्रकार का है ।
____ अब किस कर्म को किस हिसाब से कर्मपुञ्ज मिलता है इसका सकारण निर्देश करते हैं। जब आठों कर्मों का बन्ध होता है तब आयु कर्म का स्थितिबन्ध सब से स्तोक होने के कारण उसके हिस्से में सबसे कम कर्मपुञ्ज आता है । वेदनीय को छोडकर शेष कर्मों को अपने-अपने स्थिति बन्ध के अनुसार कर्मपुञ्ज बटवारे में आता है। इसलिए नाम कर्म और गोत्र कर्म में से प्रत्येक को उससे विशेष अधिक कर्मपुञ्ज प्राप्त होता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म में से प्रत्येक को उससे विशेष अधिक कर्मपुञ्ज प्राप्त होता है। मोहनीय कर्म को उससे विशेष कर्मपुञ्ज प्राप्त होता है। तथा वेदनीय कर्म के निमित्त से सभी कर्म जीवों में सुख-दुःख को उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं, इसलिए वेदनीय कर्म को सबसे अधिक कर्मपुञ्ज प्राप्त होता है ।
जब आयु कर्म को छोडकर सात कर्मों का बन्ध होता है तब सात कर्मों में और जब आयु तथा मोहनीय कर्म को छोडकर यथास्थान छह कर्मों का बन्ध होता है तब छह कर्मों में उक्त विधि से प्रत्येक समय में बन्ध को प्राप्त हुए कर्म पुञ्ज का बटवारा होता है। यह प्रत्येक समय में बन्ध को प्राप्त हुए समय प्रबद्ध में से किस कर्म को कितना द्रव्य मिलता है इसका विचार है। उत्तर प्रकृतियों में से जहाँ जितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है उनमें अपनी-अपनी मूल प्रकृतियों को मिले हुए द्रव्य के अनुसार बटवारा होता रहता है। वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म की यथा सम्भव एक समय में एक प्रकृति का ही बन्ध होता है, इसलिए जब जिस प्रकृति का बन्ध हो तब उक्त कर्मों का पूरा द्रव्य उसी प्रकृति को मिलता है। शेष कर्मों का आगमानुसार विचार कर लेना चाहिए। तथा आयु कर्म के बन्ध के विषय में भी आगमानुसार विचार कर लेना चाहिए।
इस अर्थाधिकार के वे सब अनुयोगद्वार हैं जो प्रकृतिबन्ध आदि अर्थाधिकारों के निबद्ध कर आये हैं। मात्र प्रथम अनुयोगद्वार का स्थानप्ररूपणा है, इसके दो उप अनुयोगद्वार हैं—योगस्थान प्ररूपणा और प्रदेशबन्ध प्ररूपणा ।
योगस्थानप्ररूपणा-मन, वचन और काय के निमित्त से होनेवाले जीव प्रदेशों के परिस्पन्द को योग कहते हैं । योग शरीर नाम कर्म के उदय से होता है। इसलिये यह औदयिक है। परमागम में इसे क्षायोपशमिक कहने का कारण यह है कि उक्त कर्मों के उदय से शरीर नाम कर्म के योग पुद्गल पुञ्ज के सञ्चय को प्राप्त होने पर वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से वृद्धि को और हानि को प्राप्त हुए वीर्य के निमित्त से जीव प्रदेशों का संकोच-विकोच, वृद्धि और हानि को प्राप्त होता है, इसलिए उसे परमागम में क्षायोपशमिक कहा गया है। परन्तु है वह औदायिक ही। यद्यपि वीर्यान्तराय कर्म का क्षय होने से अरहंतों के क्षायोपशमिक वीर्य नहीं पाया जाता यह यथार्थ है। परन्तु जैसा कि हम पहले कह आये हैं कि योग औदयिक ही है, क्षायोपशमिक नहीं, क्षायोपशमिकपने को तो उसमें उपचार किया गया है, इसलिए अरहन्तों
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