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तत्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएं चाहिए क्योंकि इसके सिवाय अन्य काल में संक्लेश और विशुद्धि के अनुसार उक्त निर्जरा में तारतम्य देखा जाता है । विशुद्धि के काल में विशुद्धि के तारतम्य के अनुसार कभी असंख्यात गुणी, कभी संख्यात गुणी, कभी असंख्यातवा भाग अधिक और कभी संख्यातवा भाग अधिक निर्जरा होती है यहाँ पूर्व समय की अपेक्षा अगले समय में कितनी निर्जरा होती है इस दृष्टि से निर्जरा का यत्क्रम बतलाया गया है।
इस अध्याय में ध्यान का विस्तार से विचार करते हुए ध्याता, ध्यान, ध्येय, ध्यान का फल और ध्यान के काल इन पाँचों विषयों पर सम्यक् प्रकाश डाला गया है। ध्यान के दो भेद हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त । यहा अप्रशस्त ध्यान का विचार न कर प्रशस्त ध्यान का विचार करना है। प्रशस्त ध्यान के भी दो भेद हैं-धर्मध्यान और शुक्लध्यान । श्रेणि आरोहण के पूर्व जो ध्यान होता है उसे धर्मध्यान कहते हैं श्रेणि और आरोहण के बाद जो ध्यान होता है उसको शुक्लध्यान संज्ञा है। इसका यह तात्पर्य है कि धर्मध्यान चौथे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर सातवे गुणस्थान तक होता है। साधारणतः तत्त्वार्थसूत्र में धर्मध्यान के आलम्बन के प्रकार चार बतलाये हैं-आज्ञा, अपाय, विपाक
और संस्थान । इन सभी पर दृष्टिपात कर सामान्य रूप से यदि आलम्बन को विभक्त किया जाय तो वह दो भागों में विभाजित हो जाता है.--एक स्वात्मा और दूसरे स्वात्मा से भिन्न अन्य पदार्थ । ध्यान का लक्षण करते हुए यह तो बतलाया ही गया है कि अन्य ध्यान में अशेष विषयों से चित्तको परावृत्त कर किसी एक विषय पर चित्त अर्थात् उपयोग को स्थिर किया जाता है। अतः आत्म ज्ञानस्वरूप है, इसलिये यदि उपयोग को आत्मस्वरूप में युक्त किया जाता है तो उपयोग स्वरूप का वेदन करनेवाला होने से निश्चय ध्यान कहलाता है और यदि उपयोग को विकल्पदशा पर पदार्थ में युक्त किया जाता है तो वह स्वरूप से भिन्न अन्य पदार्थरूप विशेषणसहित होने के कारण व्यवहार ध्यान कहलता है। इसमें से निश्चय ध्यान कर्म निर्जरा स्वरूप है, अतः कर्म निर्जरा का हेतु भी है और व्यवहार ध्यान इससे विपरीत स्वभाववाला होने से न तो स्वयं निर्जरा स्वरूप है और न साक्षात् कर्म निर्जरा का हेतु ही है। अन्यत्र धर्म ध्यान के जो सविकल्प और निर्विकल्प ये दो भेद दृष्टिगोचर होते हैं वे इसी अभिप्राय से किये गये जानने चाहिये।
सामान्य नियम यह है कि जब आत्मा मोक्षमार्ग के सन्मुख होता है तब उसके अपने उपयोग में मुख्य रूप से एकमात्र आत्मा का ही अवलम्बन रहता है, अन्य अशेष अवलम्बन गौण होते जाते हैं, क्योंकि मोक्ष का अर्थ ही आत्मा का अकेला होता है, अतः मोक्षमार्ग वह कहलाया जिस मार्ग से आत्मा अकेला बनता है। देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति या व्रतादिरूप परिणाम को आगम में व्यवहार धर्मरूप से इसीलिए स्वीकार किया गया है कि वह जीव का परलक्षी संयोगी परिणाम है, स्वरूपानुभूतिरूप आत्माश्रयी अकेला परिणाम नहीं।
शंका-स्व-पर का प्रकाशन करना यह ज्ञान का स्वरूप है। ऐसी अवस्था में प्रत्येक उपयोग परिणाम में परलक्षीपना बना रहेगा, उसका वारण कैसे किया जा सकता है ?
समाधान--ज्ञान के स्व-पर प्रकाशक होने से प्रत्येक उपयोग परलक्षी या पराश्रित ही होता है ऐसी बात नहीं है ?
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