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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ गण में प्रवेश करने से विवाह कर लेना उत्तम है। विवाह में राग की उत्पत्ति होती है और गण दोषों का आकर है।
टीकाकार ने इसकी टीका में लिखा है कि यति अन्त समय में यदि गण में रहता है तो शिष्य वगैरह के मोहवश पार्श्वस्थ साधुओं के सम्पर्क में रहेगा । इस से तो विवाह करना श्रेष्ठ है क्यों कि गण सब दोषों का आकर है।
इस से ऐसा लगता है कि उस समय में गण में पार्श्वस्थ साधुओं का बाहुल्य हो गया था । अन्यथा ऐसा कथन ग्रन्थकार को क्यों करना पड़ता ?
साधु के मूल गुण-मूलाचार के प्रथम अधिकार में साधु के मूलगुणों का कथन है । मूलगुण का अर्थ है प्रधान अनुष्ठान, जो उत्तरगुणों का आधारभूत होता है । वे २८ है
पंचय महन्वयाई समिदीओ पंच जिणवरुवदिट्ठा । पंचेविंदिय रोहा छप्पिय आवासया लोचो ॥२॥ अच्चेलकमण्हाणं खिदिसयणमंदत घंसणं चैव ।
ठिदि भोयणमेय भत्तं मूलगुणा अठ्ठवीसा दु ॥३।। पांच महाव्रत, पांच समिति, पांचो इन्द्रियों का रोध, छ आवश्यक, केशलोच, अचेलक-नग्नता, स्नान न करना, पृथ्वीपर शयन करना, दन्त घर्षण न करना, खडे होकर भोजन करना, एकबार भोजन, ये २८ मूलगुण है।
साधु के आवश्यक उपकरण-उक्त मूल गुणों के प्रकाश में दिगंबर जैन साधु की आवश्यकताएं अत्यन्त सीमित हो जाती हैं । नग्नता के कारण उसे किसी भी प्रकार के वस्त्र की आवश्यकता नहीं रहती। हाथ में भोजी होने से पात्र की आवश्यकता नहीं रहती। वह केवल शौच के लिये एक कमण्डल और जीव रक्षा के निमित्त एक मयूरपिच्छिका रखता है। शयन करने के लिये भूमि या शिला या लकडी का तख्ता या घास पर्याप्त है। इन के सिवाय साधु की कोई उपधि नहीं होती। मूलाचार (१।१४ ) में तीन उपधियाँ बतलाई हैं-ज्ञानोपधि पुस्तकादि, संयमोपधि-पिच्छिकादि, शौचोपधि-कमण्डलु आदि ।
निवास स्थान-मूलाचार (१०५८-६० ) में लिखा है- जिस स्थान में कषाय की उत्पत्ति हो, आदर का अभाव हो, इन्द्रिय राग के साधनों का प्राचुर्य हो, स्त्री बाहुल्य हो, तथा जो क्षेत्र दुःख बहुल, उपसर्गबहुल हो उस क्षेत्र में साधु को नहीं रहना चाहिये । गिरिकी गुफा, स्मशान, शून्यागार, वृक्षमूल ये स्थान विराग बहुल होने से साधु के योग्य हैं । जिस क्षेत्र में कोई राजा न हों या दुष्ट राजा हो, जहां श्रोता ग्रहणशील न हों संयम का घात संभव हो, वहां साधू को नहीं रहना चाहिये ।
ईर्या समितियों तो साधु को वर्षावास के चार माह छोड़कर सदा भ्रमण करते रहना चाहिये भ्रमण करते समय ईर्या समिति पूर्वक गमन करने का विधान है। मूलाचार (५।१०७-१०९) में कहा है जब सूर्य का उदय हो जाये, सब ओर प्रकाश फैल जाये, देखने में कोई बाधा न हो तब स्वाध्याय, प्रतिक्रमण
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