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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएं मुक्तिलाभ होनेपर यह जीव क्षेत्र में मुक्तिलाभ करता है वहीं अवस्थित रहता है या क्षेत्रान्तर में गमन कर जाता है ? यदि क्षेत्रान्तर में गमन करके जाता है तो वह क्षेत्र कौनसा है जहाँ जाकर यह अवस्थित रहता है ? साथ ही वहीं इसका गमन क्यों होता है ? मुक्त होने के बाद भी यदि गमन होता है तो नियत क्षेत्र तक ही गमन होने का कारण क्या है ? इत्यादि अनेक प्रश्न हैं जिनका समाधान ५ से लेकर ८ ३ तक के सूत्रों में किया गया है।
प्रयोजनीय बात यहाँ यह कहनी है कि सातवें सूत्र में 'तथागतिपरिणामात् ' पद द्वारा तो मुक्त जीव की स्वभाव ऊर्ध्व गति का निर्देश किया गया है और ८ वें सूत्र द्वारा उसके बाह्य साधन का उल्लेख किया गया है।
___ यहाँ पर कुछ विद्वान् यह शंका किया करते हैं कि मुक्त जीव का उपादान तो लोकान्तर के ऊपर जाने का भी है, पर आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोकान्त से उपर उसका गमन नहीं होता । किन्तु उनका इस विषय में यह वक्तव्य तथ्य की अनभिज्ञता को ही सूचित करता है । उक्त शंका का समाधान यह है
(१) बाह्य और आभ्यन्तर उपाधि की समग्रता में कार्य होता है यह नियम है। इसके अनुसार जिस समय जो कार्य होता है उसके अनुरूप ही पर्याय योग्यता-उपादन कारणता होती है । न न्यून
और न अधिक । तथा बाह्य निमित्त भी उसके अनुकूल ही होते हैं। उनका उस समय होना अवश्यंभावी है। वह न हो तो उपादान के रहते हुए भी कार्य नहीं होता ऐसा नहीं है, क्यों कि जिस प्रकार विवक्षित कार्य की अपने उपादान के साथ उस समय आभ्यन्तर व्याप्ति नियम से होती है उसी प्रकार उस समय उसकी बाह्य साधनों के साथ बाह्य व्याप्ति का होना भी अवश्यंभावी है । तभी इनकी विवक्षित कार्य के साथ काल प्रत्यासत्ति बन सकती है। इससे सिद्ध है कि मुक्त जीव का लोकान्त के ऊपर गमनाभाव वास्तव में तो वैसा उपादान न होने से नहीं होता। धर्मास्तिकाय का अभाव होने से नहीं होता यह मात्र व्यवहार वचन है जो मुक्त जीव अपने उपादान के अनुसार कहाँ तक जाता है इस तथ्य को सूचित करता है। सर्वत्र व्यवहार और निश्चय का ऐसा ही योग होता है ।
(२) मुक्त जीव उर्ध्वगति स्वभाव है इस कथन का यह आशय नहीं कि वह निरन्तर ऊपर ही ऊपर गमन करता रहे । किन्तु इस कथन का यह आशय है कि वह तिर्यक् रूप से अन्य दिशाओं की ओर गमन न कर लोकान्त तक ऊर्ध्व ही गमन करता है । तत्त्वार्थवार्तिक में 'धर्मास्तिकायाभावात् ' इस सूत्र की उत्थानिका में बतलाया है कि-'मुक्तस्योर्ध्वमेव गमनं न दिगन्तरगमनमित्ययं स्वभावः नोर्ध्वगमनमेवेति'। 'मुक्त जीव का ऊपर की ओर ही गमन होता है, अन्य दिशाओं को लक्ष्य कर गमन नहीं होता यह स्वभाव है, उत्तरोत्तर ऊपर-ऊपर गमन होता रहे यह स्वभाव नहीं है' । सो इस वचन से भी उक्त तथ्य की ही पुष्टि होती है ।
(३) मुक्त जीव की एक ऊर्ध्वगति होती है जो स्वाभाविकी होने से स्वप्रत्यय होती है। साथ ही लोकान्त में उसकी अवस्थिति भी स्वाभाविकी होने से स्वप्रत्यय होती है इसलिए उसपर यह व्यवहार कथमपि
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