________________
महाबंध
[संक्षिप्त विषय-निर्देश] सि. आ. पं. श्री. फूलचन्दजी सिद्धांत शास्त्री, वाराणसी
१ षट्खण्डागम का मूल आधार और विषयनिर्देश चौदह पूर्वो में अग्रायणीय पूर्व दूसरा है । इसके चौदह अर्थाधिकार हैं। पांचवा अर्थाधिकार चयनलब्धि है, वेदनाकृत्स्नप्राभूत यह दूसरा नाम है। इसके चौबीस अधिकार हैं। जिनमें से प्रारम्भ के छह अर्थाधिकारों के नाम हैं-कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन । इन्हीं छह अर्थाधिकारों को प्रकृत षट्खण्डागम सिद्धान्त में निबद्ध किया गया है। मात्र दो अपवाद हैं-एक तो जीवस्थान चूलिका की सम्यक्त्वोत्पत्ति नामक आठवी चूलिका दृष्टिवाद अंग के दूसरे सूत्र नामक अर्थाधिकार से निकली है। दूसरे गति-आगति नामक नौवीं चूलिका व्याख्याप्रज्ञप्ति से निकली है।
यह षट्खण्डागम सिद्धान्त को प्रातःस्मरणीय आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि ने किस आधार से निबद्ध किया था इसका सामान्य अवलोकन है। प्रत्येक खण्ड का अन्तः स्पर्श करने पर विहित होता है कि परमागम में बन्धन अर्थाधिकार के बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्ध विधान नामक जिन चार अर्थाधिकारों का निर्देश किया गया है उनमें से बन्ध नामक अर्थाधिकार से प्रारम्भ की सात चूलिकाएं निबद्ध की गई हैं। इन सब चूलिकाओं में प्रकृत में उपयोगी होने से कर्मों की मूल व उत्तर प्रकृतियों को उस उस कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बन्ध व अधिकारी भेद से बननेवाले स्थानों को, कर्मों की जघन्य व उत्कृष्ट स्थितियों को तथा गति भेद से प्रथम सम्यत्क्व की उत्पत्ति के सन्मुख हुए जीवों के बंधनेवाली प्रकृतियोंसम्बन्धी तीन महादण्डकों को निबद्ध किया गया है।
षट्खण्डागम का दूसरा खण्ड क्षुल्लक बन्ध है। इसमें सब जीवों में कौन जीव बन्धक है और कौन जीव अबन्धक है इसका सुस्पष्ट खुलासा करना प्रयोजन होने से बन्धक नामक दूसरे अर्थाधिकार को निबद्ध कर जो जीव बन्धक हैं वे क्यों बन्धक हैं और जो जीव अबन्धक हैं वे क्यों अबन्धक हैं इसे स्पष्ट करने के लिये चौदह मार्गणाओं के अवान्तर भेदोंसहित सब जीव कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से यथा सम्भव बद्ध और अबद्ध होते हैं इसे निबद्ध किया गया है। आगे छटवें खण्ड में बन्धन के चारों अर्थाधिकारों को निबद्ध करना प्रयोजन होने से इस खण्ड को क्षुल्लक बन्ध कहा गया है। इस खण्ड में उक्त दो अनुयोगद्वारों को छोडकर अन्य जितने भी अनुयोगद्वार निबद्ध किये गये हैं, प्रकृत में उनका स्पष्टीकरण करना प्रयोजनीय नहीं होने से उनके विषय में कुछ भी नहीं लिखा जा रहा है ।
१२६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org