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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
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इच्छा हुई । मैंने आचाय श्री के सामने अपना भाव प्रगट किया । महाराजजी ने कहा कि ' अपनी पत्नी से अनुमति प्राप्त करो।' हम दोनों महाराजजी के पास पहुंचे। हम दोनों की ब्रह्मचर्य पालन की इच्छा देखकर उन्होंने हमें व्रत देकर कृतार्थ किया और अच्छी तरह व्रत पालन करने का शुभाशीर्वाद भी दिया । पू. आचार्य महाराजजी के साथ बहुत सारे तीर्थयात्रों की हमने वंदना की । हम जैसे जैसे महाराजजी की सेवा करते गये संपदा उतनी ही वृद्धिंगत होती रही । प्रतापगढ में एक श्रीपार्श्वनाथ भगवान की सातिशय मूर्ति थी । महाराजजी की आज्ञानुसार हम उस मूर्ति को बम्बई ले आये और अच्छा मंदिर बनवाकर उस सातिशय मूर्ति को उसमें विधिवत् स्थापन करा दी ।
पू.
. आचार्य महाराज श्री के आशीर्वाद और उपदेशों का ही यह सुफल है कि हम और हमारे कुटंबी जन विशिष्ट धर्मभावनाओं का अमृतोपम रसास्वाद लेने के लिए जीवन में पात्र बने रहे ।
पूज्यपाद आचार्य श्री का अन्तिम दक्षिण विहार श्री. आदिराज अण्णा गौडरु, शेडवाळ
विश्ववंद्य आचार्य श्री का निवास वडगांव (निंबाळकर ) में था । स्व. पिताजी ने आपसे शेडवाळ
( म्हैसूर स्टेट ) में पधारने के लिए प्रार्थना की और कहा " महाराजजी ! आपके ही उपदेश से और सहज
प्रेरणा शेडवाळ में मनोहर चौवीसीयों का तथा मानस्तंभ का निर्माण हुआ है,
आश्रम का प्रांगण पुनीत
गया है, यदि आपके चरण लगते हैं तो अवश्य हि धर्मात्साह में वृद्धि होगी । "
सुख स्वाधीन नहीं और मारपीट का दुःख होता
विहार करते करते आयेंगे ऐसा उत्तर और आशीर्वाद भी मिला । योगायोग से सन १९५३ के बाद आचार्य श्री का विहार उस प्रांत में हुआ । संघ में इस समय ३० - ३५ साधुगण होंगे । सब वातावरण धर्मभावनाओं से सजग था । प्रतिदिन उपदेशामृत का पान हमें प्राप्त होता था । सार यह है कि, "जीव अज्ञान और मोहवश चतुर्गति में भ्रमण करता हुआ दुःखों का हि अनुभवन करता है । देवगति में मनोवांच्छित पदार्थों का संयोग कल्पवृक्षों द्वारा है, वृद्धावस्था नहीं है, फिर भी वह अविनाशी भी नहीं है । नरकों में द्वेष की तीव्रता वैरभावों की अधिकता होती है, है, रत्तीभर सुख वहाँ क्षणमात्र नहीं होता है । तिर्यंच योनि में भी दुःखों की सीमा नहीं पराधीनता, प्रतिकूल संयोग अज्ञान की अधिकता के कारण वहां भी दुःख ही है । अनुकूल संयोग संभव है, परंतु अज्ञान और मोहवश यहाँ पर भी इंद्रियों के आधीन होता हुआ संपूर्ण आयु आशा और अभिलाषा की पूर्ति में हि व्यतीत करता है । यदि पुरुषार्थ पूर्वक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान को और सम्यक् चारित्र को प्राप्त करता है तो सुनिश्चित हि अनंत अविनाशी सुख का कुछ मात्रा में रसास्वाद ले सकता है जो सिद्धों में सदा के लिए होता है । इसीलिए आत्मा का ध्यान प्रतिदिन करो । कमसे कम
मनुष्यगति में कुछ ज्ञान और कुछ मात्रा में
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