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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ पश्चात श्री धरसेन आचार्य हुए, जो सोरठ देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में ध्यान करते थे । इनका काल १९ वर्ष रहा। श्री धरसेन आचार्य को दृष्टिवाद नामक बारहवे अंग के चौथे भेद पूर्वगत अर्थात् १४ पूर्व के अंतरगत दूसरे अग्रायणीय पूर्व के पांचवे भेद चयन लब्धी के एक देश सूत्रों का ज्ञान था। उन्हें इस बात की चिन्ता हुई कि उनके पश्चात द्वादशांग के सूत्रों के ज्ञान का लोप हो जायगा । अतः श्री धरसेन आचार्य ने महिमा नगरी के मुनि सम्मेलन को पत्र लिखा जिसके फलस्वरूप वहाँ के दो मुनि उनके पास पहुंचे । श्रीधरसेन आचार्य ने उनकी बुद्धि की परीक्षा करके उन्हें सिद्धान्त अर्थात द्वादशाङ्ग के सूत्र पढ़ाये । ये दोनों मुनि पुष्पदंत और भूतबलि थे। इनका काल क्रमशः ३० वर्ष व २० वर्ष रहा।
दृष्टिवाद बारहवें अंग के चौथे भेद पूर्वगत अर्थात् १४ पूर्व के अन्तर्गत दूसरे अग्रायणीय रहा। पूर्व के पांचवें भेद चयनलब्धि के जो सूत्र श्री पुष्पदन्त और भतबलि को श्री धरसेन आचार्य ने पढ़ाये थे। इन दोनों मुनियों ने उन सूत्रों को षट्-खण्ड रूप से लिपीबद्ध किया और पुस्तकारूढ़ करके ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी को चतुर्विध संघ के साथ उन पुस्तकों को उपकरण मान श्रुतज्ञान की पूजा की जिससे श्रुतपञ्चमी पर्व की प्रख्याति आज तक चली आती है और इस तिथि को आज तक श्रुत की पूजा होती है।' इन छह खण्डों में श्री गणधर कृत द्वादशाङ्ग के सूत्रों का संकलन है । अतः इस ग्रन्थ का नाम षट्खण्डागम प्रसिद्ध हुआ। आगम और सिद्धान्त एकार्थवाची है। अतः श्री वीरसेन आचार्य ने इसको षट्खण्डसिद्धान्त कहा है । श्री इन्द्रनन्दि ने श्रुतावतार में इसको षट्खण्डागम कहा है।
षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड का नाम 'जीवट्ठाण' है, इसमें १४ गुणस्थानों व १४ मार्गणाओं की अपक्षा १. सत् , २. संख्या, ३. क्षेत्र, ४. स्पर्शन, ५. काल, ६. अन्तर, ७. भाव, ८. अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगद्वार द्वारा जीव का कथन है तथा नौं चलिकाएं हैं जिनमें १ प्रकृतिसमुत्कीर्तना, २ स्थानसमुत्कीर्तना, ३-५ तीन महादण्डक, ६ जघन्यस्थिति, ७ उत्कृष्टस्थिति, ८ सम्यक्त्वोत्पत्ति, ९ गतिआगति का कथन है ।
दूसरा खण्ड 'खुद्दाबन्ध' है। इसमें १ स्वामित्व, २ काल. ३ अन्तर, ४ भंगविचय, ५ द्रव्यप्रमाणानुगम, ६ क्षेत्रानुगम, ७ स्पर्शनानुगम, ८ नाना जीव काल, ९ नाना जीव का अन्तर, १० भागाभागानुगम, ११ अल्पबहुत्वानुगम इन ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा कर्मबंध करनेवाले जीव का वर्णन किया गया है ।
तीसरा खण्ड 'बन्ध स्वामित्व विचय' है। इसमें मार्गणाओं की अपेक्षा कितनी प्रकृतियों का कौन बन्धक हे और उनकी बन्ध व्युच्छिति किस गुण स्थान में होती है तथा स्वोदय बन्ध प्रकृतियों व परोदय बन्ध प्रकृतियों इत्यादि का कथन सविस्तार पाया जाता है । १. “ज्येष्ठसितपक्षपञ्चम्यां चातुर्वर्ण्यसंघसमवेतः ।
तत्पुस्तकोपकरणैर्व्यधात् क्रिया पूर्व के पूजाम् ॥१४३॥ श्रुतपञ्चमीति तेन प्रख्यातिं तिथिरियं परामाप ।
अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजाम् कुर्वते जैनाः ।।१४४॥” (इन्द्रनन्दि श्रुतावतार) २. “आगमो सिद्धतो पवयणामिदि एयठो।" धवल, पु. १, पृ. २०.
षटखण्डागमरचनाभिप्रायं पुष्पदन्तो गुरोः ॥१३७॥
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