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श्री समयसार
निश्चय से उपयोग में क्रोधादि नहीं पाये जाते यदि स्वभाव का लक्ष्य छूट जाता है और बंध पर्याय का भान होता है तो क्रोधादि विकार उत्पन्न होते है। इसलिए अज्ञान अवस्था में कदाचित् वह अपने चेतनाभासात्मक क्रोधादिकों का कर्ता कहा जाता है। जिस समय जीव क्रोध परिणाम रूप में परिणामता है उस समय बाह्य में स्थित कार्मणवर्गणा स्वयं कर्मरूप बन जाती है। पुद्गल ही उनका कर्ता है। आत्मा उन कर्मनोकर्मरूप भावों का कर्ता नहीं है। जब की जीव द्रव्य पुद्गल द्रव्यरूप से कभी परिणत नहीं होता है तो वह जीव द्रव्य उन द्रव्यों का कर्ता कैसा होगा ? यदि अपने को कर्मनोकर्मरूप पुद्गल द्रव्यों का कर्ता माने तो उन दो द्रव्यों को एक मानने की आपत्ति आयेगी जो इष्ट नहीं है इसलिए आत्मा अज्ञान अवस्था में यद्यपि क्रोधादि भावों का कर्ता है फिर भी कर्मनोकर्मों का कर्ता होही नहीं सकता। एकही द्रव्य कर्ता बनकर दो द्रव्यों के परिणामों को (कर्मों को) करे तो एक द्रव्य दो द्रव्योंकी क्रिया करता है ऐसा मानना पड़ेगा यह कथन वस्तुस्वभाव के विरुद्ध है और वस्तु स्वातंत्र्य की घोषणा करनेवाले जिनमत से भी विरुद्ध है।
किसी दो द्रव्योंमें से एकद्रव्य अन्य द्रव्य के परिणामों का स्वतंत्र रूप से तो कर्ता है ही नहीं परंतु निमित्त रूपसे भी वह कर्ता नहीं बन पाता, क्यों कि द्रव्य त्रिकाली एवं नित्य होता है इसलिए उसे नित्यकर्तता प्राप्त होगी जो प्रत्यक्ष विरुद्ध है। जैसे आत्मा पौद्गलिक कर्मनोकर्मरूप परिणामों का निमित्तरूपसे भी कर्ता सिद्ध नहीं होता । क्योंकि आत्मा नित्य है इसलिए कर्मनोकर्मों का बंध नित्य होता ही रहेगा। संसार समाप्ति कभी संभवही नहीं होगी । इसलिए तत्त्व यह होगा कि, अज्ञान अवस्था में संभवनीय क्रोधादि जीव परिणाम
और पुद्गलों के कर्मनोकर्मरूप परिणाम इन दोनों में समकाल है, दोनों में बाह्यतः व्याप्ति भी है अतः परस्पर अनुकूलता के कारण निमित्तनैमित्तिक संबंध का व्यवहार होता है। परंतु दो द्रव्यों में वह व्यवहार कदापि संभव नहीं। संक्षेप में यह सिद्ध होता है कि निश्चय से ज्ञानी ज्ञानभावों का और अज्ञानी अपने भावों का ही कर्ता है और उस समय पौद्गलिक कर्मनोकर्म स्वयं संचय को प्राप्त होने पर अज्ञानी उन कर्मों का केवल उपचार से कर्ता कहा जाता है। ..
वस्तु की अपनी अपनी मर्यादा है। प्रत्येक वस्तु स्वभाव से परिणमनशील है अपने परिणामों से तन्मय है इसलिए वह अपने परिणामों का कर्ता है; आत्मा भी अपनी परिणमनशीलता के कारण अपने परिणामों का कर्ता है इसही प्रकार पुद्गल द्रव्य भी सहजरूप से अपने परिणामों का कर्ता है । दो द्रव्योंकी अनुकूल परिणति होनेपर आत्मा पर के लक्ष्य से स्वयं संसारी होता है। परस्पर कर्तृत्व मानने से वस्तु की स्वतंत्रता का अपलाप होता है।
अज्ञान अवस्था में जीव रागादि विभावों को आत्मस्वभावरूप से स्वीकार करता है इसलिए रागादिकों का कर्ता होता है । उसी समय पुद्गल द्रव्य भी स्वयं कर्मनोकर्म रूपसे परिणमता है। उन पुद्गलपरिणामों का कर्ता पुद्गल ही है, न की जीव । दोनों में समकाल होने से और परस्पर अनुकूल परिणमन होने से निमित्तनैमित्तिकता का व्यवहार होता है। परंतु जिस समय निश्चयनय का अवलंब कर यह जीव रागादि विभावों को परसापेक्ष एवं 'पर' रूप से ही स्वीकृत करता है, स्वभाव-सन्मुख होता है उस समय
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