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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ चवथा खण्ड हालाहल के समान है। जिसमें प्रारम्भ के दो स्थान होते हैं उसे द्विस्थानबन्ध कहते हैं, जिसमें प्रारम्भ के तीन स्थान होते हैं उसे त्रिस्थानबन्ध कहते हैं तथा जिसमें चारों स्थान होते हैं उसे चतु:स्थानबन्ध कहते हैं । इस प्रकार असाता के उक्त स्थानों के बन्धक जीव भी तीन प्रकार के होते हैं ।
यहाँ सातावेदनीय के चतु:स्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध होते हैं। यहां अत्यन्त तीव्र कषाय के अभावस्वरूप मन्द कषाय का नाम विशुद्धता है । वे अत्यन्त मन्द संक्लेश परिणामवाले होते हैं यह इसका तात्पर्य है। उनसे सातावेदनीय के त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं अर्थात् उत्कट कषायवाले होते हैं। उनसे सातावेदनीय के द्विस्थानबन्धक जीवसंक्लिष्टतर होते हैं । अर्थात् सातावेदनीय के त्रिस्थानबन्धक जीव जितने उत्कट कषायवाले होते हैं उनसे द्विस्थानबन्धक जीव और अधिक संक्लेशयुक्त कषायवाले होते हैं।
असातावेदनीय के द्विस्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध होते हैं। अर्थात् मन्द कषायवाले होते हैं । उनसे त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं। अर्थात् अति उत्कट संक्लेश युक्त होते हैं। उनसे चतुःस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर होते हैं । अर्थात् अत्यन्त बहुत कषायवाले होते हैं ।
इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल कषाय की मन्दता होना इसका नाम विशुद्धि और कषाय की तीव्रता का होना इसका नाम संक्लेश नहीं है, क्योंकि कषाय की मन्दता और तीव्रता विशुद्धि और संक्लेश दोनों में देखी जाती है, अतः आलम्बन भेद से विशुद्धि और संक्लेश समझना चाहिए । जहाँ सच्चे देव, गुरु
और शास्त्र तथा दया दानादि का आलम्बन हो वह कषाय विशुद्धि स्वरूप कहलाती है तथा जहां संसार के प्रयोजन भूत पंचेन्द्रियों के विषयादि आलम्बन हो वह कषाय संक्लेश स्वरूप कहलाती है। कषाय की मन्दता और तीव्रता दोनों स्थलों पर सम्भव है।
इस हिसाब से ज्ञानावरणीय कर्म के स्थिति बन्धका विचार करने पर विदित होता है कि साता वेदनीयके चतुःस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरणीय का जघन्य स्थिति बन्ध करते हैं। यहाँ दो बातें विशेष ज्ञातव्य हैं। प्रथम यह कि उक्त जीव ज्ञानावरणीय का जघन्य स्थिति बन्ध ही करते हैं ऐसा एकान्त से नहीं समझना चाहिए। किन्तु ज्ञानावरण का अजघन्य स्थितिबन्ध भी उक्त जीवों के देखा जाता है। द्वितीय यह कि यहां ज्ञानावरण कहने से सभी ध्रुव प्रकृतियों को ग्रहण करना चाहिए ।
साता वेदनीय के त्रिस्थान बन्धक जीव ज्ञानावरण का अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। यहाँ यद्यपि अजघन्य में उत्कृष्ट का और अनुत्कृष्ट में जघन्य का परिग्रह हो जाता है, पर उक्त जीव ज्ञानावरण की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का बन्ध नहीं करते है, क्यों कि उक्त जीवों में इन दोनों स्थितियों के बन्ध की योग्यता नहीं होती है।
साता वेदनीय के द्विस्थान बन्धक जीव सातावेदनीय को ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। यहाँ उक्त जीव सातावेदनीय का ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं इस कथन का यह आशय है कि वे ज्ञानावरण कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध नहीं करते । यह आशय नहीं कि वे मात्र सातावेदनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थितिका ही
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