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श्री धवलसिद्धान्त ग्रंथराज
श्री. रतनचंदजी मुख्त्यार
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ यह जीवात्मा अनादिकाल से चतुर्गति (नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव ) रूप संसार में भ्रमण करता हुआ दुख उठा रहा है। यद्यपि कभी कभी काकतालि-न्यायवत् साता वेदनीय कर्मोदय से इन्द्रिय-जनित सुख की प्राप्ति हो जाती है किन्तु उस समय भी तृष्णा के कारण विषय-चाह रूप दाह से तपतायमान रहता है। इस भवभ्रमण रूप संसार के दुःखों से छूटने का उपाय विश्वतत्त्वज्ञ और कर्मरूप पहाड के भेदनेवाले मोक्षमार्ग के नेता ने स्वयं मोक्षमार्ग पर चल कर अपनी दिव्य-ध्वनि द्वारा बतलाया है। अतः उनको नमस्कार किया गया है।
भरतक्षेत्र वर्तमान पंचमकाल में यद्यपि उन नेताओं की उपलब्धि नहीं है तथापि उनके द्वारा हितोपदेश के आधार पर गणधरों द्वारा रचित द्वादशाङ्ग के कुछ सूत्र मूल रूप से अभी भी उपलब्ध है। यह हमारा अहोभाग्य है।
“आगमचक्खू साहू इंदिय चक्खूणि सव्वभूदाणि ।” [प्रवचनसार ३१३४] सब मनुष्यों के चर्मचक्षु अर्थात इन्द्रिय चक्षु होती है। किन्तु साधु पुरुष के आगमचक्षु होते हैं।
“जिणसत्थादो अछे पच्चक्खादीहिं बुज्झदोणियमा।
___ खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ॥" [प्रवचनसार ११८६] जिन आगम के अध्ययन से जीव अजीव आदि पदार्थों अर्थात द्रव्य गुण, पर्यायों का ज्ञान होता है, जिससे मोह का नाश होता है।
“एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु ।
णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ॥" [प्रवचनसार ३।३२] जिन आगम से जीव आदि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होता है जिससे सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र की एकता होती अर्थात अभेद (निश्चय) रत्नत्रय की प्राप्ति होती है । अतः आगम का अध्ययन प्रधान है।
"मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ।" [मोक्षशास्त्र १०।१]
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