________________
तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएं । ये दोनों समर्थ आचार्य विक्रम ९ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए हैं। इससे विदित होता है कि इनके कालतक आचार्य कुन्द कुन्द के पट्टधर एकमात्र आचार्य गृद्धपिच्छ ही तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता स्वीकार किए जाते थे । उत्तर काल में भी इस तथ्य को स्वीकार करने में हमें कहीं कोई मतभेद नहीं दिखलाई देता, जिसकी पुष्टि वादिराजसूरि के पार्श्वनाथचरित से भी होती है। वहां वे शास्त्रकार के रूप में आचार्य गृद्धपिच्छ के प्रति बहुमान प्रकट करते हुए लिखते हैं--
'अतुच्छगुणसम्पातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मितम् ।
पक्षी कुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः ॥' वादिराजसूरि शास्त्रकारों का नामस्मरण कर रहे हैं। उसी प्रसंग में यह श्लोक आया है । इससे विदित होता है कि वे भी तत्त्वार्थसूत्र के रचियता के रूप में आचार्य गृद्धपिच्छ को स्वीकार करते रहे।
___यद्यपि श्रवणबेल्गोला के चन्द्रगिरी पर्वत पर कुछ ऐसे शिलालेख पाये जाते हैं जिनमें आचार्य गृद्धपिच्छ और उमास्वाति को अभिन्न व्यक्ति मानकर' शिलालेख १०५ में उमास्वाति को तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता स्वीकार किया गया है । किन्तु इनमें से शिलालेख ४३ अवश्य ही विक्रम की १२ वी शताब्दि के अन्तिम चरण का है। शेष सब शिलालेख १३ वीं शताब्दि और उसके बाद के हैं। जिस शिलालेख में उमास्वाति को तत्त्वार्थसूत्र का रचयिता कहा गया है वह तो १५ वीं शताब्दि का है। किन्तु मालूम पडता है कि ८ वी ९ वीं शताब्दि या उसके बाद श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र के रचियता के रूप में उमास्वाति की प्रसिद्धि होने पर कालान्तर में दिगम्बर परम्परा में उक्त प्रकार के भ्रम की सृष्टि हुई है। अतः उक्त शिलालेखों से भी यही सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र अन्य किसी की रचना न होकर मूल में एकमात्र गृद्धपिच्छाचार्य की ही अमर कृति है। शिलालेख १०५ में जिन उमास्वाति को तत्त्वार्थसूत्र का रचयिता कहा गया है वे अन्य कोई न होकर आचार्य कुन्द कुन्द के पट्टधर आचार्य गृद्धपिच्छ ही हैं । श्वेताम्बर परम्परा के वाचक उमास्वाति इनसे सर्वथा भिन्न व्यक्ति हैं । आचार्य गृद्धपिच्छ और वाचक उमास्वाति के वास्तव्य काल में भी बड़ा अन्तर है। आचार्य गृद्धपिच्छ का वास्तव्य काल जब कि पहली शताब्दि का उत्तरार्ध और दूसरी शताब्दि का पूर्वार्ध निश्चित हुआ है। इसलिए श्वेताम्बर परम्परा में जो तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमान्य सूत्रपाठ पाया जाता है वह मूल सूत्रपाठ न होकर सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रों को ही मूल सूत्रपाठ समझना चाहिए। जो कि आचार्य कुन्द कुन्द विक्रम की प्रथम शताब्दि के मध्य में हुए अन्वय में हुए उन्हींके अन्यतम शिष्य आचार्य गृद्धपिच्छ की अनुपम रचना है।
१. शिलालेख ४०,४२, ४३, ४७ व ५० । २. धर्मघोष सूरीकृत दुःषमकाल श्रमण संघस्तव, धर्मसागर गणिकृत तपागच्छ पट्टावलि और जिन
विजय सूरीकृत लोक प्रकाश ग्रन्थ । ३. इस विषय के विशेष उहापोह के लिए सर्वार्थसिद्धि की प्रस्तावना पर दृष्टिपात कीजिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org