________________
स्मृति-मंजूषा
प. पू. आचार्य श्री १०८ शांतिसागरजी महाराज की समयसूचकता तथा अन्तःप्रेरणा
क्षुल्लक श्री विजयसागरजी, चातुर्मास, इडर
एक साँप मेंडक को खाने जा रहा था। उस समय मेंडक की प्राणरक्षा के लिए लोटे को पत्थर पर जोरसे पटक दिया जिससे वह साँप भाग गया । मेंडक की प्राणरक्षा हुई और लोटा टूट गया ।
११५
आचार्य महाराज श्री ने ब्र. जिनदासजी को उनके घर चले जाने का आदेश दिया। वे चकित हुए । आदेश का कारण भी अज्ञात था । ब्रह्मचारीजी प्रस्थान कर घर पहुँचे तो उन्हें मालूम हुआ कि कुछ बदमाशों ने उनके भानजी के पति को खेत में मार डाला था । उससे इस बात का पता चला कि महाराज श्री के अलौकिक अनुमान ज्ञान में भविष्यत्कालीन घटना का कुछ संकेत जरूरही आ गया था । ज्ञान की सहज निर्मलता का यह अतिशय प्रतीत होता है ।
संघपति श्री गेंदनमलजी झवेरी, बम्बई के वार्तालाप से
अतीत में मैं पूर्ण रूप से डूबा जा रहा था। श्री प. पू. १०८ आचार्य शांतिसागर महाराजजी के पुण्य स्मृतिबिंदु से मनकी धरती पर सुख संवेदना होती है । मैं महाराज श्री के साथ लगभग ४० साल तक रहा। जिसे हम हमारा परम पुण्योदय समझते हैं ।
आचार्य श्री का चौमासा कुंभोज में था । सहसा मैं प्रश्न कर बैठा - " महाराजजी, हम आपका चतुरसंघ लेकर श्री सम्मेद शिखरजी जाना चाहते हैं । हम आशा करते हैं कि हमें आपकी सम्मती मिल जायगी । ” महाराजजी ने हमें सम्मति दी । वे आदमी को पूरी परख करके ही उन पर कार्य सौंपते थे । हमारी खुसी का ठिकाना नहीं रहा ।
शांति का संदेश भारत के
यात्रा में स्थान स्थान पर महाराज श्री का भव्य स्वागत होता रहा । कोने कोने में पहुंचाते हुए महाराजजी आगे ही आगे श्री शिखरजी की ओर बढ रहे थे । पू. आ. महाराज को तनिक भी तकलीफ न पहुंचे इसलिए सभी भक्तगण सदैव तय्यार थे । साथ साथ निसर्ग भी उन्हें सहायता पहुंचाता था । महाराजजी के विहार में उन्हें वर्षा आदि की तथा श्वापदों की तकलीफ हुई नहीं । अनुपम अतिशय था महाराजजी का । असंख्य चमत्कारों में विशेष यह था कि आचार्य श्री सदा ही शांति का अनुभवन करते हुए नजर आते थे ।
सम विषम परिस्थिति में पू.
Jain Education International
पू. महाराजजी के प्रवचनों से प्रभावित होकर कु. गुणमाला ने आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ले लिया । हमारी सिर्फ दो कन्याएँ थी। पू. महाराजजी के सत्समागम के कारण हमारे मन में ब्रह्मचर्य पालन की
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org