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कसायपाहुडसुत्त अर्थात् जयधवल सिद्धान्त
श्री. हिरालाल सिद्धान्त शास्त्री, ब्यावर
आचार्य श्री गुणधरस्वामी के द्वारा रचित 'कसायपाहुड सुत्त' लगभग एक हजार वर्ष से 'जयधवल सिद्धान्त' इन नाम से प्रसिद्ध है। वस्तुतः वीरसेनाचार्य ने 'कसायपाहुडसुत्त' और उस पर रचित यति वृषभाचार्य के चर्णि सूत्रों को आधार बनाकर जो जयधवला टीका रची, वही उसके कारण यह ग्रन्थ 'जयधवलसिद्धान्त' के नाम से प्रख्यात हो गया । ग्यारहवीं शताब्दी के विद्वान् पुष्पदन्त ने अपने अपभ्रंश भाषा में रचित महापुराण के प्रारम्भ में अपनी लघुता का परिचय देते हुए लिखा है
'ण उ जाणमि आगमु सद्द धामु, सिद्धन्तु धवलु जयधवलु णामु । अर्थात् 'मैं धवलसिद्धान्त और जयधवलसिद्धान्त जैसे आगम ग्रन्थों को नहीं जानता ।'
इस उल्लेख से स्पष्ट है कि 'षट्खण्डागम' पर धवला टीका रचे जाने के बाद वह 'धवलसिद्धान्त' नाम से और 'कषायपाहुड' पर जयधवला टीका रचे जाने के बाद वह 'जयधवलसिद्धान्त' नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए चले आरहे हैं ।
भ. महावीर के जिन उपदेशों को उनके प्रधान शिष्यों ने--जिन्हें साधुओं के विशाल गणों और संघ को धारण करने, उनको शिक्षा-दीक्षा देने एवं सार-संभाल करने के कारण गणधर कहा जाता थासंकलन करके अक्षर-निबद्ध किया; वे उपदेश ' द्वादशाङ्गश्रुत' के नाम से संसार में विश्रुत हुए। यह द्वादशाङ्गश्रुत कई शताब्दियों तक आचार्य परम्परा के द्वारा मौखिक रूप से सर्वसाधारण में प्रचलित रहा । किन्तु कालक्रम से जब लोगों की ग्रहण और धारणा शक्ति का हास होने लगा, तब श्रुत-रक्षा की भावना से प्रेरित होकर कुछ विशिष्ट ज्ञानी आचार्यों ने उस विस्तृत श्रुत के विभिन्न अंगों का उपसंहार करके उसे गाथा सूत्रों में निबद्धकर सर्वसाधारण में उनका प्रचार जारी रखा। इस प्रकार के उपसंहृत एवं गाथासूत्रनिबद्ध जैन वाङ्मय के भीतर अनुसन्धान करने पर ज्ञात होता है कि कषायपाहुड ही सर्वप्रथम निबद्ध हुआ है।
भ. महावीर की द्वादशाङ्गी वाणी में बारहवां अंग अति विस्तीर्ण है । इस अंग के पांच भेदों में एक पूर्वगत भेद है। उसके भी उत्पादपूर्व आदि चौदह भेद हैं। उनमें ज्ञान-प्रवाह नामका पांचवां पूर्व है । इसके भी वस्तु नामक बारह अवान्तर अधिकार है। उनमें भी दसवीं वस्तु के अंतर्गत 'पाहुड' नाम
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