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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ तरह वस्तु तत्त्व उत्पादादि त्रयात्मक युक्ति द्वारा सिद्ध किया गया है उसी तरह वीर शासन में सम्पूर्ण अर्थ समूह प्रत्यक्ष और आगम अविरोधी युक्तियों से प्रसिद्ध है।'
पुन्नाट संघी जिनसेन ने हरिवंश पुराण में बतलाया है कि आचार्य समन्तभद्र ने जीवादि सिद्धि नामक ग्रन्थ बनाकर युक्त्यनुशासन की रचना की है। चुनाचे टीकाकार आचार्य विद्यानन्द ने भी ग्रन्थ का नाम युक्त्यनुशासन बतलाया है।
ग्रन्थ में दार्शनिक दृष्टि से जो वस्तुतत्त्व चर्चित हुआ है वह बड़ा ही गम्भीर और तात्त्विक है। इसमें स्तवन प्रणाली से ६४ पद्यों द्वारा स्वमत पर मत के गुणदोषों का निरूपण प्रबल युक्तियों द्वारा किया गया है।
___आचार्य समन्तभद्र ने 'युक्तिशास्त्राऽविरोधिवाक्त्व' हेतु से देवागम में आप्त की परीक्षा की है। जिनके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोध रूप हैं उन्हें ही आप्त बतलाया है। और शेष का आप्त होना बाधित ठहराया है। और बतलाया है कि आपके शासनामृत से बाह्य जो सर्वथा एकान्तवादी हैं वे आप्त नहीं हैं किन्तु आप्ताभिमान से दग्ध हैं; क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्ट तत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है।
___ ग्रन्थ में भगवान महावीर की महानता को प्रदर्शित करते हुए बतलाया है कि वे अतुलित शान्ति के साथ शुद्धि और शक्ति की पराकाष्ठा को-चरमसीमा को–प्राप्त हुए है। और शान्तिसुखस्वरूप हैं—आप में ज्ञानावरण दर्शनावरणरूप कर्मफल के क्षय से अनुपम ज्ञानदर्शन का तथा अन्तराय कर्म के अभाव से अनन्तवीर्य का आविर्भाव हुआ है, और मोहनीय कर्म के विनाश से अनुपम सुख को प्राप्त हैं। आप ब्रह्म पथ के—मोक्षमार्ग के नेता हैं, और महान् हैं। आपका मत-अनेकान्तात्मक शासन-दया, दम, त्याग और समाधि की निष्ठा को लिये हुए हैं-ओतप्रोत हैं । नयों और प्रमाणों द्वारा सम्यक वस्तुतत्त्व को सुनिश्चित करने वाला है, और सभी एकान्त वादियों द्वारा अबाध्य है। इस कारण वह
१. 'जीव सिद्धि विधापीह कृत युक्त्यनुशासनम् ।'-हरिवंशपुराण. २. जीयात् समन्तभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनम् ।' (१) 'स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपते वीरस्य निःशेषतेः । श्रीमद्वीरजिनेश्वरामलगुणस्तोत्रं परीक्षे क्षणैः । साक्षात्स्वामि समन्तभद्र गुरुभिस्तत्वं समीक्ष्यांऽखिलम् ।
प्रोक्ते युक्त्यनुशासनं विजयभिः स्याद्वादमार्गानुगैः॥" ३. युक्त्यनुशासन, प्रस्तावना पृ. २।
सत्वमेवासि निर्दोषो मुक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ।। त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । भाप्ताभिमानदग्धानां स्वष्टं दृष्टेन बाध्यते ।। (देवागम द्वा. ६-७)
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