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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ देवियों की आयु पांच पल्य से शुरू करके प्रत्येक युगल में दो बढाते हुए सत्ताईस पल्य तक, पुनः सात बढाते हुए आरण अच्युत कल्प तक जानना टीकाकार वसुनन्दिने ८० वी गाथा में बताई गई आयु को द्वितीय उपदेश कहा है।
और तिलोयपण्णत्ति में मूलाचार में उक्त प्रथम उपदेश के अनुसार बताई गई आयु को देते हुए लिखा है जो आचार्य सोलह कल्प मानते हैं वे इस प्रकार आयु कहते हैं। इस के बाद मूलाचार का मत दिया है। अर्थात सोलह स्वर्ग मानने वालों के दो मत हैं वे दोनों मत वर्तमान मूलाचार में हैं किन्तु तिलोयपण्णत्तिकार मूलाचार में दिये गये द्वितीय मत को मूलाचार का कहते हैं और प्रथम को सोलह स्वर्ग मानने वालों का मत कहते हैं। अर्थात् वह सामान्य मत है और दूसरा मत मूलाचार का है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि मूलाचार नामक ग्रन्थ यतिवृषमाचार्य के सामने वर्तमान था। किन्तु वह यही था और इसी रूप में था यह चिन्त्य है।
यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि मूलाचार नाम मूल और आचार दो शब्दों के मेल से निष्पन्न है । इसमें से आचार नाम तो स्पष्ट है क्यों कि ग्रन्थ में आचार का वर्णन है । किन्तु उससे पहले जो मूल शब्द जोड़ा गया है यह वैसा ही जैसा मूल गुण का मूल शब्द अर्थात् मूलभूत आचार । किन्तु इसके साथ ही दिगम्बर परम्परा में मूलसंघ नाम का भी एक संघ था। यह सब जानते हैं कि भगवान् महावीर का अविभक्त संघ निर्ग्रन्थ संघ के नाम से विश्रुत था । अशोक के शिलालेखों में निगंठ्या निर्ग्रन्थ नाम से ही उसका निर्देश मिलता है। किन्तु धारवाड़ जिले से प्राप्त कदम्बवंशी नरेश शिवमृगेश वर्मा के शिलालेख (९८) में श्वेत पट महा श्रमण संघ और निर्ग्रन्थ महा श्रमण संघ का पृथक् पृथक् निर्देश है। अतः प्रकट है कि ईसा की ४-५ वीं शताब्दी में मूल नाम निर्ग्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदाय को प्राप्त हो गया था । इसके साथ ही गंगवंशी नरेश माधववर्मा द्वितीय (ई. सन् ४०० के लगभग) और उसके पुत्र अविनीत के शिलालेखों में (नं. ९० और ९४ ) मूलसंघ का उल्लेख है। चूंकि जैन परम्परा का प्राचीन मूल नाम निर्ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा को प्राप्त हुआ था अतः वह मूलसंघ के नाम से कहा गया। उसी का आचार जिस ग्रन्थ में वर्णित हो उसका नाम मूलाचार होना सर्वथा उचित है। मूलाचार का उल्लेख तिलोयपण्णत्ति में है और तिलोयपण्णत्ति ई. सन् की पांचवी शताब्दी के अन्तिम चरण के लगभग रची गई थी। अतः मूलाचार उससे पहले ई. सन् की चतुर्थ शताब्दी के लगभग रचा गया होना चाहिये ।
मूलाचार की मौलिकता मूलाचार एक संग्रह ग्रन्थ है ऐसा विचार कुछ वर्ष पूर्व एक विद्वान न प्रकाशित कराया था। पीछे उन्होंने उसे एक मौलिक ग्रन्थ स्वीकार किया। किन्तु मूलाचार में ऐसी अनेक गाथाएँ है जो अन्य ग्रन्थों में मिलती हैं । उदाहरण के लिए मूलाचार में ऐसी अनेक गाथाएँ हैं जो श्वेताम्बरीय आवश्यक नियुक्ति में भी हैं । ये गाथाएँ भी मूलाचार के षडावश्यक नामक अधिकार की हैं। इसीतरह मूलाचार के पिण्डशुद्धि
१. देखों अनेकान्त वर्ष २, कि. ३ तथा ५ में पं. परमानन्दजी के लेख ।
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