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स्मृति-मंजूषा
१०७ महात्माओं की क्रियाएँ अचिन्त्य होती हैं, इस उक्ति के अनुसार विचार के परे हैं। इसमें सन्देह नहीं कि महाराज के आत्मबल, मनोबल और कायबल तीनों असामान्य थे ।
२७ अगस्त ५५, शनिवार की बात है। भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन बोले-'महाराज ! कुछ सुनावें ? ' महाराज ने तुरन्त जबाब दिया कि 'सब कण्ठमें है। स्वयं जागृत हूँ। मैंने इंगिनीमरण व्रत ले रक्खा है । अतः किसी की अपेक्षा नहीं है।' उस दिन महाराज को कुछ झपकी आगयी हो, ऐसा ज्ञात कर ही भट्टारकजी ने कुछ सुनाने की प्रार्थना की थी। किन्तु महाराज ने जो तत्काल उत्तर दिया वह उनके सदा जागृत रहने का एक ऐसा प्रमाण था, जिसमें किसी को सन्देह नहीं हो सकता था।
७ सितम्बर ५५, बुधवार को अशक्तता के कारण महाराज खडे नहीं हो पाते थे। कुछ निकटवर्ती भक्तजनों ने उनसे जलग्रहण करने की प्रार्थना की तो महाराज ने कहा कि 'जब शरीर बिना आलम्बन लिए खडा नहीं रह सकता तो हम पवित्र दिगम्बर साधुचर्या को सदोष नहीं बनावेंगे ।' महाराज का यह उत्तर कितनी दृढ़तापूर्ण और शास्त्रोक्त था। 'आगमचक्खू साहू ' साधु का नेत्र शास्त्र है । उससे देखकर ही वे अपनी क्रियाएँ करते हैं। जब शास्त्र में सहारा लेकर आहार ग्रहण साधु के लिए वर्जित है तो महाराज शास्त्र की उपेक्षा करके जल ग्रहण कैसे कर सकते थे। हम तो समझते हैं कि दिगम्बर चर्या का महाराज ने जैसा पालन किया और शिथिलाचार को हटाया वह सदा स्मरणीय रहेगा।
महाराज को मूलाचार और भगवती आराधना दोनों का अच्छा अभ्यास था। इनका कोई भी स्थल उनसे अपरिचित नहीं था। अतएव जीवन को सफल करनेवाली सल्लेखना को धारण कर और उसका ३५ दिन तक निर्दोष निर्वाह कर महाराज ने शरीर को, जो जर्जरित, रुग्ण और पीडादायक बन गया था, त्यागा था । महाराज ने, लगता है कि, भगवती आराधना के निम्न पद्य को अपने जीवन में चरितार्थ किया था
एगम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो।
ण हु सो हिंडदि बहुसो सत्तट्ठभवे पमत्तूण ॥ 'जो जीव एक भव में समाधिमरणपूर्वक मरण को प्राप्त होता है वह सात-आठ भव से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करता ।'
महाराज ने वस्तुतः इसे जीवन में उतारकर समाधिमरण के मार्ग को प्रशस्त किया, जिसे हम भूलते जा रहे थे । कृतज्ञ जनता उनकी सदा आभारी रहेगी और उनका स्मरण करेगी।
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