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महाबंध
१३१ यह सूत्र गाथा बाद में। किन्तु महाबन्ध में 'तेजाकम्म सरीरं ' सूत्र गाथा पहले है और 'काले चदुण्हं वुड्ढी' यह सूत्र गाथा बाद में । इसी प्रकार कतिपय अन्य सूत्र गाथाओं में भी व्यतिक्रम पाया जाता है ।
आगे दर्शनावरण से लेकर अन्तरायतक शेष सात कर्मों की किस की कितनी प्रकृतियाँ है मात्र इतना उल्लेख कर प्रकृति समुत्कीर्तन अनुयोग द्वार समाप्त किया गया है। इतना अवश्य है कि नाम कर्म की बन्ध प्रकृतियों की ४२ संख्या का उल्लेख कर उसके बाद यह वचन आया है ।
'यं तं गदिणामं कम्मं तं चदु विधं णिरयगदियाव देवगहित्ति । यथा पगदि मंगो तथा कादव्यो ।' इसमें आये हुए 'पगदि मंगो कादव्यो' पद से विदित होता है कि सम्भव है इस पदद्वारा वर्गणाखण्ड के प्रकृति अनुयोगद्वार के अनुसार जानने की सूचना की गई है ।
___समस्त कर्म विषयक वाङ्मय में ज्ञानावरणादि कर्मों का जो पाठ विषयक क्रम स्वीकार किया गया है उसके अनुसार ज्ञान की प्रधानता को लक्ष्य में रखकर ज्ञानावरण कर्म को सर्वप्रथम रखकर तदनन्तर दर्शनावरण कर्म को रखा है-यतः दर्शनपूर्वक तत्वार्थों का ज्ञान होनेपर ही उनका श्रद्धान किया जाता है, अतः दर्शनावरण के बाद मोहनीय कर्म का पाठ स्वीकार किया है। अन्तराय यद्यपि घातिकर्म है, पर वह नामादि तीन कर्मों के निमित्त से ही जीव के भोगादि गुणों के घातने में समर्थ होता है इसलिए उसका पाठ अघाति कर्मों के अन्त में स्वीकार किया है। आयु भव में अवस्थिति का निमित्त है, इसलिए नाम कर्म का पाठ आयुकर्म के बाद रखा है तथा भव के होनेपर ही जीव का नीच-उच्चपना होना सम्भव है, इसलिए गोत्र कर्म का पाठ नाम कर्म के बाद स्वीकार किया है । यद्यपि वेदनीय अघातिकर्म है पर वह मोह के बलसे ही सुखदःख का वदेन करने में समर्थ है, अन्यथा नहीं. इसलिए मोहनीय कर्म के पूर्व घातिकर्म के मध्य उसका पाठ स्वीकार किया है। यह आठों कर्मों के पाठक्रम को स्वीकार करने विषयक उक्त कथन गोम्मटसार कर्मकाण्ड के आधार से किया है। बहुत सम्भव है कि इस पाठकर्म का निर्देश स्वयं प्रातःस्मरणीय आचार्य भूतबलि ने प्रकृत अधिकार के प्रारम्भ में किया होगा। पर उसके प्रथम ताडपत्र के त्रुटित हो जाने के कारण ही हमने गोम्मटसार कर्मकाण्ड के आधार से यह स्पष्टीकरण किया है।
यह तो सुनिश्चित है कि २३ प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं में से सत्स्वरूप सभी वर्गणाओं से ज्ञानावरणादि कर्मों का निर्माण नहीं होता। किन्तु उनमें से मात्र कार्मण वर्गणाएं ही ज्ञानावरणादि कर्म भाव को प्राप्त होती हैं। उसमें भी अपने निश्चय उपादान के अनुसार ही वे वर्गणाऐं मिथ्यादर्शनादि बाह्य हेतु को प्राप्त कर कर्मभाव को प्राप्त होती हैं, सभी नहीं। जिस प्रकार यह नियम है उसी प्रकार उपादान भाव को प्राप्त हुई सभी कार्मणवर्गणाएं ज्ञानावरणादि रूप से कर्मभाव को प्राप्त नहीं होती। किन्तु जैसे गेहूंरूप परिणमन करनेवाले बीजरूप स्कन्ध अलग होते हैं और चनरूप परिणमन करनेवाले बीजरूप स्कन्ध अलग होते हैं यह सामान्य नियम है वैसे ही ज्ञानावरणरूप परिणमन करनेवाली कार्मण वर्गणाएं जुदी हैं और दर्शनावरणादिरूप परिणमन करनेवाली कार्मणवर्गणाएं अलग हैं । इन ज्ञानावरणादि कर्मों का अपनी अपनी जाति को छोड कर अन्य कर्म रूप संक्रमित नहीं होने का यही कारण है। तथा
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