________________
५२
आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
लागू नहीं पडता कि लोकान्त से और आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होनेसे उसे वहां बलात् रुकना पडता है । किन्तु अपने उपादान के अनुसार मुक्तजीव लोकान्त तक ऊपर की ओर ऋजुगति से स्वयं गमन करता है। और लोकान्त स्वयं अवस्थित हो जाता है । व्यवहारनय से लोकालोक के विभाग का कारण धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को बतलाया गया है उसीको ध्यान में रखकर सूत्रकार ने यह वचन कहा है कि आगे धर्मास्तिकाय न होने से मुक्तजीव लोकान्त से और उपर नहीं जाता । परमार्थ से देखा जाय तो षट् द्रव्यमयी यह लोक स्वभाव से रचित है, अतएव अनादि-निधन है, इसलिए जिस प्रकार मानुषोत्तर पर्वत के परभाग में मनुष्य का स्वभाव से गमन नहीं होता उसी प्रकार एक मुक्त जीव ही क्या किसी भी द्रव्य का लोक की मर्यादा के बाहर स्वभाव से गमन नहीं होता ।
1
( ४ ) जैसे कोई परमाणु एक प्रदेशतक गमन कर स्वयं रुक जाता है । कोई परमाणु दो या दो से अधिक प्रदेशों तक गमन कर स्वयं रुक जाता है । आगे धर्मास्तिकाय होने पर भी एक या एक से अधिक प्रदेशोंतक गमन करनेवाले परमाणु को वह बलात् गमन नहीं कराता । वैसे ही मुक्त जीव अपने ऊर्ध्वगति स्वभाव का उत्कृष्ट विपाक लोकान्त तक जाने का होने के कारण वहाँ तक जाकर वह स्वयं रुक जाता है। ऐसा यहाँ परमार्थ से समझना चाहिए । धर्मास्तिकायाभावात् ' यह व्यवहार वचन है जो इस तथ्य को सूचित करता है कि इससे और ऊपर गमन करने की जीव में उपादान शक्ति ही नहीं है ।
यहां सूत्रकार ने ७ वें और ८ वें सूत्र में जितने हेतु और उदाहरण दिए हैं उन द्वारा मुक्त जीव का एकमात्र ऊर्ध्वगति स्वभाव ही सिद्ध किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । ९ वें सूत्र में ऐसे १२ अनुयोगों का निर्देश किया गया है जिनके माध्यम से मुक्त होनेवाले जीवों के विषय में अनेक उपयोगी सूचनाओं का परिज्ञान हो जाता है । उनमें एक चारित्र विषयक अनुयोग है । प्रश्न है कि किस चारित्र से सिद्धि होती है ? उसका समाधान करते हुए एक उत्तर यह दिया गया है कि नाम रहित चारित्र से सिद्धि होती है । इस पर कितने ही मनीषी ऐसा विचार रखते हैं कि सिद्धों में कोई चारित्र नहीं होता । किन्तु इसी तत्त्वार्थसूत्र में जीव के जो नौ क्षायिक भाव परिगणित किए गये हैं उनमें एक क्षायिक चारित्र भी है । और ऐसा नियम है कि जितने भी क्षायिक भाव उत्पन्न होते हैं वे सब परनिरपेक्ष भाव होने से प्रतिपक्षी द्रव्यभाव कर्मों का क्षय होने पर एकमात्र स्वभाव के आलम्बन से ही उत्पन्न होते हैं, अतः वे सिद्ध पर्याय के समान अविनाशी होते हैं । अतः सिद्धों में केवल ज्ञान आदि के समान स्वरूप स्थिति अर्थात् स्वसमय प्रवृत्तिरूप अनिधन सहज चारित्र जानना चाहिए। उसकी कोई संज्ञा नहीं है, इसलिए उनमें उसका अभाव स्थापित करना उचित नहीं है । लोक में एक यह बात भी प्रचारित की जाती है कि इस काल में इस क्षेत्र से कोई मुक्त नहीं होता सो यह बात भी ठीक नहीं है क्योंकि मुक्ति प्राप्ति के लिए न तो कोई काल ही बाधक है और न मनुष्य लोक सम्बन्धी कोई क्षेत्र ही बाधक है । इतना अवश्य है कि चौथे काल और उत्सर्पिणी के तीसरे काल सम्बन्धी इस भरत क्षेत्र में ऐसे मनुष्य भी जन्म लेते हैं जो चरम शरीरी होते हैं यह ह नियम है । इस क्षेत्र सम्बन्धी प्रायः अपसर्पिणी के चौथे काल में और उत्सर्पिणी के तीसरे काल में ही ऐसे मनुष्य जन्म लेते हैं जो चरम शरीरी होते हैं यह प्राकृतिक नियम है । अतः इस क्षेत्र और इस काल को दोषी बतलाकर मोक्षमार्ग के अनुरूप उद्यम न करना योग्य नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिए ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org