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प्रवचनसार
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जिसके ज्ञान में अशेष पदार्थों के आकार नहीं झलकते उसके समस्त ज्ञेयाकाररूप ज्ञान में 'न्यूनता होने के कारण संपूर्ण निरावरण स्वभाव की भी साक्षात प्राप्ति न होने से एक आत्मा को भी वह पूर्णतया नहीं जानता और समस्त ज्ञेयाकारों कों समा लेनेवाले आत्मा के ज्ञान स्वभावों को नहीं जानता, वह सर्वको भी नहीं जानता' इस कथन में आचार्य का अभिप्राय अतीन्द्रिय ज्ञान के स्वभाव का दिग्दर्शन करना मात्र है । इससे भगवान् यथार्थ में परमार्थ से आत्मज्ञ होने से सर्वज्ञ कहे जाते हैं वास्तव में सर्वज्ञता नहीं है ऐसा फलितार्थ आचार्यों को अभिप्रेत नहीं है । क्योंकि अतीन्द्रिय स्वाभाविक ज्ञान में समस्त ज्ञेयाकार झलकते हैं यह आत्मा की स्वच्छता शक्ति है और यह वस्तुस्थिति है ।
इस प्रकार स्वाभाविक ज्ञान इन्द्रियादिकों की अपेक्षा बिना ही त्रैकालिक, विविध, विषम, विचित्र पदार्थ समूह को युगपार जानता है ऐसा ज्ञान का स्वभाव आत्मा का सहज भाव है ।
जैसा ज्ञान आत्मा का स्वभाव है उसी प्रकार सुख भी आत्मा का स्वभाव ही है । जिस प्रकार इंद्रियज्ञान पराधीन है, ज्ञेयों में क्रम से प्रवृत्त है, अनियत और कदाचित होने से वह हेय है और अतीन्द्रिय ज्ञान स्वाधीन है; युगपत् प्रवृत्त है, सर्वदा एकरूप है और निराबाध होने से उपादेय है उसी तरह इंद्रिय सुख और अतन्द्रिय सुख के विषय में क्रमशः हेयोपादेयता समझनी चाहिए । यथार्थ में सुख ज्ञान के साथ अविनाभावी है यही कारण है कि केवल ज्ञानी को पारमार्थिक सुख होता है और परोक्ष ज्ञानीयों का सुख अयथार्थ सुख एवं सुखाभास ही होता है । कारण स्पष्ट है । प्रत्यक्ष केवल ज्ञान के अभाव में परोक्ष ज्ञान में निमित्तभूत इन्द्रियों में जीवों की स्वभाव से ही प्रीति होती है, वे तृष्णा रोग से पीडित होते हैं और उस तृष्णा रोग के प्रतीकार स्वरूप रम्य विषयों में रति भी होती है, इसलिए असहाय प्राणी क्षुद्र इन्द्रियों में फसे हैं उन्हें स्वभाव से ही आकुलतारूप दुःख होता है । नहीं तो वे विषयों के पीछे क्यों दौडधूप करते ? विचार करने पर वास्तव में शरीरधारी अवस्था में भी शरीर और इन्द्रियां सुखका कारण हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। उनमें मोह रोग द्वेषमूलक होनेवाली इष्टानिष्ट बुद्धि मात्र सांसारिक सुखदुःखका यथार्थ कारण है । वहाँ पर भी स्वयं आत्मा ही इन्द्रिय सुखदुःख रूप से परिणत देखा जाता है। दिव्य वैक्रियिक शरीर भी देवों को सुख का वास्तव में कारण नहीं है, आत्मा ही स्वयं इष्टानिष्ट विषयों के आधिन होकर सुखदुःख की भावना करता है । तात्पर्य यह है आत्मा स्वयं सुख स्वभावी होने से उस सांसारिक सुखदुःख में भी शरीर, इन्द्रिय और विषय अकिंचित्कर ही है । सूर्य जैसा स्वयं प्रकाशी है वैसे प्रत्येक आत्मा स्वयं सिद्ध भगवान् की तरह सुख स्वभावी है।
शुभोपयोगरूप पुण्य के निमित्त से उत्तम मनुष्य और देवादिकों के संभवनीय भोग प्राप्त होते हैं और अशुभयोग रूप पाप से तिर्यंचगति, नरकगति, और कुमनुष्यादिक संबंधी दुःख प्राप्त होते हैं, परंतु उक्त सब भोग संपन्न और दुःखी जीवों को समान रूप से तृष्णारोग तथा देह संभव पीडा दिखाई देने से वे वास्तव में दुःखी ही हैं । इसलिए तत्त्व दृष्टि में शुभाशुभ भेद घटित नहीं होते कारण यह है कि पुण्य भी वस्तुतः सुखाभास और दुःख का कारण है । पुण्य निमित्तक सांसारिक सुख विषयाधीन है, बाधा
१. प्रवचनसार, गाथा ४८-४९.
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