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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ को विशुद्धि कहते हैं यह नियम यहाँ बन जाता है यह ठीक है। परन्तु इस नियम को जीवों की अन्यत्र संसार स्वरूप अवस्था में लागू नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उस अवस्था में छह प्रकार की वृद्धि और छह प्रकार की हानि द्वारा कषाय उदय स्थानों की उत्पत्ति देखी जाती है ।
माना कि संसार अवस्था में भी अनन्तगुण हानी का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त स्वीकार किया गया है, इसलिए वहाँ भी अन्तर्मुहूर्त काल तक अनुभाग स्पर्धकों की हानि होनेसे उतने ही काल तक विशुद्धि बन जाती है यह कहा जा सकता है। परन्तु यहाँ विशुद्धि का यह अर्थ विवक्षित नहीं है। किन्तु यहाँ पर साता आदि के बन्ध के योग्य परिणामों को विशुद्धि कहते हैं । और असाता आदि के बन्ध के योग्य परिणामों को संक्लेश कहते हैं यही अर्थ विवक्षित है। अन्यथा उत्कृष्ट स्थिति के बन्ध के योग्य विशुद्धिस्थान अल्प होते हैं यह नियम नहीं बन सकता । इसलिए जघन्य स्थिति बन्ध से लेकर उत्कृष्ट स्थिति बन्ध तक संक्लेश स्थान उत्तरोत्तर अधिक होते हैं और उत्कृष्ट स्थिति बन्ध से लेकर जघन्य स्थिति बन्धतक विशुद्धि स्थान उत्तरोत्तर अधिक होते हैं यह सिद्ध हो जाता है और ऐसा सिद्ध हो जाने पर लक्षण भेद से दोनों प्रकार के परिणामों को पृथक् पृथक् ही मानना चाहिए। इन दोनों प्रकार के परिणामों का पृथक् पृथक् लक्षण पूर्व में किया ही है।
इस प्रकार १४ जीव समासों में संक्लेश, विशुद्धि स्थानों की अपेक्षा अल्प बहुत्व के समाप्त होने पर इसी अनुयोग द्वार में संयतों सहित १४ जीव समासों में पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के जीवों को विवक्षित कर जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के अल्प बहुत्व का निर्देश करके इस अनुयोग द्वारको समाप्त किया है।
२. निषेक प्ररूपणा दूसरा अनुयोग द्वार निषेक प्ररूपणा है। इसको अनन्तरोपनिघा और परम्परोपनिघा के आधार से निबद्ध कर इस अनुयोग द्वार को समाप्त किया गया है। स्पष्टीकरण इस प्रकार है-आयु कर्म को छोडकर अन्य कर्मों का जितना-जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बन्ध होता है उसमें से आबाधा को कम कर जितनी स्थिति शेष रहती है उसके प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक स्थिति के प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर एक एक चय की हानि होते हुए प्रत्येक समय में बद्ध द्रव्य निषेक रूप से विभक्त होता जाता है । इसे विशेष रूप से समझने के लिए जीवस्थान चलिका (पृ. १५० से १५८ तक) को देखिए। प्रत्येक समय में जितना द्रव्य बँधता है उसकी समय प्रबद्ध संज्ञा है। स्थिति बन्ध के समय आबाधा को छोडकर स्थिति के जितने समय शेष रहते हैं उनमें से प्रत्येक समय में समय प्रबद्ध में से जितना द्रव्य निक्षिप्त होता है उसकी निषेक संज्ञा है तथा स्थिति बन्ध के होने पर उसके प्रारम्भ के जितने समयों में समय-प्रबद्ध सम्बन्धी द्रव्य का निक्षेप नहीं होता उसकी आबाधा संज्ञा है। प्रथम निषेक से दूसरे निषेक में, दूसरे निषेक से तीसरे निषेक में इत्यादि रूप से अन्तिम निषेक तक उत्तरोत्तर जितने द्रव्य को कम करते जाते हैं उसकी चय संज्ञा है। इसी प्रकार अन्य विषयों को समझ कर प्रकृत प्ररूपणा का स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए।
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