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महाबंध
१२९ अब प्रश्न यह है कि जीवोंकी ये दो प्रकारकी अवस्थाऐं कैसे होती हैं ? यद्यपि इस प्रश्नका समाधान पूर्वोक्त इस कथन से हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्यके कार्यों में बाह्य और अन्तरंग उपाधिको समग्रता होती है । फिर भी यहाँ उस बाह्य सामग्री की सांगोपांग मीमांसा करनी है, आभ्यन्तर उपाधि के साथ जिसकी प्राप्ति होनेपर जीवों की संसार ( चतुर्गति परिभ्रमणरूप ) अवस्था नियमसे होती है । भगवान् भूतबली ने इसी प्रश्न के उत्तरस्वरूप महाबन्ध परमागमको निबद्ध किया है । इसमें जीव सम्बद्ध उस बाह्य सामग्रीकी कर्म संज्ञा रख कर और उसे व्यवहारनय ( नैगमनय ) से जीवका कार्य स्वीकार कर बतलाया गया है कि वे कर्म कितने प्रकार के हैं उनकी प्रकृति, स्थिति और अनुभाग क्या है । संख्या में वे प्रदेशों की अपेक्षा कितने होते हैं । बन्धकी अपेक्षा ओघ और आदेश से कौन जीव किन कर्मोका बन्ध करते हैं । वे सब कर्म मूल और अवान्तर भेदों की अपेक्षा कितने प्रकारके हैं। क्या सभी पुद्गलकर्मभाव को प्राप्त होते हैं या नियत पुद्गल ही कर्म भाव को प्राप्त होते हैं । उनका अवस्थान काल और क्षेत्र आदि कितना है आदि प्रकृत विषय सम्बधी प्रश्नों का समाधान विधि रूप से महाबन्ध परमागम द्वारा किया गया है । इसमें सब कर्मों के प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ऐसे चार भेद करके उक्त विधि से बन्ध तत्त्व को अपेक्षा सब कर्मों का विचार किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए ।
१. प्रकृति बन्ध
प्रकृति बन्ध यह पद प्रकृति और बन्ध इन दो शब्दों से मिलकर बना है । प्रकृति, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची शब्द हैं। इससे ज्ञात होता है कि जीव के मिथ्या दर्शन आदि को निमित्त कर जो कार्मण वर्गणाएं कर्म भाव को प्राप्त होती हैं उनकी मूल प्रकृति जीव की विविध नर-नारकादि अवस्थाओं के होने में तथा मिथ्या दर्शनादि भावों के होने में निमित्त होती हैं । अर्थात् जब जीव अपनी पुरुषार्थ ता के कारण आभ्यन्तर उपाधिवश जिस अवस्था को प्राप्त होता है उसकी उस अवस्था के होने में ये ज्ञानावरणादि कर्म निमित्त ( व्यवहार हेतु ) होते हैं यह उनकी प्रकृति है ।
किन्तु कार्मण वर्गणाओं के, जीव के मिथ्यादर्शन आदि के निमित्त से कर्म भाव को प्राप्त होने पर वे कर्म जीव से सम्बद्ध होकर रहते हैं या असम्बद्ध होकर रहते हैं इसी के उत्तर स्वरूप यहां बन्ध-तत्त्व को स्वीकार किया गया है । परमागम में बन्ध दो प्रकार का बतलाया है— एक तादात्म्य सम्बन्ध रूप और दूसरा संयोग सम्बन्ध रूप । इनमें से प्रकृत में तादात्म्य सम्बन्ध विवक्षित नहीं है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य का अपने गुण पर्याय के साथ ही तादात्म्यरूप बन्ध होता है, दो द्रव्यों या उनके गुण-पर्यायों के मध्य नहीं। संयोग सम्बन्ध अनेक प्रकार का होता है सो उसमें भी दो या दो से अधिक परमाणुओं आदि में जैसा श्लेष बन्ध होता है वह भी यहाँ विवक्षित नहीं है, क्यों कि पुद्गल स्पर्शवान द्रव्य होने पर भी जीव स्पर्शादि गुणों से रहित अमूर्त द्रव्य है, अतः जीव और पुद्गल का श्लेष बन्ध बन नहीं सकता । स्वर्ण का कीचड़ के मध्य रह कर दोनों का जैसा संयोग सम्बन्ध होता है ऐसा भी यहा जीव और कर्म का संयोग सम्बन्ध नहीं बनता, क्योंकि स्वर्ण के कीचड़ के मध्य होते हुए भी स्वर्ण कीचड़ से अलिप्त रहता है,
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