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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ पृथ्वीकायादि षट् जीवनिकाय कर्मनिमित्तक, कर्मसंयुक्त और कर्म का हेतु होने से परद्रव्य है और आत्मा चैतन्य स्वभाव से उनसे भिन्न है, ऐसा भेद विज्ञान ही स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का कारण है और सोपरक्त उपयोग परद्रव्य में प्रवत्ति का कारण है । आत्मा अपने परिणामों को प्राप्त होता हुआ आत्मपरिणामों का ही कर्ता है किन्तु पुद्गलमय कर्मपरिणामों का नहीं, क्यों कि स्वभावतः वह पुद्गलपरिणाम के ग्रहण त्याग से रहित है । आत्मा अपने ही अशुद्ध परिणामों का कर्ता होने से इन अशुद्ध परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमते हुए आत्म प्रदेशों में विशेष अवगाहरूप रहते है । और यथासमय अपनी-अपनी (स्थिति समाप्त होने पर ) जीव के शुद्ध परिणामों का निमित्त पाकर कर्म-क्षय को पाते हैं इसलिए कर्मनिमित्तक मोहरागद्वेष से उपरक्त आत्मा कर्मरज से लिप्त होता हुआ स्वयं बन्ध है।
___ राग परिणाम आत्मा का कर्म है तथा आत्मा उसका कर्ता है यह निश्चय नय है और कर्मरूप पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म और आत्मा उनका कर्ता यह व्यवहारनय है । दोनों नय है क्यों कि दोनों प्रकार से द्रव्य की प्रतीति होती है परन्तु स्वद्रव्य के परिणाम को बतलानेवाला निश्चयनय मोक्षमार्ग में साधकतम होने से उपादेय है । क्यों कि जो जीव विकारी आत्मा स्वयं बन्ध है ऐसी स्वभाव की अपेक्षासहित स्वीकार करना है वह परद्रव्य और परभाबों से स्वयं को असंपृक्त रखता है । व्यवहार से निमित्त का ज्ञान करके उससे लक्ष हटाना ही कार्यकारी होने से व्यवहारनय हेय है साथ ही साथ निश्चयनय के आलंबन से पर से लक्ष्य हटाकर, ज्ञान स्वभाव के आश्रय से शुद्ध आत्मा के सम्मुख होकर शुद्ध आत्मा की होनेवाली प्राप्ति सर्वतः श्रेयस्कर है । इसीसे मोह तथा कर्म का नाश होता है। अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख की प्राप्ति होती है, जीव उसका सानुभव करता हुआ अविचल रूप से अनन्त काल रहता है।
इस तरह इस द्वितीय श्रुतस्कंध में द्रव्य का सामान्य वर्णनपूर्वक विशेष वर्णन तथा आत्मा का द्रव्य गुण पर्याय का स्वरूप बतलाकर शुद्धात्म द्रव्य की प्राप्ति की प्रेरणा की है ।
चरणानुयोग चूलिका-तृतीय श्रुतस्कंध सामान्य द्रव्य प्ररूपणा के उदाहरण स्वरूप जीव के द्रव्य गुण पर्याय का वर्णन तथा प्रथम अध्याय में वर्णित आत्मा और ज्ञान स्वभाव के सिद्धि के लिए विशेष द्रव्य प्रज्ञापना द्वितीय श्रुतस्कंध में कही गयी नरनारकादि पर्यायों में मूढत्व छूट कर स्वभाव के लक्ष्य से श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र की साधना एक मात्र उपाय है। आत्म द्रव्य स्वभाव के अनुसार चरण होता है, और चरण के अनुसार ही आत्म स्वभाव बनता है। दोनों सापेक्ष होने से भूमिकानुसार द्रव्य का आश्रय लेकर या चारित्र का आश्रय लेकर मोक्ष मार्ग में आरोहण करना चाहिए । द्रव्यस्वभाव की सिद्धि में चारित्र की सिद्धि है और चारित्र की सिद्धि में द्रव्य की सिद्धि है। इसलिए आत्मद्रव्य स्वभाव के अविरोधी चारित्र स्वीकार्य है, आत्मस्वभाव की साधना चरण (चारित्र ) के विना अशक्य है, श्रमण का चारित्र ही नियम से स्वभाव साधक होने से श्रमण की चर्या का वर्णन मोक्षमार्ग के वर्णन में क्रमप्राप्त होता है। जिस तरह स्वयं आचार्य ने प्रतिज्ञा के अनुसार साम्य नामक श्रामण्य का स्वीकार किया उसी तरह दुःख से छुटकारा चाहने
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