________________
कासायपाहुडसुत अर्थात् जयधवलसिद्धान्त
१२५ त्रिक और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन सात प्रकृतियों का घात करके क्षायिक सम्यक्त्व का पाना आवश्यक होता है । इसे पालने के बाद जीव अधिक से अधिक तीसरे या चौथे भव में अवश्य ही मुक्त हो जाता है।
क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही चारित्रमोह की क्षपणा का अधिकारी है, अतः वह सकल संयम धारण कर और सातिशय अप्रमत्त संयत होकर क्षपक श्रेणीपर चढते हुए क्रमशः अन्तर्मुहूर्त में ही अपूर्व करण गुणस्थान में प्रथम शुक्ल ध्यान के आश्रय से प्रति समय असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा करता हुआ अनिवृत्ति करण गुणस्थान में चारित्रमोह की सूक्ष्म लोभ के अतिरिक्त सर्व प्रकृतियों का क्षय कर दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म लोभ का भी क्षय कर क्षीणमोही बन जाता है और एक ही अन्तर्मुहूर्त में शेष अघातित्रिक का भी क्षय कर वीतराग सर्वज्ञ बन जाता है। पुनः तेरहवें गुणस्थान के अन्त में केवलि-समुद्धात कर सर्व कर्मों की स्थिति समान कर के योग-निरोध कर अयोगी बन कर और सर्व कर्मों से विमुक्त होकर शुद्ध आत्मस्वरूपी बन नित्य निरंजन सिद्ध हो जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org