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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
शरण में आकर प्रभावशाली आचार्य बने । जिस पर अकलंक और विद्यानन्द जैसे मुनिपुंगवों के द्वारा भाष्य और टीका ग्रंथ रचे गये हैं वह समन्तभद्र वाणी सभी के द्वारा अभिनन्दनीय, वन्दनीय और स्मरणीय है ।
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इस समय स्वामी समन्तभद्र की ५ कृतियां उपलब्ध हैं । देवागम ( आप्तमीमांसा ) स्वयंभू स्तोत्र, मुक्त्यनुशासन, जिनशतक ( स्तुतिविद्या), रत्नकरण्ड श्रावकाचार ( समीचीन धर्मशास्त्र ) । इनके अतिरिक्त ' जीवसिद्धि' नामकी कृति का उल्लेख तो मिलता है ? ' पर वह अब तक कहीं उपलब्ध नहीं हुई । यहां इन कृतियों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है :
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देवागम — जिस तरह आदिनाथ स्तोत्र ' भक्तामर ' शब्दों से प्रारंभ होने के कारण भक्तामर कहा जाता है । उसी तरह यह ग्रन्थ भी 'देवागम' शब्दों से प्रारंभ होने के कारण 'देवागम' कहा जाने लगा। इसका दूसरा नाम 'आप्तमीमांसा ' है । ग्रन्थ में दश परिच्छेद और ११४ कारिकाएं हैं । ग्रन्थकार ने वीर जिनकी परीक्षा कर उन्हें सर्वज्ञ और आप्त बतलाया, तथा ' युक्तिशास्त्रविरोधिवाक् हेतु के द्वारा आत की परीक्षा की गई है - जिसके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी पाये गए उन्हें ही आप्त बतलाया । और जिनके वचन युक्ति और शास्त्र के विरोधी हैं, उन्हें आप्त नहीं बतलाया । क्योंकि उनके वचन बाधित हैं। साथ में यह भी बतलाया कि हे भगवान् ! आपके शासनामृत से बाह्य जो सर्वथा एकान्त वादी हैं, आप्त नहीं हैं, किन्तु आप्त के अभिमान से दग्ध हैं; क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्ट तत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है। इस कारण भगवान आपही निर्दोष हैं । पश्चात् उन एकान्त बादों की भावैकान्त अभावैकान्त, उभयैकान्त, अवाच्यतैकान्त, द्वैतैकान्त, अद्वैतैकान्त भेदैकान्त - अभेदैकान्त, प्रथकत्यैकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, क्षणिकैकान्त, दैवैकान्त, पारुषैकान्त हेतुवाद, आगमवाद आदि की समीक्षा की गई है। और बतलाया है कि इन एकान्तों के कारण लोक, परलोक, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, धर्म, अधर्म, दैव, पुरुषार्थ आदि की व्यवस्था नहीं बन सकती । इनकी सिद्धि स्याद्वाद से होती है । स्याद्वाद का कथन करते हुए बतलाया है कि स्याद्वाद के बिना हेय, उपादेय तत्त्वों की व्यवस्था भी नहीं बनती। क्योंकि स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की विवक्षा लिये रहता है । आचार्य महोदय ने इन एकान्त वादियों को -- जो बस्तु को सर्वथा एकरूप मान्यता के आग्रह में अनुरक्त हैं, उन्हें स्व-पर वैरी बतलाया है - ' एकान्तग्रहरक्तेषु नाथ स्व-पर-वैरिषु' । वे एकान्त के पक्षपाति होने के कारण स्व-पर वैरी हैं । क्योंकि उनके मत में शुभ अशुभ, कर्म, लोक, परलोक आदि की व्यवस्था नहीं बन सकती । कारण वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । उसमें अनन्त धर्मगुणस्वरूप मौजूद हैं। वह उनमें से एक ही धर्म को मानता है- उसी का उसे पक्ष है, इसीलिये उसे
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१ जीवसिद्धि विधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् । वचः सन्मतभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते || “सत्वमेवाऽसि निर्दोषो युक्तिशास्त्राऽविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन बाध्यते ।। त्वन्मतामृतबाह्यानां, सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥
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- हरिपुराण १-३०
- आप्तमीमांसा ६-७
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