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महाबंध
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एकस्थान जीवप्रमाणानुगम-एक-एक अनुभाग बन्धाध्यवसान स्थान में अनन्त जीव पाये जाते हैं यह बतलाया गया है। यहाँ यह विचार सब सकषाय जीवों की अपेक्षा किया जा रहा है, केवल त्रस जीवों की अपेक्षा नहीं इतना विशेष समझना चाहिए ।
निरन्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम- इसमें सब अनुभाग बन्धाध्यवसान स्थान जीवों से विरहित नहीं है यह बतलाया गया है।
सान्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम—इसमें ऐसा कोई अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान नहीं है जो जीवों से विरहित हो यह बतलाया गया है।
नानाजीवकालानुगम-एक-एक अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान में नाना जीव सर्वदा पाये जाते हैं यह बतलाया गया है।
वृद्धिप्ररूपणा-इसमें अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा इन दो अनुयोगद्वारों का आलम्बन लेकर किस अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान में कितने जीव होते हैं यह ऊहापोह किया गया है।
यवमध्यप्ररूपणा-इसमें सब अनुभागबन्धाध्यवसान स्थानों के असंख्यातवें भाग में यवमध्य होता है तथा यवमध्य के नीचे अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान थोडे होते हैं और उसके ऊपर असंख्यातगुणे होते हैं यह बतलाया गया है।
स्पर्शप्ररूपणा-इसमें किस अपेक्षा से कितना स्पर्शनकाल होता है इसका विचार किया गया है। अल्पबहुत्वप्ररूपणा—इसमें किसमें कितने जीव पाये जाते हैं इसका ऊहापोह किया गया है ।
उत्तर प्रकृति अनुभागबन्ध के प्रसंग से अध्यवसान समुदाहार का विचार करते हुए ये तीन अनुयोगद्वार निबद्ध किये गये हैं-प्रकृतिसमुदाहार, स्थितिसमुदाहार, और तीव्र मन्दता । इनमें से प्रकृतिसमुदाहार के एक अवान्तर भेद प्रमाणानुग के अनुसार सब प्रकृतियों के अनुभागबन्धाध्यवसान असंख्यात लोक प्रमाण बतलाकर यह विशेष निर्देश किया गया है कि अपगतवेद मार्गणा और सूक्ष्म साम्पराय संयतमार्गणा में एक-एक ही परिणाम स्थान होता है। इसका कारण यह है कि नौंवा गुणस्थान अनिवृत्तिकरण है। उसके प्रत्येक समय में अन्य-अन्य एक ही परिणाम होता है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में भी प्रत्येक समय में अन्य-अन्य एक ही परिणाम होता है, दोनों गुणस्थानों में जो प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि को लिये हुए होता है। यही कारण है कि उक्त दोनों मार्गणाओं में वहाँ बन्ध योग्य प्रकृतियों का एक-एक परिणामस्थान स्वीकार किया गया है। आगे पूर्वोक्त तीनों अनुयोगद्वारों को निबद्ध कर अनुभाग बन्ध अर्थाधिकार समाप्त किया गया है।
४. प्रदेशबन्ध कार्मण वर्गणाओं का योग के निमित्त से कर्मभाव को प्राप्त होकर जीव प्रदशों में एकक्षेत्रावगाह होकर अवस्थित रहने को प्रदेशबन्ध कहते हैं । इस विधि से जो कर्मपुञ्ज जीव प्रदशों में एक क्षेत्रावगाह
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