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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ भी यहाँ पर नौवें अध्याय में संवर को जो गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र स्वरूप कहा है सो वह संवर विशेष को ध्यान में रखकर ही कहा है । यहाँ संवर के प्रकारों में गुप्ति मुख्य है। इससे यह तथ्य सुतरां फलित हो जाता है कि समिति आदि में जितना निवृत्यंश है व संवर स्वरूप है, आत्मातिरिक्त अन्य के व्यापारस्वरूप प्रवृत्यंश नहीं । यद्यपि तप का धर्म में ही अन्तर्भाव हो जाता है, परन्तु वह जैसे संवर का हेतु है वैसे ही निर्जरा का भी हेतु है यह दिखलाने के लिये उसका पृथक से निर्देश किया है।
आचार्य गद्धपिच्छने कहाँ कितने परीषह होते है इस विषय का निर्देश करते हुए उनका कारण परीषह और कार्य परीषह ये दो विभाग स्वीकार कर विचार किया है। इस अध्याय में परीषह सम्बंधी प्ररूपणा ८ वे सूत्र से प्रारम्भ होकर वह १७ वे सूत्र पर समाप्त होती है। ८ सूत्र में परीषह का लक्षण कहा गया है। ९३ सूत्र में परीषहों का नाम निर्देश करते हुए ६ वी परीषह के लिये स्पष्टतः नाग्न्य शब्दका ही उल्लेख किया गया है। इससे सूत्रकार एक मात्र दिगम्बर सम्प्रदाय के पट्टधर आचार्य थे इसका स्पष्ट बोध हो जाता है। इसके बाद १०, ११ और १२, संख्याक सूत्रों में कारणों की अपेक्षा किसके किसने परीषह सम्भव हैं इस बातका निर्देश किया गया है। १३, १४, १५ और १६ संख्याक सूत्रों में उनके कारणों का निर्देश किया गया है । इस प्रकार १०, ११ और १२ संख्याक सूत्रों में कारण की अपेक्षा कारण परीषह होकर तथा १३, १४, १५ और १६ संख्याक सूत्रों में उनके कारणों का निर्देश कर आगे मात्र १७ वें सूत्र में कार्य परीषहों का उल्लेख करते हुए बतलाया गया है कि एकजीव के कमसे कम एक और अधिक से अधिक १९ परीषह होते हैं। उदाहरण स्वरूप हम बादरसाम्पराय जीव को लेते हैं। एक काल में कारणों की अपेक्षा इसके सब परीषह बतला कर भी कार्य की अपेक्षा कम से कम एक और अधिक से अधिक १९ परीषह बतलाये हैं । स्पष्ट है कि 'एकादश जिने' इस सूत्र में जिन के जो ग्यारह परीषह बतलाये हैं वे तेरहवें चौदहवें गुणस्थान में असाता वेदनीयके पाये जानेवाले उदय को देख कर ही बतलाया गया है । वहाँ क्षुधादि ११ परीषह होते है यह उक्त कथन का तात्पर्य नहीं है । 'एकादश जिने' यह कारण की अपेक्षा परीषहों का निर्देश करनेवाला सूत्र है, कार्य की अपेक्षा परीषहों का निर्देश करनेवाला सूत्र नहीं।
इस अध्याय में प्रसंग से संयतों के भेदोंका निर्देश करते हुए बतलाया है कि ये पुलाकादि नैगमादि नयों की अपेक्षा संयत कहे गये हैं। इसका आशय यह है कि पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक इन पाँच भेदोंमें से निर्ग्रन्थ और स्नातक ये दोनों भाव निर्घन्य होने से एकमात्र एवं भूतनय की अपेक्षा से ही निर्ग्रन्थ हैं । शेष तीन निर्ग्रन्थ काल भेदसे नैगमादि अनेक नयसाध्य हैं। नैर्ग्रन्य सामान्य की अपेक्षा विवक्षा भेदसे पाँचों ही निर्ग्रन्थ हैं यह इस कथन का अभिप्राय है।
एक बात यहाँ निर्जरा के विषय में भी स्पष्ट करनी है। उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी निर्जरा के इन दस स्थानों में से श्रावक और विरत के प्रकृत में पूर्व की अपेक्षा जिस असंख्यात गुणी द्रव्य कर्म निर्जरा का निर्देश किया गया है वह इन दोनों के विशुद्धि की अपेक्षा एकान्तानुवृद्धि के काल की जाननी
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