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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
क्यों कि कीचड़ के निमित्त से स्वर्ण में किसी प्रकार का परिणाम नहीं होता । मात्र परस्पर अवगाह रूप संयोगसम्बन्ध भी जीव और कर्म का नहीं स्वीकार किया जा सकता, क्योंकि जीव प्रदेशों का विस्रसोपचयों के साथ परस्पर अवगाह होने पर भी विस्रसोपचयों के निमित्त से जीव में नरकादि रूप व्यञ्जन पर्याय और मिथ्यादर्शनादि भाव रूप किसी प्रकार का परिणाम नहीं होता । तब यहाँ किस प्रकार का बन्ध स्वीकार किया गया है ऐसा प्रश्न होने पर उसका समाधान यह है कि जीव के मिथ्यादर्शनादि भावों को निमित्त कर जीव प्रदेशों में अवगाहन कर स्थित विस्रसोपचयों के कर्म भाव को प्राप्त होने पर उनका और जीव प्रदेशों का परस्पर अवगाहन कर अवस्थित होना यही जीव का कर्म के साथ बन्ध है । ऐसा बन्ध ही प्रकृत में विवक्षित है । इस प्रकार जीव का कर्म के साथ बन्ध होने पर उसकी प्रकृति के अनुसार उस बन्ध को प्रकृति बन्ध कहते हैं । इसी प्रकृति बन्ध को ओघ और आदेश से महाबन्ध के प्रथम अर्थाधिकार में विविध अनुयोग द्वारों का आलम्बन लेकर निबद्ध किया गया है ।
वे अनुयोग द्वार इस प्रकार हैं - ( १ ) प्रकृति समुत्कीर्तन (२) सर्वबन्ध (३) नोसर्वबन्ध (४) उत्कृष्टबन्ध (५) अनुत्कृष्टवन्ध (६) जघन्यबन्ध (७) अजघन्यबन्ध ( ८ ) सादिबन्ध ( ९ ) अनादिबन्ध (१०, ध्रुवबन्ध (११) अध्रुवबन्ध (१२) बन्धस्वामित्वविचय (१३) एक जीव की अपेक्षा काल (१४) एक जीव की अपेक्षा अन्तर (१५) सन्निकर्ष (१६) भंगविचय (१७) भागाभागानुगम ( १८) परिमाणानुगम (१९) क्षेत्रानुगम (२०) स्पर्शनानुगम (२१) नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम (२२) नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम (२३) भावानुगम (२४) जीव अल्पबहुत्वानुगम और (२५) अद्धा - अल्प बहुत्वानुगम ।
१. प्रकृति समुत्कीर्तन
प्रथम अनुयोग द्वार प्रकृति समुत्कीर्तन है । इस में कर्मों की आठों मूल और उत्तर प्रकृतियों का निर्देश किया गया है । किन्तु महाबन्ध के प्रथम ताडपत्र के त्रुटित हो जाने से महाबन्धका प्रारम्भ किस प्रकार हुआ है इसका ठीक ज्ञान नहीं हो पाता है । इतना अवश्य है कि इस अनुयोग द्वारका अवशिष्ट जो भाग मुद्रित है उसके अवलोकन से ऐसा सुनिश्चित प्रतीत होता है कि वर्गणाखण्ड के प्रकृति अनुयोग द्वार में ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियों का जिस विधि से निरूपण उपलब्ध होता है, महाबन्ध में भी ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियों के निरूपण में कुछ पाठ भेद के साथ लगभग वही पद्धति अपनाई गई है । प्रकृति अनुयोगद्वार के ५९ वें सूत्रका अन्तिम भाग इस प्रकार है
संवच्छर - जुग - पुन्व-पव-पलिदोवम - सागरोव मादओ विधओ भवंत्ति ॥ ५९ ॥
इस के स्थान में महाबंध में इस स्थलपर पाठ है
अयणं संवच्छर-पलिदोवम - सागरोव मादओ भवंति ।
इसी प्रकार प्रकृति अनुयोग द्वार के अवधिज्ञान सम्बन्धी जो सूत्र गाथाएं निबद्ध है वे सब यद्यपि महाबन्ध के प्रकृति समुत्कीर्तन में भी निबद्ध है, पर उन में पाठ भेद के साथ व्यतिक्रम भी देखा जाता है । उदाहरणार्थ प्रकृति अनुयोग द्वार में 'काले चउण्ण उड्ढी ' यह सूत्र गाया पहले है और 'तेजाकम्म सरीरं '
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