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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएं सात तत्त्वार्थों में दूसरा स्थान अजीव का है । ये दो मूलतत्त्वार्थ हैं। इनके निमित्त से उत्पन्न होनेवाले शेष पाँच तत्त्वार्थ है' । जिन में संसार और उनके कारणों तथा मोक्ष और उनके कारणों का निर्देश किया गया है।
एक-एक शब्द में अनेक अर्थों को धोतित करने की शक्ति होती है। उसमें विशेषण की सामर्थ्य से प्रतिनियत अर्थ के प्रतिपादन की शक्ति को न्यस्त करना प्रयोजन है। पहले सम्यग्दर्शनादि और जीवादि पदार्थों का उल्लेख कर आये हैं । उनमें से प्रकृत में किस पद का कौन अर्थ इष्ट है इस तथ्य का विवेक करने के लिये 'नाम-स्थापना' इत्यादि पाँचवे सूत्र की रचना हुई है। किन्तु इस निर्णय में सम्यग्ज्ञान का स्थान सर्वोपरि है । इस तथ्य को ध्यान में रख कर निक्षेप योजना के प्ररूपक सूत्र के बाद 'प्रमाण-नयैरधिगमः' रचा गया है ।
प्रमाण-नयस्वरूप सम्यग्ज्ञान द्वारा सुनिर्णीत निक्षिप्त किस पदार्थ की व्याख्या कितने अधिकारों में करने से वह सर्वांगपूर्ण कही जायगी इस तथ्य को स्पष्ट करने लिये 'निर्देश-स्वामित्व' इत्यादि और 'सत्संख्या' इत्यादि दो सूत्रों की रचना हुई है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में ये आठ सूत्र मुख्य है। अन्य सब सूत्रों द्वारा शेष सब कथन इन सूत्रों में प्रतिपादित अर्थ का विस्तार मात्र है। उसमें प्रथम अध्याय में अन्य जितने सूत्र है उनद्वारा सम्यग्ज्ञान तत्त्व की विस्तार से मीमांसा की गई है। उसमे जो ज्ञान विधि निषध उभयस्वरूप वस्तु को युगवत् विषय करता है उसे प्रमाण कहते है और जो ज्ञान गौण मनुष्यस्वभाव से अवयव को विषय करता है उसे नय कहते हैं। नयज्ञान में इतनी विशेषता है कि वह एक अंश द्वारा वस्तु को विषय करता है, अन्य का निषेध नहीं करता। इसीलिये उसे सम्यग्ज्ञान की कोटि में परिगृहीत किया गया है।
दूसरे, तीसरे और चौथे अध्याय में प्रमुखता से जीवपदार्थ का विवेचन किया गया है । प्रसंग से इन तीनों अध्यायों में पांच भाव, जीव का लक्षण, मन का विषय, पाँच इन्द्रियां, उनके उत्तरभेद और विषय, पाँच शरीर, तीन वेद, नौयोनि, नरकलोक, मध्यलोक और उर्ध्वलोक, चारों गतियों के जीवों की आयु आदि का विस्तार से विवेचन किया गया है। दूसरे अध्याय के अन्तमें एक सूत्र है जिसमें जिन जीवो की अनपवर्त्य आयु होती है उनका निर्देश किया गया है ।
विषभक्षण, शस्त्रप्रहार, श्वासोच्छ्वास, निरोध आदि बाह्य निमित्तों के सन्निधान में भुज्यमान आयु में हास होने को अपवर्त कहते हैं। किन्तु इस प्रकार जिनकी आयु का हास नहीं होता उन्हें अनपवर्त्य आयुवाला कहा गया है। प्रत्येक तीर्थंकर के काल में ऐसे दस उपसर्ग केवली और दस अन्तःकृत केवली होते हैं जिन्हें बाह्य में भयंकर उपसर्गादि के संयोग बनते है, परन्तु उनके आयु का हास नहीं होता। इससे यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि अन्तरंग जिस आयु में अपने काल में हास होने की पात्रता होती है, बाह्य में उस काल में काल प्रत्यासत्तिवश व्यवहार से -हास के अनुकूल अन्य विषभक्षण आदि बाह्य सामग्री का सन्निधान होने पर उस आयु का व्हास होता है। अन्तरंग मे आयु में व्हास होने की पात्रता न हो और उसके हास के अनुकूल बाह्य सामग्री मिलने पर उसका हास हो जाय ऐसा नहीं है।
१. पंचास्तिकाय, गाथा १०८, समय व्याख्या टीका ।
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