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चार अनुयोग तो वहाँ दातार पात्र-अपात्रका कैसे निर्णय कर सके ? तथा द्रव्यानुयोग की अपेक्षा सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ग्रहण करने पर मुनिसंघमें द्रव्यलिंगी भी हैं और भावलिंगी भी हैं; सो प्रथम तो उनका ठीक (निर्णय ) होना कठिण है, क्योंकि बाह्य प्रवृत्ति समान है, तथा यदि कदाचित् सम्यक्त्वीको किसी चिह्न द्वारा ठीक ( निर्णय ) हो जाये और वह उसकी भक्ति न करे तो औरोंको संशय होगा कि इसकी भक्ति क्यों नहीं की?—इस प्रकार उसका मिथ्यादृष्टिपना प्रगट हो तब संघमें विरोध उत्पन्न हो; इसलिये यहाँ व्यवहार सम्यक्त्व-मिथ्यात्वकी अपेक्षा कथन जानना ।
यहाँ कोई प्रश्न करे-सम्यक्त्वी तो द्रव्यलिंगीको अपनसे हीनगुणयुक्त मानता है, उसकी भक्ति कैसे करे?
समाधान:-व्यवहारधर्मका साधन द्रव्यलिंगीके बहुत है और भक्ति करना भी व्यवहार ही है, इसलिये जैसे--कोई धनवान हो, परन्तु जो कुलमें बड़ा हो उसे कुल अपेक्षा बड़ा जानकर उसका सत्कार करता है; उसी प्रकार आप सम्यक्त्व गुण सहित है, परन्तु जो व्यवहारधर्ममें प्रधान हो उसे व्यवहारधर्मकी अपेक्षा गुणाधिक मानकर उसकी भक्ति करता है, ऐसा जानना । इसी प्रकार जो जीव बहुत उपवासादि करे उसे तपस्वी कहते हैं; यद्यपि कोई ध्यान-अध्ययनादि विशेष करता है वह उत्कृष्ट तपस्वी है तथापि यहाँ चरणानुयोगमें बाह्यतपकी ही प्रधानता है; इसलिये उसीको तपस्वी कहते हैं। इस प्रकार अन्य नामादिक जानना ऐसे ही अन्य अनेक प्रकार सहित चरणानुयोगमें व्याख्यानका विधान जानना ।
अब, द्रव्यानुयोगमें व्याख्यानका विधान कहते हैं:
द्रव्यानुयोगमें व्याख्यानका विधान ___ जीवोंके जीवादि द्रव्योंका यथार्थ श्रद्धान जिस प्रकार हो, उस प्रकार विशेष, युक्ति, हेतु, दृष्टान्तादिकका यहाँ निरूपण करते हैं; क्योंकि इसमें यथार्थ श्रद्धान करानका प्रयोजन है। वहाँ यद्यपि जीवादि वस्तु अभेद हैं तथापि उनमें भेदकल्पना द्वारा व्यवहारसे द्रव्य-गुण-पर्यायादिकके भदोंका निरूपण करते हैं। तथा प्रतीति करानके अर्थ अनेक युक्तियों द्वारा उपदेश देते हैं अथवा प्रमाण-नय द्वारा उपदेश देते हैं वह भी युक्ति है, तथा वस्तुके अनुमान-प्रत्यभिज्ञानादिक करनेको हेतु-दृष्टान्तादिक देते हैं; इस प्रकार यहाँ वस्तुकी प्रतीति करानेको उपदेश देते हैं। तथा यहाँ मोक्षमार्गका श्रद्धान करानके अर्थ जीवादि तत्त्वोंका विशेष, युक्ति, हेतु, दृष्टान्तादि द्वारा निरूपण करते हैं; वहाँ स्व-पर भेदविज्ञानादिक जिस प्रकार हों उस प्रकार जीव-अजीवका निर्णय करते हैं। तथा वीतरागभाव जिस प्रकार हो उस प्रकार आस्रवादिकका स्वरूप बदलाते हैं और वहाँ मुख्यरूपसे ज्ञान-वैराग्यके कारण जो आत्मानुभवनादिक उनकी महिमा गाते हैं। तथा द्रव्यानुयोगमें निश्चय अध्यात्म उपदेशकी प्रधानता हो, वहाँ व्यवहारधर्मका भी निषेध करते हैं । जो जीव आत्मानुभवका उपाय नहीं करते और बाह्य क्रियाकाण्डमें मग्न हैं, उनको वहाँसे उदास करके आत्मानुभवनादिमें लगानेको व्रत-शील-संयमादिकका हीनपना प्रगट करते हैं। वहाँ ऐसा नहीं जान
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