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प्रवचनसार
६३ के अनुभव का साक्षात दर्शन हो पाता है। प्रत्येक वस्तु द्रव्यमय है; द्रव्य अनन्त विशेषों का-गुणों का आधार है, तथा गुण पर्याय और द्रव्य पर्यायों का पिण्ड है। जो अपने अस्तित्व स्वभाव को छोडे बिना उत्पाद व्यय ध्रौव्य से और गुण पर्यायों से युक्त होता है वही द्रव्य है। उत्पाद व्यय ध्रौव्य तथा द्रव्य गुण, और पर्याय इनका अस्तित्व एक ही है, उनमें लक्षण भेद होने पर भी उनमें प्रदेश भेद या वस्तु भेद नहीं है। एक सत्ता गुण से संपूर्ण वस्तु मात्र का ग्रहण होता है वही महासत्ता कहलाती है। वस्तु अस्तित्व युक्त होने पर अपने-अपने गुणपर्यायों में ही वह अस्तित्व व्याप्त होता है वही अवान्तर सत्ता या स्वरूप सत्ता कहलाती है। एक ही अस्तित्व का यह दो तरह का कथन है। वह अस्तित्व स्वयं उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप है । द्रव्य प्रति समय परिणमन शील है वह नवीन पर्याय से उत्पन्न होता है। उसी समय पूर्व पर्याय से नष्ट होता है, फिर भी द्रव्य ज्यों का त्यों बना रहता है। इसी तरह प्रत्येक पर्याय भी उत्पादव्यय ध्रौव्य स्वरूप सिद्ध होती है। द्रव्य अनंत पर्यायों का पिण्ड है। एक द्रव्य पर्याय अनंत गुण पर्यायों का आधार और द्रव्य अनंत द्रव्य पर्यायों का पिण्ड होता है। जिस प्रकार मोतियों की माला में प्रत्येक मोती अपने-अपने स्थान में प्रकाश मान है उसी तरह प्रत्येक पर्याय अपने-अपने काल में क्रम से होती है। इसलिए वस्तु का अस्तित्व अतद्भाव से युक्त दिखाई देता है ( उसे असदुत्पाद कहते है)
और वस्तुपने से तद्रूप से भी दिखाई देता है (उसे सदुत्पाद कहते है)। द्रव्य, गुण, पर्यायों में अन्यत्व (लक्षण भेद ) होकर भी पृथक्त्व (प्रदेश भेद ) नहीं है। द्रव्य में नित्यानित्यता, तद्रूप और अतद्रूप सदुत्पाद
और असदुत्पाद गौण-मुख्य व्यवस्था के आधीन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय से सिद्ध होते है। इस प्रकार अनेकान्त से जैन प्रणीत वस्तु व्यवस्था भली भांती सिद्ध होकर कार्य कारण भाव को भी सिद्ध करती है।
यह वस्तु व्यवस्था कार्यकारण भावपूर्वक सुवर्णकंकण-पीतता, बीजांकुर वृक्ष आदि दृष्टान्तों से स्पष्ट समझायी गयी है।
जीव का निर्णय करना प्रयोजन होने से उक्त सामान्य द्रव्य स्वरूप का विचार उदाहरणस्वरूप जीव के उत्पादव्ययध्रौव्य या गुणपर्याय रूप से किया गया है। संसार में आत्मा की नरनारकादि अवस्थाएं दिखाई देती हैं उनमें शाश्वत कोई नहीं है। संसार में जीव के रागादिरूप विभाव परिणति स्वरूप क्रियाएँ अवश्य होती हैं उसका ही फल ये अशाश्वत नरनारकादि पर्याएँ है। आत्मा की सविकार परिणति आत्मा का कर्म ही है, उनका निमित्त पाकर बना हुआ पुद्गल परिणाम भी कर्म कहा जाता है और मनुष्यादि अवस्थाएँ उन कर्मों का फल है। वे कर्म ही जीव स्वभाव का पराभव करके उन पर्यायों को उत्पन्न करते है। परमार्थ रूप से विचारा जाय तो कर्म जीव के स्वभाव का घात या आच्छादन नहीं करता, किन्तु आत्मा स्वयं अपने अपराध के कारण अमूर्तत्व स्वभाव को प्राप्त न करके विकारी होता है।
इस तरह आत्मा द्रव्यरूप से नित्य होनेपर भी पर्याय से अनवस्थित अनित्य है। उसमें संसार ही हेतु है क्यों कि संसार स्वरूप से अनवस्थित ही है। संसाररूप क्रिया परिणाम या संसरण रूप क्रिया क्षणिक है, वही द्रव्य कर्म के बंध का हेतु है। और उस परिणाम का हेतु भी अनादि परंपरा से बद्ध आत्मा का पूर्वबद्ध कर्म का उदय है। वास्तव में तो आत्मा अपने विकारी भाव कर्मों का कर्ता है, द्रव्य कर्म का नहीं और पुद्गल स्वयं अपने पर्यायों का कर्ता है कर्मरूप पुद्गलभावों का जीवरूप भावकर्म का नहीं।
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