Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
Catalog link: https://jainqq.org/explore/010475/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website. Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility. If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौ. सविताबाई कापड़िया स्मारक धमाका नं० ॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ संक्षिप्त जैन इतिहास । भाग ३ - खण्ड १ दक्षिणभारतके जैनधर्मका इतिहास ।] विभाग- १. पौराणिक काल २. ऐतिहासिक काल: १- प्राचीन काल ( ई०पू० ५००० से १ ई०पू० ) २- मध्य काल ( सन् १ से १४०० ई० ) ३- अर्वाचीन काल ( उपगन्त ) लेखक: कामताप्रसाद जैन, एम. आर. ए. एस. सम्पादक - वीर व जैन सि० भास्कर, अलीगंज (-एटा-). प्रकाशक :-- मूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक, दिगंबर जैन पुस्तकालय कारड़ियामुक्त - सूरत किन्द प्रथमावृत्ति ] स्वर्गीय सो० सविताबाई, धर्मपत्नी, मूल किसेनेश कापडिया स्मरणार्थ " दिगम्बर सन " के ३० वे वर्षकं ग्राहकों को भेट बीर स० २४६३ मूल्य- ३० १-०-t. [ प्रति १००० Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जैनविजय" प्रिन्टिग प्रेस, खप टिपा चकला-मूरतमें मूलचन्द किसनदास कापड़ियाने मुद्रित किया। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौ० सविताबाई - स्मारक ग्रंथमाळा नं. ७ हमारी स्वर्गीय धर्मपत्नी मौ० सविताबाईका वीर मं० २४५६ भादों वदी १० को सिर्फ २२ वर्षकी अल्प आयुमें एक पुत्र चि० बाबूभाई और एक पुत्री चि० दमयंती को ४ और २ वर्षके छोडकर पीलिया रोग से स्वर्गवास होगया था, उनके स्मरणार्थ उस समय २६१२) का दान किया गया था। जिसमें से २०००) स्थायी शास्त्रदानके लिये निकाले थे, जिसकी आयमे प्रति वर्ष एक२ ग्रन्थ नवीन प्रकट करके 'दिगम्बर जैन' या 'जैन महिलादर्श' के ग्राहकों को उपहार में दिया जाता है । माज तक इस ग्रंथमाला से निम्न लिखित ६ ग्रंथ प्रकट हो चुके हैं जो, जैन महिलादर्श या दिगम्बर जैन के ग्राहकों को भेंट दिये बाचुके हैं। १ - ऐतिहासिक स्त्रियां - ( २ - संक्षिप्त जैन इतिहास - ( द्वि० भाग प्र० खण्ड ) ३ - पंचरण - ( वा० कामताप्रसादनी कृत ) ० पं० चंद्राबाई जी कृत ) ॥) ४- संक्षिप्त जैन इतिहास - ( द्वि० भाग, दि० खण्ड ) १ || ) ==) १ = ) (1) ५- वीर पाठावली - ( वा० कामताप्रसादजी कृत ) ६- जैनत्व - ( रमणीक बी० शाह बफीक कृत, गुजराती ) 1= ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) और यह ७वां ग्रन्थ संक्षिप्त जैन इतिहास तृतीय भाग - प्रथम खंड ( वा० कामताप्रसादजी कृत ) प्रकट किया जाता है जो 'दिगंबर जैन' पत्रके ३० वे वर्षके ग्राहकोंको मेट बांटा जा रहा है तथा जो 'दिगंबर जैन' के ग्राहक नहीं हैं उनके लिये कुछ प्रतियां विक्रयार्थ भी निकाली गई हैं। माशा है कि बहुत खोज व परिश्रमपूर्वक तैयार किये गये ऐसे ऐतिहासिक ग्रन्थोंका जैन समाजमे शीघ्र ही प्रचार होजायगा। इस ऐतिहासिक प्रत्यके लेखक बा० कामताप्रसादजीका दि० जैन समाजपर अनन्य उपकार है, जो वर्षोंसे मतीय श्रमपूर्वक प्राचीन जैन साहित्यको खोजपूर्वक प्रकाशमें रहे है । यदि जैन समाज के श्रीमान् शास्त्रदानका महत्व समझें तो ऐसी कई स्मारक ग्रन्थमालायें निकल सकती हैं और हजारों तो क्या लाखों ग्रन्थ भेट स्वरूप या लागत मूल्यसे प्रकट होसकते हैं, जिसके लिये सिर्फ दानकी दिशा ही बदलने की आवश्यक्ता है। जब द्रव्यका उपयोग मंदिरोंमें उपकरण आदि बनवाने में या प्रभावना बंटवाने में करने की आवश्यक्ता नहीं है लेकिन द्रव्यका उपयोग विद्यादान और शास्त्रदान में ही करने की आवश्यक्ता है । सूरत वीर सं० २४६३ वाश्विन वदी ३ निवेदक मूलचन्द किसनदास कापडिया, प्रकाशक । FRS Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमार। "संक्षिप्त जैन इतिहास" के पहले दो भाग प्रगट होचुके हैं। आज उसका तीसरा भाग पाठकोंके हाथों में देते हुए हमें प्रसन्नता है। यह तीसरे भागका पहला खण्ड है और इसमें दक्षिण भारतके बैनधर्म और जैन संघका इतिहास-पौगणिककालसे प्रारंभिक ऐतिहासिक कालतकका संकलित है । सम्भव है कि विद्वान् पाठक पुराणगत वार्ताको इतिहास स्वीकार न करें, परन्तु उन्हें स्मरण होना चाहिये कि भारतीय शास्त्रकारोंने पुगण वार्ताको भी इतिहास घोषित किया है। __ जबतक इस पुराण वार्ताके विरुद्ध कोई प्रबल प्रमाण उपलब्ध न हो तबतक उसे मान्य ठहराना हमारा कर्तव्य है । भाम्विर प्रार ऐतिहासिक काल के इतिहासको जाननेके वही तो एक मात्र साधन हैं-उनें हम भुला कैसे ? के एवं अन्य साक्षीके आधारसे हमने इक्षिणभारतमें जनधर्मका मस्तित्व मतिप्राचीन सिद्ध किया है। माशा है, विद्वजन हमारे इस मतको स्वीकार करने में संकोच नहीं करेंगे। इस अवसरपर हम इन पुराण और शावकारोंका मामार हरयसे स्वीकार करते हैं। साथ ही अन्यान्य सम्माननीय लेखकोंक भी हम अपकृत हैं जिनकी रचनाओंसे हमने सहायता ग्रहण की है। यहांपर हम अध्यक्ष, श्री सिद्धांख भवन-भाग और संठ मलचन्द किसनदासजी कापडियाको भी नहीं भुला सके। उन्होंने आवश्यक साहित्य जुटाकर हमारे कार्यको सुगम बना दिया जिसके लिये वह हमारे हार्दिक धन्यवादके पात्र हैं । माशा है कि अबतक कोई इससे भी श्रेष्ठ अन इतिहास न रचा जाय, तबतक यह पाठकोंकी मावश्यक्ताकी पूर्ति करेगा । एवमस्तु ! अलीगंज (एटा) । विनीत-कामताप्रसाद जैन । ता. १६-८-३७। । Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ asterminews है समर्पण। ६ Garming Combor जैन-साहित्य प्रकाशन पुनीत कार्यमें दत्त-चित्त, विवेकी मित्र है श्री. ए. एन. उपाध्ये महोदय urmaremmarromanerwarmeraman कर-कमलों सादर मप्रेम समर्पित। - लेखक। 8. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) संक्षिप्त जैन इतिहास । [ लेखक - बाबू कामनासारजी जैन । ] प्रथम भाग - यह ईश्वीसन पूर्व ६०० वर्ष से पहिले का इतिहास है। इसके ६ परिच्छेदोंमें जैन भूगोल में भारतका स्थान ऋषभदेव और कर्मभूमि, अन्य तीर्थंकर आदिका वर्णन है। थोड़ीसी प्रतियां बची हैं। मूल्य || ) दुसरा भाग: प्रथम खण्ड- यह ईश्वी सन् पूर्व छठी बनान्दीसे सन् १३०० नकका प्रामाणिक जैन इतिहास है । इसे पढ़कर मालूम होगा कि पहले जमाने में जैनोंने कैमी वीरता बतलाई थी । इसमें विद्वतापूर्ण प्राकथन, भ० महावीर, वीरसंघ और अन्य राजा, तत्कालीन सभ्यता और परिस्थिति, सिकन्दरका आक्रमण और तत्कालीन जैनसाधु, श्रुतकेबली, भद्रबाहु और अन्य बाचार्य, तथा मौर्य सम्राट् चन्द्रमुप्त आदिका १२ अध्यायोंमें विशद वर्णन है । पृष्ठ संख्या ३०० मृ० १ ॥ | | ) उरजा दूसरा भागः द्वितीय खंड - इसमें अनेक महत्वपूर्ण ऐनिहामिक विषयोंका सप्रमाण कथन किया गया है। यथा - चौबीस तीर्थेकर, जैन धर्मकी विशेषता, दिगम्बर संघमेद, ३० की उत्पत्ति. तिर्योकी उत्पत्ति और इतिहास, उत्तरी भारत के राजा और जैनधर्म. मवालियर के राजा व जैनधर्म, मुनिधर्म, गृहस्थ धर्म, अजैनों की शुद्धि, जैन धर्मकी उपयोगिता आदि १२५ विषयोंका सुबोब और सप्रमाण कथन है । पृ० २०० मूल्य १०) मेनेजर, दिगम्बर जैनपुस्तकालय - सूरत। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूची। १-प्राककथन २-पौराणिक काल (ऋषभदेव और भरत) ३-अन्य तीर्थंकर मोर नारायण त्रिपृष्ठ .... ४-पोदनपुरके वन्य राबा.... ६-चक्रवर्ती हरिषेण ... ६-गम, अक्ष्मण और रावण ७-गाना ऐलेय और उसके वंशज ८-कामदेव नागकुमार .... ९-दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काल १०-म• बरिष्टनेमि, कृष्ण और पांडव ११-भगवान पार्श्वनाथ .... १२-महाराजा करकाण्डु .... १३-भगवान महावीर .... १४-सम्राट् श्रेणिक, अंबुकुमार और विद्युलर.... १५-नन्द मौर मौर्य सम्राट १६-सांध्र साम्राज्य .... १७-द्राविड राज्य १८-पांड्य राज्य, चोल राज्य, चर राज्य .... १९-दक्षिण भारतका न संघ, जन संबकी प्राचीनता २०-जैन सिद्धांत, श्वेताम्बर जैनी २१-श्री धरसेनाचार्य और श्रुत ऊद्वार .... २२-मल संघ, श्री कुंदकुंदाचार्य ___ .... २३-कुर काव्य २४-उमास्वामी (उमास्वाति) २५-स्वामी समंतम .....१५ ....१३४ ....१३७ ....१३९ ....१४३ ....१४७ ....१५. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेताक्षर सूची। प्रस्तुत प्रन्यके संकलन में निम्न प्रन्योंसे सहायता ग्रहण की गई है, जिनका उल्लेख निम्न संकेतरूपमें यथास्थान किया गया है बब-शोकके धर्मख-लेखक श्री जनार्दन मट्ट एम० १० (काशी, सं० १९८०)। बहिबगी हिस्दी बाफ इन्डिया'-सर विशेन्ट स्मिय एम. ए. (पोथी मावृत्ति )। अशोक -'पशोक' के. सर विन्सेन्ट स्मिथ एम. एम. । बाक'माराधना कथाकोष' है. ब्र. नेमिदत्त (जैनमित्र माफिस, सूरत )। गाजीमाजीविक्स-भाग १ . वेनी माधव बारमा. डी. लिट् (कलकत्ता १९२०)। मासू०--'भाचाराङ्ग सूत्र' मुझ (श्वेतांबर बागम ग्रंथ )। माहिद = बाक्सफर्ड हिस्ट्री माफइंडिया-विन्सेन्ट स्मिथ एम.ए.। नभरिई -बनल्स पाव भंडारकर रिचर्स इंस्टीटयूट, पूना । माई-बारीबिनेट इनेबीटेन्ट्स बावरिया, जापर्ट सा. पात (मदास)। मापुलमादिपुराण, पं. लाळाराम द्वारा संपादित (इंदौर)। इऐ०-इन्डियन ऐन्टोकेरी (त्रैमासिक पत्रिका )। हरि० इन्सायक्लोपेडिया माफ रिलीजन एण्ड इथिक्स ।दिग्स । इंसेब इन्डियन रेक्ट बॉफ दी बैन्स' बुलर । हहिकबा =इंडियन हिस्टोरीकल वाटली-म.. बरेन्द्रबाप -पता। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] इका अथवा एका०-इपोग्रेफिया कर्नाटिका ( बंगलोर )। इंए•=इंडियन एन्टोकेरी (बम्बई)। उट'उवासगदसाबो सुत्त०'-डा० हार्णके (Bible Indica). उपु०१०उ.पु.-'उत्तरपुराण' श्री गुणभद्राचार्य व पं.लालारामजी । उस०='उत्तराध्ययन सत्र' ( श्वेताम्बरीय मागम प्रन्थ ) जाल काटियर (उपसला)। एइ. = एपिप्रेफिया इंडिका'। एइमे• या मेएइ० एन्शियेन्ट इन्डिया एनडिस्क्राइब्ड गई 'मेगस्थनीज एण्ड ऐरियन'-( १८७७ )। एन०एन इप टोम माफ जनज्म-श्री पूर्णचन्द्र नाहर एम.ए.। एमिक्षट्रा एन्शिपेन्ट मिड इंडियन क्षत्रिय दाइन्स ' हो. विमचरण लॅा (कलकत्ता)। एइ० एन्शियेन्ट इंडिया एमडिस्काइन्ड बाई स्टूबो मक किंडक (१८०१)। ऐरिरेशियाटिक रिसर्चन-सा विलियम जोन्स (सन् १७९९ व १९०९)। कजाइनिधम, जागाफी माफ एंशियेन्ट इंडिया-(कलकत्त १९२४)। कलि ='ए हिस्टी माफ कनारीन लिट्रांचर . पी. राइस (H. LS. 1921 ). कस.कल्पमत्र मूल (श्वेतांबरी भागम प्रन्थ )। काले-कारमाइकल हेर्स हैं।डी० मार. भाण्डारकार। दिम्बिन हिस्ट्री जॉफ इंडिया ऐन्सिपेन्ट इंडिया, भा. १-रैसव सा. (१९२२)। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] कच० फरकण्डुचरिय, प्रॉव्हीगाळ द्वारा संपादित (कारखा) । 2 कऐ इं० कृष्णस्वामी ऍगरकृत ऐन्शिपेन्ट इंडिया (लंदन १९१९) गुमापरि गुजराती साहित्य परिषद् रिपोर्ट- सातवीं (भागनगर सं० १९२२ ) । गौबु० 'गौतमबुद्ध' के० जे० सॉन्डर्स ( H. L. S. ) गंज : गजेटियर व बम्बई भाण्डारकर बादि कृत । ० , गमकु०.गंजेटियर बाब मैसूर एण्ड कुगे । चमभ० : : 'चन्द्रराज भण्डारी कृत भगवान महावीर' । जवि ओसो० जनरल बाफ दी बिहार एण्ड ओडीसा रिसर्च सोसाइटी' | जम्बू० जम्बूकुमार चरित्र ( सुरत श्रीगब्द २४४० ) । जमीमो० : जर्नल ऑफ दी मीधिक सोमाइटी-बेंगलोर । जगत्मा० : जर्नल ऑफ दी गयक एसियाटिक सोसाइटी - लंदन । अका:-:' जैन कानून ' ( श्री० चम्पतयजी जैन विद्यामा० बिजनौर (१९२८ ) । 'जंग ० :- ''जन गजट ' अंग्रेजी (लखनऊ) | जेव० : जनधर्म प्रकाश ब्र० शीतलप्रसादजी ( बिजनौर १९२७) । जैस्तू • जैनस्तृप एण्ड मदर एण्टीकटीज ऑफ मथुरा - स्मिथ | जलास ० जैन साहित्य संशोधक' मु० जिनविजयजी (पूना) । सिमा० - जैन सिद्धान्त भास्कर श्री पद्मराज जन (कलकत्ता) । जैशि [सं० - 'जैन शिलालेख संग्रह' - प्रो० ही गळाळ जैन (माणिकचन्द्र प्रन्थमाका | जेहि० = जैन हिलेबी सं० पं० नाथूरामजी व पं० जुगलकिशोरबी (बम्बई)। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] GEO (Js.)=sta AS (S. E. Series, Vols. XXII & SLV): जम्बू• जम्बूकुमार चरित (माणिकचन्द्र प्रन्धमाला, बम्बई): जसाई-प्रो०एस० बार शर्मा कृत जैनीम इन साउथ इंडिया। टॉरा =टॉडसा• कत राजस्थानका इतिहास वेटेश्वर प्रेस । डिजवा०= ए डिक्शनरी नाफ जैन बायोग्रंकी ' श्री उमरावसिंह टॉक (बारा)। सक्ष ='ए गाइड टू तक्षशा '-सा जान माशल (१९१८)। तत्वार्थ =तत्वार्थाधिगमसुत्र श्री उमास्वाति S. R.J. Vol.1 तिप= तिल्लोय पण्णत' श्री यति वृषभाचार्य (बेन हितैषी मा० १३ अंक १२)। दिजे०='दि० जैन मासिक पत्र सं० श्री. मचन्द किसनदास कापड़िया (सूरत)। दीनि= 'दीघनिकाय' ( P. T. S. ) नाच-नायकुमार चरिउ ( माणिकचंद्र ग्रंथमाला, बम्बई )। fre=रिशिष्ट पर्व-श्री हेमचन्द्राचार्य । प्राजिलेसं० पाचीन जन लेख संग्रह कामतःप्रमाद जन (वर्धा)। प्रसाचनसार, प्रा० ए०एन० उपाध्ये द्वारा संपादित बंबई । बवित्रो जस्मा अंगाल, बिहार, ओडीसा न स्मारक-पी. ब्रह्मचारी शीतळप्रसादजी (सात)। बजेस्मा गई प्रांतके प्राचीन जैन स्मारक ब्रशीतळप्रसादनी। बु०-बुद्धिष्ट इंडिया प्रॉ. होस डेविड्म । बुस्ट-बुद्धिस्टिक स्टडीन, डॉ. विमाचरण लाद्वारा संपादित सकता। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] भपा.-- भगवान पाश्वनाथ-के. कामताप्रसाद जैन (सरत)। मम भगवान महावीर- " " " भमबु०-भगवान महावीर और म बुद्ध कामताप्रसाद जैन (सूरत) भमी०- भट्टारक मीमांसा (गुजगती) सात। भमत्र-मगवान महावीरकी महिंसा (दिल्ली) भाई-मारतवर्षका इतिहास-टी. वरीप्रसाद डी. लिट । प्रयाग १९२७)। भावशो० . प्रशौक-डे। माण्डारका (कळत्ता)। भाप्राग मारतके प्राचीन राजवंश श्री. विश्वेश्वरनाथ रेट बंबई। भाप्रासइ =भारतको प्राचीन सभ्यताका इतिहास,सर रमेशचंद्र दत्ता मजेह : मगठी जैन इतिहास । मनि०- । . है मसमनिकाय P. T. S. ममप्रनस्मा ० - मद्रासमैसुरके प्रा० जनस्मारक व शीतप्रसाद जी। महा=महावग्ग (S. B. E. Vol. XIII). मिलिन्द० मिनिन्द पन्ह (S. B. Vol. XXXT.) मुर। =मुद्राराक्षस नाटक-इन दी हिन्दू ड्रामेटिस वर्कस,विडसन । मला मुलाचार वट्टकेर स्वामी (हिन्दी भाषा सहित बम्बई)। मैबु मैन्युड बॉफ बुद्धिज्म (स्पेनहा)। मगशो -शोक मकफैक कृत (H. LS.) मारि माडनरिव्यू , सं० रामानंद चटर्जी (कलकत्ता)। मैकु०-मैसूर एण्ड कुर्ग फ्राम इंस्क्रिपशन्स-राइस (बंगलोर)। मैबु मैन्युल माफ बुद्धिज्म-(स्पेनहाडी) मोद-मोहेनजोदरो-सर जान मारशल (उन्दन)। .. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] रखा रनकरण्ड ब्रावकाचार सं.पं. जुगलकिशोरजी (बम्बई) राह राजपूतानेका इतिहास माग १-१.५० पं. गौरीशंकर हीराचंद मोहा। रिद-रिलिंगस माफ दी इम्पायर-बिन्दन)। लामामाइफ बॉफ महावीर का माणिकचंद्रजी (इलाहाबाद)। हामाई०-भारतवर्षका इतिहास ला• लाजपतरायकृत (लाहोर)। लाम कार्ड महावीर एण्ड अपर टीचर्स मॉफ हिम टाइमकामताप्रसाद (दिल्ली)। छायबु०-लाइफ एण्ड वम बॉफ बुद वोष-डॉ. विमलाचरण लों (कळकत्ता)। लामने हार्ड परिष्टनेमि, (दिल्ली)। बृनैश-वृाद् जैन शब्दार्णव-पं० बिहारीलाल चैतन्य । विर=विद्वद् गत्नमाला-पं० नाथूरामजी प्रमो (बम्बई)। विमा विशालभारत, सं० श्री बनास दाम चतुर्वेदी कलकत्ता अबश्रवणबेलगोला, रा. ब. प्रो० नगसिंहाचार एम० ए० (मद्रास)। बेच ग्रेणिक चरित्र (सुरत)। समामिवा० सर भाशुतोष : मोरियल वाल्यूम (पटना)। सको०-सम्यनव कौमुदी (बम्बई )। सजे० सानतन जैन धर्म-अनु =कामताप्रसाद ( कटकत्ता)। संबई संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम माग कामताप्रसाद (सात) सहि सम डिस्टिन्गुइड जेन्स उमगहि टांक (मागग)। संपाजस्मा संयुक्त प्रांत के प्राचीन जैव स्मारक-३० शीतल । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] ससाइज स्टडीज इन साउथ इंडियन बेनिज्म प्रो. रामलामी मायंगर । ससू-सम्राट अकबर और सूरीश्वर-मुनि विद्याविजयजी (बागरा) सक्षदाएइ०सम क्षत्री ट्राइब्स इन एन्शियन्ट इंडिया-डॉ. विमचरण लो। साम्स साम्स माफ दी ब्रदरेन । मुनि सुत्तनिपात (S. B. E.)। साइं० टहीन इन साउथ इंडियन जैनिज्म प्रो. रामास्वामी मायंगर । हरिः हरिवंशपुराण-श्रो जिनसेनाचार्य ( कलकत्ता)। हॉ० हॉर्ट माफ जैनीज्म मिसेन स्टीवेन्सन (छन्दम)। हिस्ट्री बाफ दो बार्यन रूक इन इंडिया-ईवे । हिली०= हिस्टोकल ग्लीनिंगस-डा. विमल चरण लॉ। हिटे हिन्दू टेल्स-जे० जे० - से हिड्राव०-हिन्दू ड्रामेटिक बम विकसन् । प्रिंफि - हिस्ट्री माफ दी प्री-बुद्धस्टिक इंडियन फिलासफी बारमा (कलकत्ता)। हिनि०=हिस्ट्र एण्ड लिट्रेचा ऑफ जनीज्म-मारोदिया (१८०९) हिवि.-हिन्दी विश्वकोष नागेन्द्रनाथ बसु (कलकत्तः )। क्षत्रीलेन्स अत्रीन्स इन बुद्धिष्ट इंडिया-हुँ। विमलाचरणला। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः। संक्षिप्त जैन इतिहास। भाग तीसरा-खण्ड पहला। (अर्थात् दक्षिण भारतके जैनधर्मका इतिहास) प्राक्कथन। जैनधर्म तात्विकरूपमें एक अनादि प्रवाह है, वह सत्य है, एक विज्ञान है। उसका प्राकृत इतिहास वस्तुस्वरूप है। वस्तु सादि नहीं अनादि है, कृत्रिम नहीं मकृत्रिम है, नाशवान नहीं चिरस्थायी है, कूटस्थ नित्य नहीं पर्यायोंका घटनाचक्र है। इस. लिये विश्वके निर्मारक पदार्थोका इतिहास ही जैनधर्मका इतिहास है। और विश्व निमांक पदार्थ तत्ववेत्ताओंने जीव और अजीव बताये हैं । चंतन पदार्थ यदि न हो तो विश्व अंधकारमय होनाय । उसे जाने और समझे कौन ? और यदि अचंतन पदार्थ न हो तो इस संसारमें जीव रहे किसके आश्रय ? प्रत्यक्ष हमें विश्व और उसके अस्तित्व का ज्ञान है। वह है और अपने अस्तित्वमे जीव और अजीवकी स्थिति सिद्ध कर रहा है । परन्तु यह जीव और अजीव भाये कहांसे ? यदि इन्हें किसी नियत समबपर किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा बना हुमा कहा जाय तो यह भखण्ड और मरुत्रिम या मनादि नहीं रहते। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समित जैन इतिपस। खण्डोंके बने हुबे होनेके कारण इन्हें नाशवान मी मानना पड़ेगा। पर अनुभव ऐसा नहीं है। चेतन कभी मरता नहीं देखा गया और न उसका ज्ञान टुकडोंने कटा हुमा अनेकरूप अनुभवमें भाया । इसलिये वह अमन्मा है । संसारमें वह अनादिसे मजीवके संसर्गमें पड़ा हुमा संसरण कर रहा है । जीव-मजीवका यह सनातन प्रवाह मनन्तका इतिहास है । उसका प्रत्यक्ष अनुभव पूर्ण ज्ञानी बननेपर होता है। जैन सिद्धान्त ग्रंथोंमें उसका रूपरा और उपाय वर्णित है । जिज्ञासुगण उनसे भरनी मनस्तुष्टि कर सकते हैं। किन्तु धर्म नववा वस्तुस्वरूपके इस सनातन प्रवाहमें उसका वर्तमान इतिहास जान लेना उपादेय है । वर्तमानमें उसका निलपण कैसे हुमा ? उसकी समवृद्धि कैसे हुई ? किन किन लोगोंने उसे कैसे अपनाया ? उसके यथार्थ रूपये धब्बे कैसे कगे? और उनसे उसके कोनर से विकृत-रूप हुये ? उन विकृत रूपोंके कारण मुल धर्मका कसा हास हुमा ? इत्यादि प्रश्न हैं जिनका उत्तर पाये बिना मनुष्य अपने जीवनको सफल बनाने में सिद्ध-मनोग्य नहीं हो सकता । इसीलिये मनुष्य के लिये इतिहाम-श खो ज्ञानकी आवसका। वह मनुष्य के नैतिक उत्थान और पतनका प्रतिबिम्ब है। धर्म और मधर्म, पुष और पापके मंचका चित्रपट है। उसका बाझरूप राज्यों के उत्कर्ष और अपकर्ष, योद्धाओंकी जय और पराजबका द्योतक है; परन्तु यह सब कुछ पुण्य पापका खेल हो। इसलिये इतिहास बह विज्ञान है जो मनुष्य जीवनको सफल बनानेके लिये नैतिक शिक्षा खुली पुस्तककी तग प्रदान करता है। यह Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ मनुष्य में विवेक, उत्साह और शोर्यको जागृत कर उसे विजयी वीर बनाता है, इसीलिये उसकी आवश्यक्ता है। जैन धर्मका इतिहास उसके अनुयायियोंकी जीवन गाथा क्योंकि धर्म स्वयं पङ्गु है-वह धर्मात्मानोंके आभव है। इस बातको लक्ष्य करके पहले मैन इतिहासके तीन संड लिखे जा चुके हैं। उनके पाठसे पाठकगण जान गये हैं कि धर्मका प्रतिपादन इस काम में सर्व प्रथम कर्मयुगके भारम्भमें भगवान ऋषभदेव द्वारा हुमा वा। भगवान ऋषभदेवके पहले यहां मोगभूमि थी। यहांके प्राणियोंको जीवन निर्वाहके लिये किसी प्रकारका परिश्रम नहीं करना होता था। उनका जीवन इतना सरल था कि वह प्राकृतरूपमें ही अपनी मावश्यक्तामोंकी पूर्ति कर लेते थे। जैन शास्त्र कहने है कि 'कल्प. वृक्षों' से उन लोगोंको मनचाहे पदार्थ मिल जाते थे। वह मनमाने भोग भोगते और जीवनका मजा बटते थे। किन्तु जमाना हमेशा एकसा नहीं रहता। वह दिन बीत गये जब यहां ही स्वर्ग था। लोग उतने पुण्यशाली मन्मे ही नहीं किसर्ग-सुखके अधिकारी इस नरवाममें ही होते । बेन सास बताते हैं कि जब एक रोज कल्पवृक्ष नर हो चले, लोगोंको पेटका सवाल हल करनेके लिये बुद्धि और बलका उपयोग करना भावश्यक होगया, परन्तु वे जानने तो थे ही नहीं कि उनका उपयोग कैसे करें? वे अपने मेधावी पुरु. पोंको खोजने लगे, उनोंने उनको कुलकर या मनु कहा । इन कुलकरोंने, जो एक चौदह थे, गेगोंको जीवन निर्वाह Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] संमित जैन, विज्ञास। करनेकी प्रारम्भिक शिक्षा दी।' बारहवें कुलकरका नाम मरुदेव था। उन्होंने नाविक शिक्षाके साथ २ लोगोंको दाम्पत्यजीवनका महत्व हृदयङ्गम कराया। उन्हीके समयसे कहना चाहिये कि कर्मशील नर-नारियोंने घरगिरस्ती बनाकर रहना सीखा । शायद यही कारण है कि वैदिक साहित्यमें मारतके मादि निवासी ‘मुरुदेव' भी कहे गये हैं। मंतिम कुलकर नाभिराय थे जिनकी रानी मरुदेवो भी । इन्हीं दम्पतिके सुपुत्र भगवान ऋषभदेव थे। भगवान ऋषमदेवने ही लोगोंको टीकसे सभ्य जीवन व्यतीत करना सिखाया था। उनके पूर्वोपार्जित शुभ कर्मोका ही यह सुफल था कि स्वयं इन्द्रने भाकर उनके सभ्यता और संस्कृतिके प्रसारमें सहयोग प्रदान किया था। कुटुंबोंको उनकी कार्यक्षमताके अनुसार उन्होंने तीन वर्गामें विभक्त कर दिया था, जो क्षत्री, वैश्य और शद्रवर्ण कहलाते थे । जब धर्मतीर्थकी स्थापना होचुकी तब ज्ञानप्रसारके लिये ब्राह्मणवर्ग भी स्थापित हुमा । इसतरह कुल भर वर्गों में समाज विभक्त करदी गई; किन्तु उसका यह विभाजन मात्र राष्ट्रीय मुविधा और उत्थानके लिये था। उसका माधार कोई मौलिक भेद न था। उस समय तो सब ही मनुष्य एक जैसे थे। नैतिक व अन्य शिक्षा मिलनेपर जैसी जिसमें योग्यता गौर क्षमतादृष्टि पड़ी वैसा ही उसका वर्ण स्थापित कर दिया गया; यद्यपि सामाजिक सम्बन्ध-विवाह शादी करने के लिये सब स्वाधीन थे । दक्षिण भारतमें भी इस व्यवस्थाका प्रचार था, क्योंकि वहांके साहि १-. पर्ष ३ व १२ । २-संजा. ११२१ । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायन । [ ५ स्यसे भी इन्हीं चार वर्णोंका पता चलता है और इनके जीवननिर्वाह के लिये ठीक वही आजीविकाके छह उपाय बताये गये हैं जो उत्तर भारतमें मिलते हैं।' जैन शास्त्रोंमें उत्तर और दक्षिण भारतके मनुष्योंमें कोई भेद नजर नहीं पड़ता । इससे मालूम होता है कि उनमें उस समयका वर्णन है, जब कि सारे भारतमें एक ही सभ्यता और संस्कृति थी । उस समय वैदिक आर्योंका उनको पता नहीं था। प्राचीन शोध भी हमें इसी दिशा की ओर लेजाती है। हरप्पा और मोहनजोदरोकी ईस्वी से पांचहजार वर्षो पहलेकी सभ्यता और संस्कृति वैदिक धर्मानुयायी आयकी नहीं थी, यद्यपि उसका सादृश्य और साम्ब द्राविड़ सभ्यता और संस्कृतिसे था, यह भाज विद्वानोंके निकट एक मान्य विषय है। साथ ही यह भी प्रकट है कि एक समय द्राविड़ सभ्यता उत्तर भारत तक विस्तृत भी । सारांशतः यह कहा जासक्ता है कि वैदिक मायके पहले सारे भारतवर्षमें एक ही सभ्यता और संस्कृतिको माननेवाले लोग रहते थे। यही वजह है कि जैनशास्त्रों में उत्तर और दक्षिण भारतीयों में कोई भेद दृष्टि नहीं पड़ता ! ર १- 'थोकका पियम्' जैसे प्राचीन प्रथसे यही प्रगट है । वर्णोंके नाम (१) असर अर्थात् क्षत्री, (२) अनयेनर अर्थात् ब्राह्मण, (३) वणिकर, (४) विल्लालर (कृषक) क्षत्रीवर्ण जन प्रन्थोंकी भांति पहले बिना गया है। २-मारशट, मोद० मा० ११० १०९-१११ a comparison of the Indus and Vedio Cultures shows in contestably that they were unrelated." (p. 110). Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - संलित जैन इतिहास। किन्तु प्रश्न यह है कि वैदिक आर्योसे पहले जो लोग मार. तमें रहते थे वह कौन थे ? यदि हम मेजर जेनरल फरलॉग सा० के मभिमतको मान्य ठहरायें तो इस प्रश्नका उत्तर यह होगा कि बे द्राविड़ और जैनी थे। और सबकी मरुदेव या नामिराय कुलकरकी सन्तान थे।' उनकी एक सभ्यता थी, एक संस्कृति थी और एक धर्म था, जैसा कि कुलकरों और मादिब्रह्मा ऋषभदेवने निरपारित किया था। पान्तु इस प्रभपर जरा अधिक गहरा विचार बान्छनीय है-मनस्तुष्टि गंभीर गवेषणासे मली होती है। निस्सन्देह यह स्पष्ट है कि भारतके मादि निवासी वैदिक माध्यताके मार्य नहीं थे। उनके मतिरिक्त भारतमें दो प्रकारके मनुष्योंके गहनेका पता चलता है। उनमेंसे एक सभ्य थे भौर दूसरे विस्कुल असभ्य थे । पहले लोगोंका प्राचीन साहित्यमें नाग, भमुर, द्राविड़ आदि नामोसे उल्लेख हुआ मिलता है और दुसरे प्रकारके मसभ्य लोग 'दास' कहे गये हैं। किनी लोगोंका मनुमान है कि इन्हीं 'दास' गेगोंमेंसे शुद्ध वर्णके लोग थे । सभ्य लोग १. फळांग सा० लिखते हैं कि "अनुमानत: ६० पूर्व १५००से ८.. बल्कि जगणित समरसे पश्चिमीय तथा उत्तरीय भारत तूगनी या द्राविदों द्वारा शासित था ....उसी समय उत्तरीय भारत में एक पुराना, सभ्य, सदान्तिक पौर विशेषतः साधुनोंका धर्म अर्थात् जैन धर्म भी विमान था। इसी धर्मसे ब्राह्मण मौर बौद्ध धोके सन्याम शास्त्रोंने विकास पाया । "-Short studies in the Scionce of Comparative Religions, (pp. 243-4) २. मई, पु. भू. ३५१-६४ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७ प्राथकन। मुख्यतया मसुर नामसे ही विख्यात थे। अब जरी देखिये, वैदिक साहित्यमें इन मसुर लोगोंकी यह खास विशेषतायें वर्णित हैं: (१) मसुर लोग 'प्रजापति ' की सन्तान थे और उनकी तुलना वेदिक देवताओं के समान थी। (२) असुर लोगोंकी भाषा संस्कृत नहीं थी। पाणिनिने उन्हें व्याकरणके ज्ञानसे हीन बताया है। ऋग्वेद (७।१८-१३) में उन्हें 'विरोधी भाषा-भाषी' (of hostile speech) और वैदिक मार्योका शत्रु ( १।१७४-२) कहा है। (३) मसुर ध्वनचिह्न सर्प और गरुड़ थे । (४) मसुर क्षात्रधर्म प्रधान थे। (५) असुर लोग ज्योतिष विद्यामे निष्णात थे। (ऋग्वेद १।२८८) (६) माया या जादृ ( magic) मसुरका गुण था। (ऋग्वेद १।१६०-२३) । असुर लोगोंकी यह विशेषतायें भाज भी जैनियोंके लिये भनूठी हैं । जैन शास्त्रोम आदिब्रह्मा ऋषभदेव 'प्रजापति' भी कहे गये हैं।' आजके जैनी उनकी सन्तान हैं और वे भी अन्य हिन्दु ओंकी तरह मार्य ही हैं । जैनियोंकी भाषा संस्कृतसे स्थानपर प्राकृत रही है जिसका व्याकरण अथवा साहित्यकरूप संस्कृतसे शायद भर्वाचीन है । प्राकृत संस्कृतसे मिन्न ही है। इसलिये जैनियों और अमरोंकी माषा भी सदृश प्रगट होती है। असुर चिह सर्प १. महापुराण-विसहस्त्रनाम - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिसम्म तिहास । जैनों विशेष रूक है । एकसे अधिक जैन तीर्थकरों और शासन देवतामोंसे उसका सम्बन्ध है। हां, गरुड़का चिह्न जैनोंमें उतना प्रचलित नहीं है । जैनोंके सब ही तीर्थकर क्षत्री थे और उनकी शिक्षा प्रत्येक मनुष्यको क्षात्र धर्मका अनुयायी बना देती है। नियोंका माध्यात्मिक क्षात्रधर्म अनूठा है। ब्राह्मणों और बौद्धोंने जैनियोंको ज्योतिष विद्या निष्णात लिखा है और प्राचीन भारतमें जैन मान्यतानुसार ही कालगणना प्रचलिन थी। इन विधर्मियोंने जैन तीर्थक्करोंकी बाह्य विभृति देखकर उन्हें इन्द्रजालिया ( जादुगर ) भादि कहा है। इम प्रकार असूर लोगोंकी खास विशेषतायें जैनों मिलती हैं । उसपर उपरान्त असूर लोगोंद्वारा मर्थवेदकी मान्यताका उल्लेख है, जिसे ऋपि अङ्गरिसने रचा था। यह ऋषि अङ्गारिस स्वयं एक समय जैन मुनि ये। इस साक्षीसे भी भामरोंका जैनधर्मसे सम्बंधित होना प्रगट है। अन्ततः वैदिक पुराण अन्योंके निम्न उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि असुर भी एक समय जैनधर्मानुयायी थे: (१) विष्णुपुराण' (म० १७-१८) में एक कथा है जिसका संक्षेप इसप्रकार है कि एक समय देवता और मसुरोंमें १. पञ्चतंत्र (१।१) प्रबोध चन्द्रोदय नाटक, न्यायबिन्दु म. ३मादि । न्यायविन्दु में लिखा है: “ यथा: सर्पज्ञ प्राप्तो पास ज्योति नादिकमुपदिष्टवान् । यथा ऋषभवमानादिरिति ।" २. बसवेरूनीका भारत वर्ष देखो-हमने कालाणनामें मनसर्पिणीका उल्लेख किया है। ३. बृहत्स्वयंभूस्तोत्रादि । ४. "दि -विशेषांक.... Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा भारी युद्ध हुभा तब देवता हार गये मोर असुर जीत गये। हारे हुये देवगण विष्णु भगवानकी शरणमें भाये और बहुत स्तुति करके कहा कि महाराज, कुछ ऐसा उपाय कीजिये जिससे हम मसुरोंपर विजय प्राप्त कर सकें । विष्णु भगवानने यह सुनकर अपने शरीरसे एक मायामोह नामका पुरुष उत्पन्न किया। वह दिगम्बर घुटे सिरवाला और मोर पिच्छिधारी था । इस मायामोहको विष्णुने उन देवोंको देकर कहा कि यह मायामोह अपनी माया ( जादु ) से असुरों या दैत्योंको धर्म-भ्रष्ट कर देगा और तब तुम विजयी होंगे। मायामोह देवोंके साथ मसुरोके पास पहुंचा और उन्हें बहुत तरह समझाकर बताया कि माईत (जैन) धर्म ही श्रेष्ठ है-हमे धारण करो। असुरोंने मावामोहका उपदेश स्वीकार किया स्मौर वे धर्मभ्रष्ट होगये । तब देवोंने उन्हें जल्दी ही परास्त कर डाला। इस कथामें वर्णित मायामोह एक दिगम्बर जैन मुनि हैं और उन्हें मायाजाली (जादगर) बताया १. इत्युक्तो भगवास्तेभ्यो मायामोहं शरीरतः । समुत्पाथ ददो विष्णु: प्राह चेदं मुगेत्तमान् ॥ ४१ ॥ मायामोहोयमखिलान् त्यांस्तान मोहयिष्यति । ततो वध्या भविष्यन्ति वेदमार्गमहिष्कृताः ॥ ४२ ॥ स्थितौ स्थितस्य मे वध्या पावन्तः परिपन्थिनः । ब्रह्मणो येऽधिकारस्था देवदैत्यादिका: मुराः ॥ ४३ ॥ तद्गच्छत नभीकार्या महामोहोऽयम्मतः । गत्वद्योपकागय भवतां भविता मुगः ॥ ४४ ॥ इत्यादि। विष्णुपुराण .. १८ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त मैन इतिहास। है। उनका धर्म स्पष्ट रूपसे माईत मत (जैन धर्म) कहा गया है। नर्मवावटपर बसनेवाले असुरोंको उन्होंने जैनधर्म-रत बनाया था। भमुरोंकी पूर्वोल्लिखित विशेषतायें इन अनी मसुरोंमें मिल जाती हैं। (२) एक ऐसी ही कथा हिन्दु 'पद्मपुराण' (प्रथम सृष्टि सँड १३ पृ० ३३) पर अंकित है और उसमें भी मायामोह जो दिगम्बर मुंडे सिर और मोर पिच्छिकापारी योगी (योगी दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपत्रघरोधयं) था, उसके द्वारा मसुरोंका जैनधर्म रत होना लिखा है।' (३) देवी भागवत' ( चतुर्थ स्कंध मध्याय १३ ) में कमन है कि शुक्राचार्य अपने अमुर-दैत्यादि यजमानोंको देखने गये तो क्या देखते हैं कि छलवेषधारी वृहस्पतिजी उन मसुरोंको जैन धर्मका उपदेश देते हैं। वह असुरोको 'देवोंका वैरी' कहकर सम्बोधन करते हैं, जैसे कि ऋग्वेदमें असुरोंको कहा गया है। १. बृहस्पतिसाहाय्यार्थ विष्णुना मायामोहसमुत्पादनम् दिगपरेण मायामोहेन देस्यान् प्रति जैनधर्मोपदेशः दानवानां मायामोहमोहितानां गुरुणा दिगम्बर जैनधर्मदीक्षादानम् ।' (पपपुराण-वेंकटेघर प्रेस बम्बई पृ. २) इस पुराणमें दैत्य, दानव भोर मसुर शब्द समवाची वर्षमें व्यवहत हये हैं, क्योंकि बतमें लिखा है 'अयोधर्मसमुत्सज्य मायामोहेन तेऽसुराः ।' २. 'पलपपरं सौम्यं बोधयंत बलेन तान् । जैनधर्म कृतं स्वेन यानिंदा परं तथा ॥१४॥ भो देवरिपथः सत्यं ब्रवीमि भवतां हितम् । पहिसा परमो धोऽयंतण्याबाततापिनः ॥५५॥ इत्यादि। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायकन । (४) ' मत्स्यपुराण ' ( अ० २४ ) में भी देवासुर युद्धका प्रसंग आया है और उसमें भी उनमें जैन धर्मका प्रचार होना वर्णित है।' इन उद्धरणोंसे सिद्ध है कि भारत के प्राचीन निवासी अमुर लोगोंमें जैनधर्मका प्रचार रहा है। वे देवासुर संग्रामके समय जैनी थे । इसलिये वैदिक मार्योकी सभ्यता और संस्कृतिसे पृथक् और प्राचीन जो सभ्यता और संस्कृति सिन्धु उपत्ययकामें मिलती है वह जैन धर्मानुयायी असुर लोगोंकी कही जासकती है और उसका सादृश्य द्राविड़ सभ्यतासे है । इसलिये उन दोनोंको एक मानना अनुचित नहीं है। जैन ग्रन्थोंसे एक अखिल भारतीय सभ्यता और संस्कृतिका ही पता चलता है।। मोहनजोदरोकी मुद्राओंपर विद्वानोंने ऐसी मूर्तियां और वाक्य पढ़े हैं जिनका सम्बन्ध जैन धर्म है । एक मुद्रापर 'जिनेश्वर " शब्द लिखा हुमा पढ़ा गया है। मुदामोंपर अडित मूर्तियां योगनिष्ठ कायोत्सर्ग मुद्रावाली नम हैं, जैसी कि जैन मूर्तियां होती हैं।' एक पद्मासन मूर्ति तो टीक भगवान पार्श्वनाथकी सर्पफणमण्डल युक्त प्रतिमाके अनुरूप है। उनकी नासाग्र दृष्टि, कायोत्सर्ग मुद्रा और वृषभादि चिह ठीक जिन मूर्तियों के समान हैं। यह समानता भी उन मर्तियोंको जैन धर्मानुयायी पुलोद्वारा निर्मित प्रगट करती हैं। १. पुरातत्य, भा० ४ पृ० १७६ २. इंहिका० मा० ८ परिशिष्ट पृ० ३० 1. Modern Roviow, August 1932, pp. 155-160 ४. मोद., मा० १ पृ. ६. Plato XIII, 15, 16. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] संक्षिप्त जन इतिहास। उघर जैन शाम्रोंसे यह प्रगट ही है कि उत्तर भारतकी तरह दक्षिण भारतके देशोंमें भी सर्व प्रथम म० ऋषभदेव द्वारा ही सम्यता और संस्कृतिका प्रचार हुआ था। जब वह समूचे देशकी व्यवस्था करने लगे थे, तब इन्द्रने सारे देशको निम्नलिखित ५२ प्रदेशोंमें विभक्त किया था: "सुकौशल, अवंती, पुंड, उंडू, अश्मक रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, मंग, बंग. सुख, समुद्रक, काश्मीर उशीनर, आनर्त, वत्स, पंचाल, मालव. दशार्ण, कच्छ, मगर, विदर्भ, कुरुजांगल, करहाट, महाराष्ट्र, मुराष्ट्र, मामीर, कोंकण, वनवास, मांध्र, कर्णाट, कोशल, चोल, केरल, दारु, अभिसार. मौवीर, सूरसेन, अपरांत, विदेइ, सिंधु, गांधार, यवन, चेदि, पल्लव, कांबोज, मारट्ट, बाल्हीक. तुरुष्क, शक, और केकय ।' १. " देशा: सुकोशलावंतीपुड्रोडाश्मकरम्यका: । कुरुकाशीकलिंगांगबंगसुह्याः समुद्रकाः ॥ १५२ ।। काश्म रोशीनगनतवत्सपंचाळमालवा: । दशा: कच्छमगमा विदर्भा कुरुजांगलं ॥ १५ ॥ करहाटमहाराष्ष्ट्रसुगष्ट्रामीरकोंकणाः । बनवासांध्र कर्णाटकोशटाचोळकेरला: ॥ १५४ ॥ दाभिसासौवीर शूरसेनापतकाः । विदेहसिंधुगांधारयवनाश्वेदिपल्लुवाः ॥ १५५ ॥ कांबोजांगवाललापरुशककेकया: । निवेशितास्तथान्येवि विभक्ता विषयास्तदा" || १५६ ॥ मादिपुराण पर्व १६ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथान। [१२ इनमें मश्मक रम्यक, करहाट, महाराष्ट्र, मामीर, कोंकण, बनवास, मांध्र, कर्णाट, चोल, केरल मादि देश दक्षिण भारतमें मिलते हैं । इससे स्पष्ट है कि भ० ऋषभदेव द्वारा इन देशोंका अस्तित्व और संस्कार हुमा था । मत: दक्षिण भारतमें जैन धर्मका इतिहास उम ही समय अर्थात् कर्मममिकी आदिसे ही प्रारंभ होता है । इस अपेक्षा हमें उसे दो भागोंमें विभक्त करना उचित प्रतीत होता है अर्थात्:(१) पौराणिक काल:-इस अन्तरालमें भगवान ऋषभ देवसे २१ वें तीर्थङ्का म• नमिनाथ तकका संक्षिप्त इतिहास समाविष्ट होजाता है । (२) ऐतिहासिक काल:-इम अन्तराळमें उपरान्तके तीर्थक्कगें और मानतक हुये महापुरुषोंका इतिहास गर्भित होता है। यह अन्तराल निम्न प्रकार तीन मागोंमें बांटना उपयुक्त है। अर्थान:(१) प्राचीनकाल (ई० पूर्व ५००० से ई० पूर्व १) (२) मध्यकाल ( सन् १ से १३०० ई.) (३) अवांचीनकाल ( उपरान्त ) भागेके पृष्टोंचे इसी उपर्युक्त क्रममे दक्षिण माग्तक जैन इनि. हासका वर्णन करनेका उद्योग किया गया है। पहले ही पौगणिक काल' का विवरण पाठकों के समक्ष उपस्थित किया जाता है। Page #34 --------------------------------------------------------------------------  Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. जैन इ. भाग ३ खंड १. पौराणिक काल। दक्षिण भारतका इतिहास। Page #36 --------------------------------------------------------------------------  Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक काल। (" भ० ऋषभदेव और सम्राट् भरत ") भगवान ऋषभदेव अथवा वृषभदेव जैन धर्ममें माने गये इस भवसर्पिणीकाल के पहले तीर्थकर थे। जैन धर्ममें तीर्थङ्करमे भाव उस महापुरुषसे है मो इस संसार-समुद्रमे पार उतारने के लिये और मोक्षस्थानको प्राप्त होने के लिये एक धर्म-नार्थकी स्थापना करते हैं । ऋषभदेव एक ऐसे ही तीर्थक थे । पर साथ ही उनको 'कुलकर' या 'मनु' भी कहा गया है । वह इसलिये कि उन्होंने ही वस्तुतः मनुष्यको सभ्य और संस्कृत जीवन व्यतीत करना सिखाया था। यह पहले लिखा जा चुका है कि भगवान ऋषभदेव मन्तिम कुल. कर नाभिगय और उनकी गनी मरुदेवीके सुपुत्र थे । हिन्दु पुराण प्रन्थोंमें उनकी गणना अवतारोंमें की गई है और उन्हें पाठवां अवतार कहा गया है। भगवानका जन्म चैत्र कृष्णा २ को अयोध्यामे हुमा था और उनका जन्म-हमव खूब धूमधाम्मे मनाया गया था। वह धर्मक प्रथम उपदेष्टा ये इमलिय उनका नाम 'श्री वृषभनाथ स्वस्वा गया था । जिम समय क मी मरुदेवीक गर्भमे थे, उस समय उनकी मांने साल. शुभ स्वप्न देव 2. जिनके अंमें एक सुन्दर बैन था : संकृत बलको 'वृषम' कहने हैं और अलं. कुन भाष में वह धर्मनके लिये व्यवहृत हुआ है।' इमलिये ही १-मम० पृ० १२-१७: दो मानेन्ट हिन्दी भाव इंडिया देखो। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] - संक्षिप्त जैन इतिहास। भगवानका ध्वजचिन्ह भी · वृषम' (Bull) था। भगवान ऋषमदेवकी जो मूर्तियां मिलती हैं उनमें यह बैलका चिह्न मिलता है।' भगवान ऋषभदेव स्वयं ज्ञानी थे। मानवोंमें सर्वश्रेष्ठ थे । उनकी युवावस्थाकी चेष्टायें परोपकारके लिये होती थीं। उनसे जनताका वास्तविक हित सधा था। वे स्वयं गणित, छंद, अलंकार, व्याकरण, लेखन, चित्रलिपि मादि विद्याओं और कलाभोंके ज्ञाता थे और उन्होंने ही सबसे पहले इनका ज्ञान लोगों को कराया था। पूर्ण युवा होनेपर उनका विवाह कच्छ महाकच्छ नामक दो राजाओंकी परम सुंदरी भौर विदुषी नंदा और सुनंदा नामक दो गजकुमारियों के साथ हुआ था। रानी मुनन्दाके समस्त भरतक्षेत्रका पहला सम्राट भरत चक्रवर्ती नामका पुत्र और ब्राह्मी नामकी कन्या हुई थी। ऋषभदेवने ब्रामीको ही पहले पहले लेम्वनकळाकी शिक्षा दी थी। इसीलिये मारतीय आदि लिपि - ब्राह्मी लिपि ' कहलाती है। दूसरी रानी मुनन्दाके महाबलवान बाहुबलि और परमसुंदरी सुन्दरी नामकी कन्या हुई थी। भरतके वृषभसेन आदि अट्ठानवे भाई और थे। इन सब पुत्रोंको विविध प्रदेशोंमे गजपतिष्ठ करके ऋषभदेव निश्चित हये थे । यह हम पहले लिख चुके हैं कि प्रजाकी आदि व्यवस्था १. मोहनजोदराकी मुद्रामोपा कतिपय काय त्सर्ग मुदाकी नम मतियां अंकित है जिनपर बैठका चिह्न भी है । रा० ० रामप्रसाद चन्दा महाशय उन्हें भ. ऋषभदेवकी मूर्तिके समान प्रगट करते हैं। म. ऋषमदेवने कायोत्सर्ग मुद्रामें तपश्वाण किया था। (Modern Review, Aug: 1932, p. 159. ) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक काल । [१९ म० ऋषभदेव द्वारा ही हुई थी । भरत युवराज थे और ऋषभदेवके मुनि होजाने पर राज्याधिकारी हुये थे। उनके भाइयों से कतिपयका राज्य दक्षिण भारत के निम्न लिखित प्रदेशों था: भश्मक, मूलक, कलिंग, कुंतल, महिषक, नवराष्ट्र, भोगवन इत्यादि । भगवान ऋषभदेव और उनकी सन्तान · इक्ष्वाकु क्षत्रिय' कहलाते थे। यही इक्ष्वाकुवंश उपरान्त 'मूर्य' और 'चन्द्र' वंशोपे विभक्त होगया था। सम्राट् मरतने सभ्यता और संस्कृति के प्रसारके लिये छहों खंड पृथ्वीकी दिग्विजय की थी। उन्हीं के नामकी अपेक्षा यह देश - भारतवर्ष ' कहा जाता है। भारतके उत्तर और दक्षिण भागोंका एक ही नाम होना इस बातका प्रमाण है कि मभूचा देश भरत महाराजके अधिकारमें था। सारे भाग्नका तब एक ही राजा, एक ही धर्म और एक ही सभ्यता थी। नृत्यकारिणी नीलांजसाको नृत्य करने करते ही विलीयमान होता देखकर ऋषभदेवको वैराग्य उत्पन्न हुआ। चैत्र वदी नवीके दिन भगवान् दिगम्बर मुनि हो तपश्चरण करने लगे। उनके साथ चार हजार मन्य राजा भी मुनि होगए । परन्तु कठिन मुनिचांको वह निभा न सके। इसलिये मुनिपदसे भ्रष्ट होकर वे नाना पाखण्डोंके प्रतिपादक हुये । इनमें भ० ऋषमदेवका पौत्र मगचि प्रधान था उसने सांख्य मतके सदृश एक धर्मकी नींव डाली थी। भाखिर भ० ऋषमदेव सर्वज्ञ परमात्मा हुये और तब उनोंने सारे देशमें विहार करके लोकका महान् कल्याण किया था। यह Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] संक्षिप्त जैन इतिहास इस कालमें आदि धर्म देशना थी। भगवानने काशी, अवंती, कुरुजांगळ, कोशल, सुझ, पुंडू, चेदि, अंग, बंग, मगध, मंत्र, कलिंग, भद्र, पंचाल मालव, दशार्ण, विदर्भ आदि देशोंमें बिहार किया था । लोगोंको सन्मार्गर लगाया था । अन्ततः कैलास पर्वत पर जाकर भगवान विराजमान हुये थे और वहींसे माघ कृष्णा चतुदशीको भगवान निर्वाणपदके अधिकारी हुये । भरत महाराजने उनके स्मारक में वहां उनकी स्वर्ण-प्रतिमा निर्मित कराई थी । * 1 दक्षिण भारतके प्रथम सभ्राट् बाहुबलि । भगवान ऋषभदेवके दूसरे पुत्र बाहुबलि थे । यह महा बलवान और अति सुंदर थे । इसीलिये इनको पहला कामदेव कहा गया है । भगवान ऋषभदेवने बाहुबलिको अश्मक - रम्यक अथवा सुरम्य देशका शासक नियुक्त किया था और वह पोदनपुर से प्रजाका पालन करते थे | अपने समय के अनुपम सुन्दर और श्रेष्ठ शासकको पाकर उनकी प्रजा अतीव संतुष्ट हुई थी। यही वजह है कि आज भी उनकी पवित्र स्मृति लोगों के हृदयोंमें सजीव है। दक्षिण भारत के लोग उन्हें 'गोमट्ट' अर्थात् 'कामदेव' नामसे स्मरण करते हैं और निस्सन्देह वह कामदेव थे । परन्तु कामदेव होते हुये भी बाहुबलि नीति और मर्यादा धर्मके आदर्श थे । साथ ही उनकी मनोवृत्ति स्वाधीन और न्यायानुमोदित थी । वह अन्यायके प्रतिकार और कर्तव्य पालन के लिये मोह ममता और कायरता से * विशेषके लिये मादिपुराण व संक्षिप्त जन इतिहास प्रथम भाग देखो । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक काछ । [२१ परे रहते थे । 'स्वार्थ' नहीं - 'कर्तव्य' उनका मार्गदर्शक था । इसीलिये वह एक आदर्श सम्राट् और महान योगी के रूपमें प्रसिद्ध हुए । 'चक्रवर्ती' – पदको सार्थक बनानेके लिये अपने और पराये सब ही शासकोंको एकदफा नतमस्तक बना देना आर्य राजनीतिका ताज़ा रहा है । सम्राट् भरतको चक्रवर्ती होना था। उन्होंने षट्खण्ड पृथ्वी जीत ली थी। परन्तु उनके भाई मभी बाकी थे । सम्राट्ने चाहा कि उनके भाई केवल उनकी आन मान लें । पर वे सब स्वाधीन वृत्ति क्षत्री थे । उन्होंने भाईके स्वार्थ और ऐश्वर्यमदको विवेक नेत्रसे देखा और सोचा- "यह पृथ्वी पिताजीने हमें दी है । हमारे बड़े भाई उसपर अपना अधिकार चाहते हैं । हम इसमे मोह क्यों करें ? पिताजी इसे छोड़ गये । चलो, हम भी इसे त्याग दें ।” उन्होंने जैसा सोचा वैसा कर दिखाया । वे सब तीर्थङ्कर ऋषभदेवके चरणतलमे जाकर मुनि होमये । भरतकं भाइयोंमें बाहुबलि बाकी रहे । भरत महाराजने मंत्रियोंकी सम्मतिको आदर देकर अपना दून उनके पास भेजा । दुतने बहुतमी उनार चढावकी बातें कहीं; परन्तु बाहुबलिपर उनका कुछ भी असर नहीं हुआ । उन्होंने दूतके द्वारा भरत महाराजको रणानगर्मे आनेके लिये निमंत्रण भिजवा दिया । सम्राट् भग्त पहले से ही इस व्यवसरकी प्रतीक्षा में थे । उन्होंने अपनी चतुरंगणी सेना समाई और वह लावलश्कर लेकर पोदनपुरके लिये चल दिये । उधर बाहुबलिशी सेना भी शस्त्रास्त्र सुसज्जित हो रणक्षेत्र भाटी । दोनों सेनायें आमने-सामने युद्ध के लिए तैयार कीं। दो Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] संक्षिप्त जैन इतिहास नरपुंगवोंकी जवान हिलाने भरकी देर थी कि लाखों नरमुंड धरातल पर लोटते दिखाई देते । परन्तु दोनों शासकोंक राजमंत्रियोंका विवेक जागृत हुमा । उन्होंने देखा, यह निरर्थक हिंसा है-अनर्थदण्ड है। इसे क्यों न रोका जाय ? दोनोंने नरशार्दूलोंको समझाया । निरपराध मनुष्योंकी अमूल्य जानें क्यों जाँयें ? स्वयं भात और बाहुबलि ही अपने बल पौरुषकी परीक्षा करलें । यही निश्चित हुमा। मलयुद्ध-नेत्रयुद्ध मादि कई प्रकारके युद्धोंमें दोनों वीरोंने अपने मान्योंकी परीक्षा की; परन्तु बाहुबलिका पौरुष महान था । भरत उनको न पा पाये। वह खिसिया गये । ___ अपमानके परितापसे वह ऐसे क्षोभित हुए कि उन्होंने अपने भाई पर ही चक्र चला दिया; किन्तु सगोत्री होने के कारण चक्र भी बाहुबलिका कुछ न बिगाड़ सका। हाँ, भरतकी यह खार्थपरता देखकर उनके हृदयको गहरी चोट पहुँची। उनको राज-पाट हेय जंचने लगा। उन्होंने मनुष्यकी माया-ममताको धिक्कारा पोर बनाभूषण त्याग कर दिगम्बर मुनि होगए। भरत नतमस्तक होकर भयोध्या लौट माये । पोदनपुरमें बाहुबलिका पुत्र राज्यशासन करने भगा और उन्हींकी सन्ततिका वहां मधिकार रहा। पोदनपुरमें रहकर बाहुबलिने घोर तपश्ररण किया। वह कायो. सर्ग मुद्रामें शान्त और गंभीर बने हुए एक सालतक लगातार ध्यानमम रहे। चीटियोंने उनके पांवोंके सहारे बांवियां बनाली, बतायें उनके शरीर पर चढ़ गई। परन्तु उनको जरा भी खयाल न हुना । उपर भरतमहाराजको भी माईके दर्शन करनेकी ममिकामा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक काल। हुई। वह पोदनपुर गये। उन्होंने बड़े प्रेमसे राजर्षि बाहुबलिकी वन्दना की। बाहुबलि निराकुल हुए। उन्होंने अपने ध्यानको और भी विशुद्ध बनाया और घातिया कोका नाश कर दिया । वह केवलज्ञानी होगए । देवोंने उत्सव मनाया । भरतमहाराजने उनके केवलज्ञानकी पूजा की। बाहुबलिने चातक श्रोताओंको धर्मामृत पान कराया। और वह सारे देशमें विहार करने लगे। भातमहाराजने उनकी पवित्र स्मृतिमें पोदनपुरमें एक स्वर्णमूर्ति उन्होंके भाकारकी स्थापित कराई; जो वहाँ एक लम्बे समय तक विद्यमान रही। ___ विहार करते हुए राजर्षि बाहुबलि कैलाश पर्वतपर पहुँचे और वहाँपर उन्होंने पूर्ण ध्यानका आश्रय लिया, जिसके परिणाम स्वरूप वह निर्वाणके अधिकारी हुए। विद्वानोंका अनुमान है कि बाहुबलि ही दक्षिणमारत के पहले सम्राट् धर्मामृत वर्षा करके मोक्षकाम करनेवाले पहले मनुष्य थे।' हमारे विचारसे यह मान्यता है भी ठीक; क्योंकि बाहुबलिका राज्यप्रदेश अश्नकरम्यक और पोदनपुर दक्षिणभारतमें ही अवस्थित प्रमाणित होते हैं। यद्यपि काई २ विद्वान् पोदनपुरको भारतकी पश्चिमोत्तर मीमा अवस्थित और प्रायः तक्षशिला ही अनुमान करते हैं; परन्तु उनकी यह मान्यता युक्तिपुरम्सर नहीं है। निम्न पंक्तियोंमें पाठकगण पोदनपुरको प्राचीन दक्षिणापथमें अवस्थित सिद्ध हुआ पढ़ेंगे। जैन संघ पोदनपुरका कथन अनेक स्थलोंपर माया है और १-पमपुराण चतुर्य पर्व को• ६५-७७. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | उनका उल्लेख आगे के पृष्ठोंमें पाठकगण यथास्थान पढ़ेंगे। सबसे पहले इसका उल्लेख बाहुबलिजी के सम्बन्धमें हुआ मिलता है । 'महापुराण' में लिखा है कि मस्तके दूतने पोदनपुरको शालिचावल और गन्ने के खेतोंसे लहलहाता पाया था और वह संख्यान' दिनोंमें ही वहां पहुंच गया था । ' हरिवंशपुराण' में लिखा है कि दूत अयोध्या से पश्चिम दिशाको चलकर पोदनपुर पहुंचा था। ૩ इन उल्लेखोंसे ष्ट है कि पोदनपुर अयोध्यामे बहुत ज्यादा दूर नहीं था और न वह अयोध्यासे उत्तर दिशामें था; जैसे कि तक्षशिला होनी चाहिये । उनके आसपास शालिचावल और गन्ना होते थे। तक्षशिलामें यह चीजें शायद ही मिलती हो। साथ ही तक्षशिला में एक बृहत्काय बाहुबक मृर्तिके अस्तित्वका पता नहीं चलता, जोकि पोदनपुरका खास स्मारक था । बाहुबलि के अतिरिक्त पोदनपुरका स्वाम उल्लेख भगवान पार्श्वनाथ के पूर्वभव चरित्रमें मिलता है। भगवान पार्श्वनाथ अपने पहले भव पोदनपुर के राजा अरविन्द के पुरोहित विश्वभूतिके सुपुत्र मरुभूमि थे। उनके भाई कमठ थे । कमठ दुष्ट प्रकृतिका मनुष्य था । उसने मरुभूतिकी स्त्रीसे व्यभिचार सेवन किया जिसका दण्ड उसे देशनिकाला मिला | १ - ' शालिवप्रेषु' - 'शालीक्षुमीर क्षेत्रवृत: ( ३५ पर्व ) " क्रमेण देशान् सिंध देवसंबंध सोऽतियन् । श्रापत् संख्यावरपुरं पोदनम्॥" २- हरिवंशपुराण, सर्ग ११ लोक ७९ । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक काल। [२५ वह पोदनपुरसे चलकर भूताचल पर्वतपर एक तापसाश्रममें कुतप तपने लगा। मरुभूति मरकर मलयपर्वतके कुन्जकमल्लकी बनमें हाथी हुआ। वह वहां वेगवती नदीके किनारेपर रहता था। 'उत्तरपुराण' में स्पष्ट शब्दोंने पोदनपुरको दक्षिणभारतके सुरम्यदेशमें अवस्थित लिखा है। श्री वादिराजसरिने भी पोदनपुरको सुग्म्पदेशमें शालिचावलोंके खेतोंसे भरपूर लिखा है।' वहांसे भूताचल पर्वत अधिक दूर नहीं था। श्रीजिनमेनाचार्यने मृताचलके स्थानपर रामगिरि पर्वत लिखा है। अब यह देखना चाहिये कि पोदनपुरके निकटवर्ती उपरोक्त स्थान कहांपर थे ? पहले ही भूताचल या रामगिरि पर्वतको लीजिये । श्री जिनसेनाचार्य ने रामगिरिका उल्लेख भृताचल के लिये किया है, इसलिये यह अनुमान करना ठीक है कि गमगिरि और भूनाचा एक ही पर्वतके भिन्न नाम ये, अथवा एक पर्वतकी दो शिविरों के नाम थे। रामगिरि नागपुर डिवीजनका रामटेक है. जो भाज भी एक प्रमिद तीर्थस्थान है। श्री उग्रादित्याचार्यने गमगिरिके जैव मंदिग्में ही बैठकर ग्रंथ ग्चना की थी। उन्होंने उमे त्रिकलिङ्ग देश में अवस्थित १-"जबूविभूषणे द्वीपे माते दक्षिणे महान् । सुरम्यो विषयस्ता विस्तीर्ण पादनं पु॥" २-पार्श्वनाथचरित् प्रथम मर्ग लोक ३७-३८, ४८ व सर्ग २ कोक १५ ३-पाभ्युदयकाव्य-'यो निमत्स-इत्यादि पच देखो। ४-जैन सिद्धांत मास्कर (जैसिमा०) मा० ३ पृ. १३-१४ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] संक्षित जैन इतिहास। लिखा है, जिसे विद्वजन माधुनिक मध्यप्रांत ही प्रगट करते हैं।' अब जब रामगिरि रामटेक है तो भूताचक भी वहीं कहीं होना चाहिये। हमारे मित्र श्री गोविन्द पै नागपुर डिवीजनके वेतूल जिलेको भूताचल अनुमान करते हैं। उसके आसपास पर्वत हैं और वह अश्मकदेशसे भी दूर नहीं है, जैसे कि प्राचीन भारतके नकशेसे स्पष्ट है। हिन्दू ' मत्स्यपुराण' से एक 'तापस ' नामक प्रदेशका दक्षिणापथके उत्तर भागमें होना प्रगट है, जो यूनानी लेखक टोल्मीका मध्यदेशवर्ती तबमैं' (Tabassoi) प्रतीत होता है। अतः यह संभव है कि कमठ व तापस देशमें स्थित भूताचल या रामगिरि पर्वतपर कुतप तपने गया था। जो हो, यह स्पष्ट है कि पोदनपुरके निकट अवस्थित उपरोक्त पर्वत दक्षिणापथके उत्तरीय भाग विद्यमान थे। ___ अब मलय पर्वत और कुब्जकसल्लकी बनको लीजिये । कनिंघम सा०ने मलयपर्वतको द्राविड़ देशमें स्थित बताया है।' चीनदेशके यात्री व्हान्त्सांगने उमे कांचीसे दक्षिणकी ओर ३००० १-'वेजोश त्रिकलिङ्ग देश....रम्ये रामगिराविंद....।' -सिमा० ३ पृ. ५३ । २-प्रो० मुकरजीको 'Fundamental Unity of India' नामक पुस्तक में लगा हुमा प्राचीन भारतका नकशा देखो। ३-मत्स्य पुराण (Panini ofice od., S. B.H. Vol. XVII) ch. CXIV. "-पाए।.पू. ६२७॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक काल। [२७ मीलकी दूरीपर लिखा है ' वेगवती नदी भी द्राविड़देशमें है।' मलयपर्वतपर चन्दन वृक्षोंका वन था। वहीं कुन्जकसल्लकी वन अनु. मान किया जासकता है । इसप्रकार पोदनपुरके पासमें अवस्थित ये उपरोक्त स्थान भी दक्षिण भारतमें मिलते हैं । पोदनपुर इनसे उत्तरकी ओर होना चाहिये। क्योंकि 'भुजबलि चरित' में उल्लेख है कि गा सेनापति चामुण्डराय पोदनपुर की यात्रा करने के लिये उत्तरकी ओर चलते हुये श्रवणबेलगोल पहुंचे थे। शेह रहा सुरम्य देश, जिसकी राजधानी पोदनपुर थी । यह देश भी दक्षिणापथमें अवस्थित मिलता है। यूनानी लेखक टोलमीने 'रमनै' (Ramnai) नामक एक प्रदेश मध्यप्रदेशमें लिखा है, जो वर्तमानके मध्यपान्त, वरार और निजाम राज्यके कुछ अंश नितना था। संभवतः यह रमने ही जैनोंका सुरम्य देश है । 'आदिपुराण' में इसीका नाम संभवतः अश्मकाम्यक है : अब जरा मजेन साक्षीपर भी ध्यान दीजिये। बौड जातकों पोदनपुर अश्मकदेशकी गजधानी कहा गया है तथा 'मुत्तनिरात में मस्सकदेश गोदावरी नदीक निकट सक्य पर्वत, पश्चिमी घाट भौर दण्डकारण्यके मध्य अवस्थित लिखा है। संस्कृत भाषाके कोष वृहदाभिधान्' में पौण्ड्य राजा भइमककी गजधानी कही गई हैं पौर रामायण' (किष्किन्धाकाण्ड, में अश्मक देश भारत के दक्षिण १-पूर्व० पृ. ७४१ । २-पूर्व• पृ० ७३९ । ३-प्रवणबेळगोट पृ० १०-११। ४-बग माग २२ पृ० २११ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] संक्षिप्त न इतिहास । या दक्षिण पश्चिमोतर भागमें बताया गया है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या मजैन ग्रंथों का पोदन या पौण्ड्य और अश्मकदेश भैनशाघोका पोदनपुर और सुगम्यदेश है ? हमारे ग्यालसे उन्हें एक मानना युक्तिसंगत है। मादिपुगणानुसार सुरम्यदेशका अपग्नाम यदि अश्मक-रम्यक माना जाय तो अश्मकदेशको मुरम्य माना जासकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अश्मकका अपर नाम रम्यक या सुरम्य था अथवा यह भी संभव है कि उसके उपरान्त दो भाग अश्मक और रम्यक होगए हों। यह सष्ट ही है कि अश्मक और रम्यक प्रायः एक ही दक्षिणापथवर्ती प्रदेश था। हरिवंशपुराण' में अश्मकको दक्षिण देश ही लिखा है। अजैन लेखकोंने मी अश्मकको दक्षिणभारतका देश लिखा है। वराहमिहिरने मांध्र के बाद अश्मकको गिना है।' गजशेषरने भी 'काव्यमीमांसा' में अश्मकको दक्षिणदेश लिखा है।' शाकटायनने साल्व (बांधों) के बाद अश्पकका उल्लेख किया है। कौटिल्यने अश्मकको हीरों के लिये प्रस्त्यात और राष्ट्रिकों के बाद लिखा है।' विन्ध्याचलके परे प्राचीन दक्षिणापथमें हमें हीरोंकी प्रसिद्ध १-अंग• भा० २२ पृ० २११ । २-हरि० मर्ग ११ भोक ७०-७१ । ३-वराहमिहिग्संहिता परि. १६को. ११। -.O.S.,TAI,ab. P. +-(२४॥१.१) ६-मर्थशास्त्र, माविकार २, प्रकरण २९ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक काल। [२९ खान गोलकुन्डा मिल जाती है। इसलिये अश्मकदेश भाजकलका बरार और निजाम राज्यका कुछ अंश जितना था। उधर सुरम्यदेश भी मध्यप्रान्त, बरार और निजाम राज्यको अंशको मानेमें लिये हुये था, यह पहले ही लिखा जाचुका है। अतः दोनों देशों को एक अथवा एक देशवे दो भाग मानना युक्तिसंगत है। इस अवस्था पोदनपुर भारतकी पश्चिमोत्तर सीमापा नहीं मान! जामता । कवि धनपालने — भविष्यदत्त कथा में हस्तिनापुरके राजा और पोदनपुर के शासक युद्ध होने का उल्लम्व किया है। इन दोनों गज्योंक बीचमें कच्छ देशकी स्थिति वैसी ही थी जैसी कि गत यूरोपीय महायुद्धमे बलजियमकी थी । यह कच्छ देश सिंधुदेशक समीप स्थित कच्छ, नहीं हो सकत: क्योंकि वह दोनों राज्यों के बीचमें नहीं पड़ना । हो. यदि यह कच्छ देश ग्वालियर गज्यक नम्वरजिलेमें रहे हुये कच्छवाई क्षत्रियों का प्रदेश माना जाय, जिसका मानना टीक प्रतीत होता है. ना उसकी स्थिति दोनों गज्योंके ठीक बीचमें आजानः है। कवि धनपालन पोदनपुर नरेशको साकेन नगेन्द्र भी लिखा है, जिसका भाव यही है कि वह सात (अयोध्या) के गजवंशसे सम्बन्धित थे । पोदनपुर राजकुलके मादिपुरुष बाहुबलि साकेत. राजाके सुपुत्र और युवराज थे । कवि धनपारने पोदनपुरको मिंधुदेशमें लिखा है सो टीक है, क्योंकि भवन्नीके भासपासका प्रदेश सिन्धुनदीकी अपेक्षा मिन्धुदेश भी कहलाता था। अत: बाहुबलि 9-G. O. S., Vol. XX Intro: Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] संक्षिस जैन इतिहास। नशकी गजधानी पोदनपुर दक्षिणापथमें ही प्रमाणित होती है।' बाहुबलि दक्षिण भारतके पहले सम्राट थे और पहले साधु थे। दक्षिण भारतमें आज भी उनकी बृत्तकाय पाषाणमूर्तियां इस स्मारकको जीवित बनाये हुए हैं। "अन्य तीथकर और नारायण तृपृष्ट।" भगवान् ऋषभदेवके अतिरिक्त पौराणिक कालमें भगवान अजितनाथमे भगवान मरिष्टनेमि पर्यन्त २१ तीर्थक्कर और हुये थे । इन तीर्थकरोंने भी केवलज्ञान प्राप्त करके उत्तर और दक्षिणभारतमें विहार किया और धर्मापदेश दिया था। 'उत्तरपुराण' में लिखा है। कि मलयदेशके भद्रपुरमें नीर्थक्कर शीतलनाथका जन्म हुआ था । और वहींपर मुंडशालयन नामक एक ब्राह्मण रहता था, जिसने लोभ कषायके वश हो करके ऐसे शास्त्रोंकी रचना की कि जिनमें ब्राह्मगोंको सोने चांदीका दान देनेका वर्णन था। ___ उन शास्त्रोंको गजदरबारमें उपस्थित करके उसने दान दक्षिणा बहुतसा धन प्राप्त किया था। यहींसे मिथ्या मतका प्रचार हुआ कहा गया है। मलयदेश द्राविडक्षेत्रमें माना जाता है । इसलिये भद्रपुर भी वहीं भवस्थित प्रगट होता है; किन्तु माधुनिक मान्यतानुसार शीतलनाथ भगवानका जन्मस्थान वर्तमान भेलमा है, जो मध्यप्रदेश में मवस्थित है। इस मान्यताका क्या माधार है, यह ज्ञात नहीं है। १-विशेषके लिये 'बूलनर मोमेरेशन वाल्यूम' ( लाहोर ) में हमारा 'पोदनपुर गौर तक्षशिला' शीर्षक डेख देखो। २-उपु. ५६।२३-८५। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्य तीर्थकर और नारायण स्पृष्ट। [३१ दुसरे तीर्थकर भ० मजितनाथके समय सगर चक्रवर्ती हुये थे। उन्होंने षट्खंड दिग्विजय किये थे, जिसका अर्थ यह होता है कि उन्होंने दक्षिणमारतको भी विजय किया था। उनके पश्चात् काळानुसार मघवा, सनत्कुमार, सुभौम, पद्म, हरिषेण मादि चक्रवर्ती हुये थे, जिन्होंने भी अपनी दिग्विजयमें दक्षिणभारत पर अपनी विजय-वैजयन्ती फहराई थी। म० श्रेयांसनायके समयमें दक्षिणापथवर्ती पोदनपुरके राजा प्रजापति थे। उनकी महारानीका नाम भगवती था। उनके एक माग्यशाली पुत्र जन्मा, जिसका नाम उन्होंने तृपृष्ट रकम्वा । यही तृपृष्ट जैनशास्त्रोंमें पहले नारायण कहे गये हैं। तृपृष्टकी विमातासे उत्पन्न विजय नामक माई पहले बलदेव थे। तृपृष्ट और विजयमें परस्पर बहुत ही प्रेम था। नारावण तृपृष्टने प्रतिनारायण अश्वग्रीवको युद्धमें हगकर दक्षिण भारतको अपने माधीन किया था। तृपृष्टकी पट्टानी स्वयंप्रभा थी और उसके ज्येष्ठ पुत्र का नाम श्रीविनय था। श्रीविजयका विवाह ताराके साथ हुआ था। तृपृष्टके बाद पोदनपुरके गजा श्रीविजय हुये थे । उनके भाई विजयमद्र युवगज थे। तागको एक विद्याधर हर लेगया था। श्री विजय ने युद्ध करके तागको उस विद्याधरसे वापस लिया था । गजा प्रजापनि और बलदेव विनयने मुनिव्रत धारण कर कर्मों का नाश किया था; परन्तु नृपृष्ट बहु परि. ग्रही होने के कारण नरकका पात्र बना था। तो भी इसमें शक नहीं कि दक्षिण भारतका वह दुमग प्रसिद्ध और बलवान राजा था।' १-पर्व ५७ व पर्व ६२ देखो। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । नारायण द्विपृष्ट । समय में हुये थे । परन्तु उनके पूर्व दूसरे नारायण द्विपृष्ट भगवान वासुपूज्य के यद्यपि उनका जन्म द्वागनती नगरीमें हुआ था, भवका सम्बन्ध दक्षिण भारत से अवश्य था । अपने पूर्वभवमें बह कनकपुरके राजा सुपेण थे। उनकी गुणमंजरी नामक नृत्यकारिणी सुंदरी और विद्वान थी । मलयदेशके विंध्यपुर नगरमें राजा विंध्य - शक्ति राज्य करता था । उसने गुणमंजरी की प्रसिद्धि सुनी और सुनते ही उसने सुपेणसे उसे मंगवा भेजा । और जब सुपेणने उसे राजीसे नहीं दिया तो वह सुपेणको युद्धमें परास्त करके जीव लाया । सुपेण मुनि होगया और आयु पूरी कर स्वर्गमें देव हुआ । ३२ ] वहांसे चयकर वहीं नारायण द्विपृष्ट हुआ । विंध्यशक्तिसे उसका पूर्व वैर था उसे वह भूला नहीं । विध्यशक्तिका जीव संसारमै रूल कर भोगवर्द्धनपुरक राजाके यहां तारक नामक श्यामवर्ण पुत्र हुआ | तारक राजा होनेपर एक प्रभावशाली शासक और विजेता सिद्ध हुआ। तारकने द्विपृष्टसे भी कर मांगा, परन्तु द्विपृष्टने इसे अपना अपमान समझा । इसी बात को लेकर दोनोंमें घमासान युद्ध हुआ, जिसमें तारकका अपने प्राणोंसे हाथ धोने पड़े । द्विपृष्टने तीन खंड पृथ्वीका स्वामित्व प्राप्त किया । दिग्विजय करके उन्होंने प्रतीप नामक पर्वतपर श्री वासुपूज्य स्वामीकी बन्दना की । द्विपृष्ट यद्यपि बलवान राजा था, परन्तु वह इन्द्रियोंका गुलाम था । इसी लिये शास्त्रोंमें कहा गया है कि वह मरकर नरकका पात्र हुआ। १-उ५० १८/६१-७७ । ५ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदनपुरके अन्य राजा। [१ पोदनपुरके अन्य राजा। तीर्थकर विमलनाथके समय में गणधर मेरुमंदर और मुनि संजयंत हुये थे। उनके पूर्वभवके वर्णनमें पोदनपुरके राजा पूर्णचन्द्रका उल्लेख है। गजा पूर्णचन्द्रको साकेतके गजा मादित्यबलकी पुत्री हिरण्यवती ब्याही गई थी। उनका पुत्र सिंहचंद्र था।' पूर्णचंद्रकी पुत्री रामदत्ताका व्याह सिंहपुरके राजा सिंहसेनके साथ हुआ था।' तीर्थकर अनंतनाथके सुप्रम नामक बलभद्र और पुरुषोत्तमनारायण हुये थे। उनके पूर्वभवान्तरों पोदनपुरके राजा वसुमेनका उल्लेख है। वसुमेनकी महारानी नंदा परमपवित्र और अनुपम सुंदरी थीं। वसुसेनका मित्र मलयदेशका राजा चंडशामन था। एकदा यह उससे मिलने आया। गनी नंदाके रूपलावण्यपर वह आसक्त होगया और किसी उपायसे उसे हरकर वह अपने नगर लेगया। गजा वसुसेन विरक्त हो मुनि होगया।' राजर्षि बाहुबलीकी ही वंशपरंपगमें उपगंन श्रेष्ठ गजा तृणपिगल हुमा। उमकी पट्टगनीका नाम सर्वयशादेवी था। उनके मधु. पिंगल नामक मुन्दा पुत्र था। अयोध्या के सगाने चालाकीमे उसे दुषित शरीर टहम्बाकर एक स्वयंवरसे निकलवा दिया था। जिस क्रोधको लेकर वह मग और महाकाल नामका व्यंतर हुमा। इस महाकालने अपना र चुकाने के लिये यज्ञमें पशुओंको होमनेकी प्रथाका श्रीगणेश किया था। १-33० ५९.२०८-९। २ हरि० २७५५ । ३-ठपु० ६०१५०-६७ । ४-उपु. ६७५२२३-२५ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] संक्षिप्त जैन इतिहास | पोदनपुर के एक अन्य राजा सुप्रतिष्ठ थे। यह राजा सुस्थित और गनी सुलक्षणा के सुपुत्र थे । कारण पाकर यह विरक्त होकर सुधर्माचार्य चरण-कमलोंमें मुनि होगये। हरिवंशके महापुरुष अंधकवृष्णि आदिने इन सुप्रतिष्ठ मुनिराज मे धर्मोपदेश सुनकर मुनिव्रत धारण किये थे । मुनिराज सुप्रतिष्ठका शौरसेन देशमें कईबार विहार हुआ था । आखिर वहीं गंधमादन पर्वतपर उन्हें कैवल्य प्राप्त हुआ था और वे मोक्षपद अधिकारी हुये थे। पांडवो के समय में पोदनपुरका राजा चन्द्रवर्मा था । वह राजा चंद्रदत्त और रानी देविका का पुत्र था। राजा द्रुपदके एक मंत्रीने उसके साथ द्रौपदीका व्याह करनेकी बात कही थी। 'भविष्यदत्त कथा' में पोदनपुर के एक गजाका युद्ध हस्तिनापुरके राजा भूपालके साथ हुआ वर्णित है । इस युद्ध पोदनपुर नरेशको पराजित होना पड़ा था। 3 चक्रवर्ती हरिण | त २ नीति गहुये थे। उनका जन्म के नाम की रानी ऐरादेवीकी कोख से हुआ था। भोगपुर संभवतः दक्षिण भारतका * १- उ० ७०-१३७.... २-३० ७९ - २०१... । ३ - वि० संधि १३ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपी हरिण। कोई नगर था । इमी नगग्में उनके पहले प्रतिनारायण तारकका मन्म हुआ था । दक्षिण भारतमें इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियोंका गज्य एक समय रहा था । इसलिये ही यह अनुमान ठीक है कि हरिपेण चक्रवतीका मम्बंध दक्षिण भारतसे था। हरिषेण बाल्यकालसे ही धर्मरुचिको लिये हुए थे। एक मेज वह अपने पिता राजा पद्मनामके साथ अनन्नतीर्थ मुनिराजकी वंदना करने गये। मुनिराजमे उनहोंने धर्मोपदेश सुना। राजा पद्मनाभ विरक्त होकर मुनि होगये और हरिषणने श्रावकके व्रत लिये। जब पद्मनामको केवलज्ञान उत्पन्न हुमा तब ही हरिण चक्रवर्तीको चक्ररत्नकी प्राप्ति हई। हरिषेणने पहले केवली भगवानकी वन्दना की, पश्चन षटम्वण्ड पृथ्वीको विजय किया । इम दिग्विजयमें उन्होंने निम्मन्देह दक्षिण भारतको भी विजय किया था। हरिपेग धर्मात्मा सम्राट थे ! उन्होंने एकदा अष्टालिका मह व्रतकी पूजा की, जिससे उनके परिणाम धर्मरसमे मलिक होमये। उन्होंने अट्टालिका पावट पूर्ण नन्द्रको 'दुःखेन देन्बा, जिनमे उन्हें महायान पुत्र हामी न मीमंतक पर्वतपर श्री नाग मुनाबक निकट दीक्षा ग्रहण काली। मुनि हरिषेणने खूब तर तपा और समाधिमाण द्वारा भायु समाप्त करके सर्वार्थसिदिमें महमिन्द्रपद पाया।' १-उपु०१७-८४............! Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] संलिम जैन इतिहास । श्री राम, लक्ष्मण और रावण । भगवान मुनिसुव्रतनाथजीके तीर्थकाळमें बलदेव और नारायण श्री राम और रश्मण हुये थे। वे भयोध्याके पूर्व भव । राजा दशरथके सुपुत्र थे । बाल्यावस्थासे ही उनकी प्रतिभा और पौरुषका प्रकाश हुआ था । यदि उनका जन्म और प्रारम्मिक जीवन उत्तर भारतमें व्यतीत हुआ था, परन्तु उनका सम्बन्ध दक्षिण भारतसे उनके उस जन्मसे भी पहलेका था और उपरात युवावस्थामें जब वे दोनों भाई वनवाममें रहे तब उनका अधिकांश समय दक्षिण भारतमें ही व्यतीत हुआ था। अच्छा, तो राम और लक्ष्मण के जीव अपने एक पूर्वभवमें दक्षिण भारतकी सुभमि पर केलि करते थे। दक्षिणके मलय देशमें पड़ ग्रनपुर नामका नगर था। उस नगरका प्रजापति नामका राना था। उसका एक लड़का था, जिसका नाम चन्द्रचूल था । चन्द्रचूलका प्रेम राजमंत्री के पुत्र विषयसे था। अपने मां-बापके यह दोनों इकलौते बेटे थे। दोनों का बेढब गड़ प्यार होता था। लाड़प्यारकी इस. अधिकताने उन्हें समुचित शिक्षासे शून्य रक्खा । मां-बापके अनुचित मोह-ममताने उनके जीवन विगाड़ दिये । वे दोनों दुराचारी होगये । रत्नपुरमें कुबेर नामका एक बड़ा व्यापारी रहता था। उसका बड़ा नाम और बड़ा काम था। कुबेरदत्ता उसकी कन्या थी। वह अनुपम मुन्दरी थी। युवावस्थाको प्राप्त होने पर कुबेरदसने अपनी उस कन्याका ब्याह उसी नगर में रहनेवाले एक दूसरे प्रख्यात् सेठ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राम सक्ष्मण मौर रावन। [३७ वैचवणके सुपुत्र श्रीदत्त के साथ करना निश्चित किया । उपर राजकुमार चन्द्रचूलके कान तक कुबेरदताके अनुपम रूप-सौन्दय की बार्ता पहुंची। वह दुराचारी तो था ही-उसने कुबेरनसाको अपने भाषीन करनेके लिये कमर कस ली । राजकुमारका यह अन्याय देव कर वैश्य समुदाय इण्टा होकर गजदरबारमें पहुंचा और उन्होंने इस अत्याचारकी शिकायत महाराज प्रजापतिसे की। __ महाराज प्रजापति अपने पुत्रसे पहले ही मप्रसक थे। इस समाचारको सुनते ही वह माग-बबुग होगये। उन्होंने न्यावदण्डको हायमें लिया और कोतवालको चंद्रचूल तथा उसके मित्र विनयको प्राणदण्ड देनेको माज्ञा दी । राजाके इस निष्पक्ष न्याय और कठोर दण्डकी चरचा पुग्वामियोंमें हुई। बुड्ढे मंत्रीका पुत्रमोह जागा । वह नगरवामियोंको लेकर राजाकी सेवामें उपस्थित हुआ । मरने राजासे प्रार्थना की कि वह अपनी कठो माया लौटा में '-राज्यका एक मात्र उत्तराधिकारी चंदचूल है, उसको प्राणदान दिया जाय ।' किन्तु राजाने यह कहकर उन लोगोंकी प्रार्थना भस्वीकृत कर दी कि 'माप लोग मुझे न्यायमार्गमे च्युत करना चाहने हैं, यह अनुचित है ।' सब चुप होगए । राजहल गौर मो भी ममुचित ! किसका साहस था मो मुंह खोलता। इस परिस्थितिमें मंत्री ने अपनी बुद्धिमे काम लिया। उन्होंने दोनों युवकोंको प्राणदण्ड देनेका भार माने ऊपर लिया। वह अपने पुत्र और राजकुमारको लेकर बनगिरि नामक पर्वतपर गए। वहांपर महावक नामक मुनिराज विराजमान थे। तीनों ही मागंतुकोंने उन Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] संलित जन इतिहास। साधु महारामकी वन्दना की और धर्मोपदेश सुना. जिससे उनके मात्र शुद्ध होगये। उन्हें अपने पर बहुत ग्लानि हुई। अपनी करनीपर वह पछताने लगे । संसारसे उन्हें वैराग्य हुआ नाशवान जीवनमें उन्होंने अमरत्वका रस पाया। बे झटपट गुरुके चरणों में मिर पड़े। गुरु विशेष ज्ञानी थे, उन्होंने अपने ज्ञान-नेत्रोंसे उनका भावी अभ्युत्थान देखा । चटसे उन्होंने उन दोनों युवकोंको अपना शिष्य बना लिया। मंत्री यह देखकर बड़ा प्रसन्न हुमा और अपना काम बनाकर वह रलपुर लौट गया। मुनि होकर चन्द्रचूल और विजय नये जीवन में पहुंच गये। उनकी कायापलट होगई। ममिमें तपकर सोना विशुद्ध होजाता है ठीक वैसे ही तपकी ममिमें प्रवेश कर उन दोनों युवकोंकी भात्मायें भपनी कालिमा खोकर बहुत कुछ शुद्ध होगई। किन्तु इस उब दशा भी उनें एक कामनाने अपना शिकार बनाया। उन्होंने निदान किया कि हम दोनों को क्रमशः नारायण और बनभद्रका ऐश्वर्यशाली पद प्राप्त हो। वह आयुके अंतमें इस इच्लाको लिये हुए मरे। मरते समय उन्होंने शुभ आगधनायें आगीं । दोनों कुमारोंके जीव सनत्कुमार स्वर्गमे देव हुए। देव पर्यायके मुखभोगकर वे चये और भयोध्या राम और लक्ष्मण हुए। जब राम और लक्ष्मण युवक कुमार थे तब भारतपर भर्द्धवरवर देशके रहनेवाले म्लेच्छोंका माक्रमण हुआ। राम और लक्ष्मण। राजा जनकने राम और लक्ष्मणकी सहाय तासे इन म्लेच्छोंको मार भगाया था। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री राम क्षण और रावण । युद्धमे बचे हुये म्लेच्छ मपने प्राण लेकर विंध्याचलकी पहाड़ियोंने जा छिपे और रहने लगे। यह अर्द्धवरवर दश मध्य एशियासे ऊपरका देश अनुमानित होता है। इम दशके गजाकी अध्यक्षतामें श्याममुख, कर्दमवर्ण आदि म्लेच्छ भारतमें माये थे। इन म्लेच्छोंको मार भगाने में राम और लक्ष्मणने खासी वीरतः दर्शाई थी। जनक उन गनकुमारोंपर मोहित हुये और उन्होंने अपनः गजकुमारियोंका व्याह उनके माथ काना निश्चित कर लिया। स्वयंवर रचा गया और उसमें भी गम और लक्ष्मणने अपना धनुर्कोशल प्रगट किया। सीताने गमके गर्नमें वरमाला डाली । गमचन्द्र के साथ उनका व्याह हुमा । अन्य मनकुमारी श्रमको व्याही गई। दोनों गजकुमार सानन्द कालक्षेप करने लगे। गम और लालमण राजा दशरथ बंट ये : दशरथने वृद्धा वस्थाको माया देखकर अपना आत्महित वनवास करना चाग. वह संमाम्मे विरक्त हुये। ज्येष्ठ पुत्र गमचंद्र थे। उनमें ही गनपद मिलना था। भारतकी माता ध्यान भी यह बात मुनी । वह गजा दशरथके पास गई और उन्हें मुनि - दीक्षा लेने से रोकने लगी; परन्तु दशरथ महागजके दिल३५ वाग्यका गाढा रंग चढ़ गया था। कैकयीकी बात उनको नहीं रुची। नब केकयीने अपनी बात कही। एक दफा युद्धमें कैकयीकी वीरतापर प्रसन्न होकर दशरथने उसे एक वचन दिया था। केकयाने वहीं वचन पूरा करनेके लिये दशरथसे प्रार्थना की। दशरथ मार्य राजत्व भादर्श थे। उन्होंने रानीसे कहा, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] संलित जैन इतिहास 'खुशीसे जो चाहो मांगलो।' की प्रमन्न हुई। उसने कहा कि 'भरतको गन्य दीजिये और गमचन्द्रको वनवास ।' दशरथ यह सुनकर दंग रह गये। गनीका हट था और वह स्वयं वचनबद्ध थे। मोयीने माँगा वह उन्हें देना पड़ा। पान्तु इस घटनाने उन्हें ऐमा ममोहन किया कि वह अधिक समय प्रावित न रहे। तत्काल ही घर छोड़कर मुनि रोगये। भग्न गजा हुये. गमचन्द्र वनवामी बने । वनवास रामचन्द्रजीके साथ उनकी पत्नी मीता और उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी थे। वे दोनों बनवासमें दक्षिण भार. गमचन्द्रमोके दुम्ब मुखमें बराबर तका प्रवास। माथी रहे । भानको म' रामचन्द्रमे अत्यधिक प्रेम था। वह भावप्रेममे प्रेरित होकर उन वापिस लौटा लाने के लिये वनपे गये, परन्तु गमचन्द्रने उनकी बात नहीं मानी । बल्कि बनमें ही अपने हाथमे उनका राज्याभिषेक कर दिया । भरन अयोध्या लौट माये । गम, लक्ष्मण और सीता आगे बढ़े। मालवाक र जाकी उन्होंने सहायता की और उसका राज्य उमे दिलवा दिया। मागे चलकर बाल्पखिल्ल नरेशको उन्होंने विध्यारवीक म्लेच्छोसे छुड़ाया। वह अपने नलकू. बर नगरपे जाकर राज्य करने लगा। मेच्छ सरदार गैद्रभून उसका मंत्री और सहायक हुमा। इस प्रकार एक गज्यका स्टार करके राम-लक्ष्मण बागे चले मोर ताप्ती नदीके पास पहुंचे। वहाँ एक बझने नारायण-बलभद्रके मम्मानमें एक सुन्दर नगर रचा, जिसका नाम रामपुर क्सा । यहाँसे चले तो वे विजयपुर पहुंचे । लक्ष्मण Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राम कक्ष्मण और रावण । [ ४२ वियोग में तड़फती वहांकी राजकुमारी वनमाला उन्हें पाकर अति प्रसन हुई। लक्ष्मणके समागमसे उसके प्राण बचे। यहांसे रघुकुलका अपमान करनेवाले नन्द्यावर्तके राजाको दण्ड देने के लिये राम और लक्ष्मण गए। वह राजा उनसे परास्त होकर मुनि होगया । रामलक्ष्मण वंशधर पर्वतके निकट वंशस्थत नगर में पहुंचे । 1 उस पर्वतपर रातको भयानक शब्द होते थे, जिसके कारण नगर निवासी भयभीत थे। साहसी भाइयोंने उस पर्वतपर रात विताना निश्चित किया । वे परोपकार की मूर्ति थे-लोकका कल्याण करना उन्हें अभीष्ट था । शतको वे पर्वतपर वह वहां साधु युगलकी वंदना की। उन साधुओंपर एक दैत्य उपसर्ग करता था. इसी कारण भयानक शब्द होता था । राम और लक्ष्मणने उस दैत्यका उपसर्ग नष्ट किया। उन दोनों मुनिगनोंकी उपसर्ग दूर होते ही केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । उनका नाम कुलभूषण और देशभूषण था। बद्राप्रांतीय कुंथलगिरि पर आज भी इन मुनिराजोंका स्मारक विद्यमान है । रामचंद्र जी ने भी उनके स्मारक स्वरूप वहां पर कई जिनमंदिर बनवाये थे I वहांसे आगे चलकर रामचन्द्रजी दण्डकारण्य में पहुंचे । उस समय तक वह मनुष्यगम्य नहीं था परन्तु रामचन्द्रजीके साहसके सामने कुछ भी अगम्य न था । वह उसमें प्रवेश करके एक कुटिया बनाकर रहने लगे। वहीं उन्होंने दो चारण मुनियोंको माहारदान दिया. जिसकी अनुमोदना एक गिद्ध पक्षीने भी की। राम लक्ष्मणके साथ रहकर वह श्रावकाचार पाळने लगा | रामने इसका नाम जटायु स्क्वा । दण्डकबनमें मागे घुसकर राम और लक्ष्मणने कौंचबा नदी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४) संलित जैन इतिहास । पार की और वे दण्डकगिरिके पास जाकर ठहरे। वहां उन्होंने नगर बसाकर रहना निश्चित कर लिया था। इसका अर्थ यह होता है कि वे वहां अपना उपनिवेश स्थापित करके रहना चाहने थे । किन्तु वहां एक अघटित घटना घट गई। लक्ष्मणके हाथमे धोखेमें खरदूषण के पुत्र शम्बुकी मृत्यु होगई । खरदुषणने राम-लक्ष्मणसे युद्ध ठान दिय! । गवणका यह बहनोई था। उमने उसके पास भी सहायता के लिये समाचार भेज दिये । राम और लक्ष्मण नर-पुंगव थे। वे इस भापत्तिको देखकर जरा भी भयभीत नहीं हुये। गम युद्ध के लिये उद्यत हुये, परन्तु लक्ष्मणने उन्हें जाने नहीं दिया। वह स्वयं युद्ध लड़ने गये मोर कह गये कि यदि मैं सिंहनाद करूं तो मेरी सहायताको भाइये । राम और लक्षमण वीर पुरुष थे उनका पुण्य अक्षय था। स्वग्दषणका शत्रु विगधित उनकी सहायता करने के लिये स्वयं मा उपस्थित हुआ। खादृषण का माशा नरोला लंकाका राजा रावण था। रावणने तीनखंड पृथ्वीको जीतकर अपना पौरुष प्रगट रावण। किया था। वह बड़ा ही कर परन्तु पगक्रमी था। उसने अनेक विद्यायें सिद्ध की थी। कह गबस नामक विद्यापक राजवंशका पाणी था। ममुग्संगीत नगरके राजा मयकी पुत्री मन्दोदरी रावण की पटरानी थी। गवणने दिग्विजयमें दक्षिणमारतके देशोंको भी अपने भाषीन बनाया था। रावणके सहायक हेहब, टंक, किहिकध, त्रिपुर, मलय, हेम, कोल मादि देशोंके राजा थे। रावण अपनी दिग्विजय विंध्याचलपर्वतसे Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राम लक्ष्मण और रावण ! [४३ होता हुआ नर्मदा तटपर आया था और वहां डेग डाले थे। वह निनेन्द्रभक्त था . इस संग्रामक्षेत्र में भी वह निपूजा करना नहीं भूलता था। रावणने जिस स्थानपर पड़ाव डाला था, वहांसे कुछ दुर्गपर माहिती नगरीका जा सहस्राहिम जलयंत्रो दाग मल बांधकर प्रानी गनियों माहित क्रीडा सहया: अकस्मात् बंधा हुभा जल टूट गया और नर्मदाम बढाबाद आनमे गवणकी पूजामें भी विघ्न पड़ा। रावणने सहमा यमको पकड़ने के लिये आज्ञः दी। रावणक योद्धा चले और वायुयानों में युद्ध करने लगे, जिसे देवोंने अन्याय बनाया, क्योंक महाश्मि मृमगाची था, उसके पास वायुयान ही थे * हटात गवणक योद्ध! पृथ्वापा माये और सहस्राहिम युद्ध करने लगे। महमामि मा वीरताम लड़ा कि गवणकी मेना एक योजन पीछे भाग गई। ____ यह देम्बका गवण स्वयं युद्ध क्षेत्रमें .या। उसके आने ही संग्रामका ११! पलट गयः । उसने महम्रा रिसको जीना पकड़ लिया किन्तु मुनि शतबाहुके कहनेमे गवणने उन्हें छोड़ दिया और अपना महायक बनाना कहा, परन्तु वह मुनि हागये। उम दिग्विजयमें गवण जहां जहां जाता वहां वहां जिनमंदिर बनाना था, अथवा उनका जीर्ण कगता था और मिकों को दण्ड तथा दरिद्रियोंकी दाम देकर मंतुष्ट करना था। दक्षिण भारतो. पूढी पर्वत श्रादि * इससे स्पष्ट है कि गरुण भागनका निवासी नहीं था, उसकी लंका भारतवर्ष के बाहर कही थी, यह अनुमानित होता। विशेषके लिये भगवान पार्षनाथ' नामक पुस्तक देखिये। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४) संक्षिा मेन इतिहास। स्थानोपर उसने जिन मूर्तियां स्थापित कराई थी x इस प्रकार गवणने अपना प्रताप चहुंओर छिटका रखा था । खरदूषणने उसको अपनी महायता के लिये बुलाया। और वह माया भी। मार्ग आने हुये गवणने मीताको देम्वा । वह उसके रूप-मौन्दर्यपर मुग्ध होगया । धोखा देकर वह मीताको हरकर लंका लेगया । राम और लक्ष्मण जब युद्धमे लौटे तो उन्होंने मीताको नहीं पाया । वे उनके वियोग माकुल-व्याकुल होगये और उनकी तलाशमें बन. बन मटकने लगे। बाली द्वीपमें बानग्वंशी विद्याधर गजा रहते थे। उनके वंशज ___ वहांसे राज्यच्युत होकर दक्षिण भारतमें मा राम-रावण युद्ध । रहे । मिष्किन्धापुर उनकी राजधानी थी। तब वहां मुग्रीव नामका राजा गज्य करता या । रामचंद्रने उसकी सहायता करके उमे अपना मित्र बनाया । सग्रीवने मीताका पता लगाने के लिये शाथ ही और वह उस कार्यमें सफल हुआ। राम और लक्ष्मणको पता चल गया कि सीता गव. के यहां लंका है । लक्ष्मणन दक्षिण भारतकी कोटिशिलाको घुटनोंतक उठाकर अपने मतुल बलका परिचय विद्याधा रानामों को दिया, जिससे वे रामका साथ देकर रावणसे लड़ने के लिये तत्पर होगये। भब हनुमानजीको सीताके ममाचार लेने के लिये मेजा गया। वह दक्षिण भारत महेन्द्र पर्वतमामे होकर लंका गये थे। वहां xकर. ५-५-१ - - Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राम लक्ष्मण और रावण। [४९ पहुंचकर मीताजीसे मिले मोर गवण एवं उसके परिजनोंको सम. झाया; पान्तु रावणने एक न मानी। हनुमानजी लौटकर रामके पास माये और सब ममाचार कह सुनाये । इमपर राम और लक्ष्मणने रावणपर माक्रमण किया और भयानक युद्ध के उपरान्त लक्ष्मणके हायसे रावणका बध हुआ । मीना गमको मिली। लंकाका राज्य विभीषणको दिया गया। गम, नमण और सीता वनवासका काल व्यतीत करके अयोध्या लौट भाये । गम गजा हुये और सानंद राम और लव-कुश । राज्य करने लगे। भग्न मुनि होगये। ___गमने सीताको घरमें वापस रख लिया, इम बातको लेकर प्रजाजन वन होने लगे। इस पर रामने सीताको वनवासका दंड दिया । मीना गर्भवती थी, वनमें असहाय खड़ी थी कि पुण्डरीकपुरके वनजंघ गजाने उमकी सहायता की । वह माताको अपने नगर लिया गया और धर्मभगिनीकी तरह उसे रक्खा। वहां सीताक लव और कुश नामक दो प्रतापी पुत्र हुये। युवावस्था प्राप्त करके यह दिग्विजय करने के लिये निकले । पोदनपुर मजाके साथ इनकी मित्रता होगई और ये उसके साथ भनेक देश देशांतरोंको विजय करने में सफल हुए । मांध्र, केग्ल, कलिंग मादि दक्षिण भारत के देशोंको भी इन्होंने जीता था, परन्तु अयोध्या तक वह नहीं पहुंचे थे। नारदने गम सक्ष्मणका वृतांत दोनों माइयोंसे कहा, जिसे सुनकर वे क्रोधित हो उनपर सेना लेकर चढ़ गये । पिता-पुत्रोंका युद्ध हुमा, किन्तु क्षुल्लक सिद्धार्थने उनमें Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिम जैन इतिहास। परस्पर मंधि कगदी। लव कृश भयोध्या में पहुंचे। सीताकी ममि परीक्षा जिममें उनकी सहायता देवोंने की । गमनं मीनासे घर चलनकी प्रार्थना की, परन्तु उन्होंने उसे अस्वीकार किया और पृथ्वीमनि आयिकाके निकट मावी होगई। माध्वी मानाकी वन्दना गम लक्ष्मणने की। इस प्रकार दक्षिण भारतमे मम और लक्ष्मणका मम्पर्क था: राजा ऐलय और उसके वंशज । भगवान मुनिसुव्रतनाथजीके ममयमें सुबतक पुत्र दक्ष नामके राजा हुये थे । यह हरिवंशी क्षत्रिय थे। उनकी गनीका नाम इला था। उनमे गजा दक्षके एलेय नामका पुत्र बोर मनोहग नामक पुत्री हुई थी। पुत्री भनिशय रूपवती थी। गजा दक्ष स्वयं अपनी पुत्रीपर भासत थ! : उसने धर्ममर्यादाका लोर करके मनोगको अपनी पत्नी बना डाला ! इसका दुष्परिणाम यह हुमा कि दक्षक विरोधी म्वयं उसके परिजन होगये । गनी इसा अपने पत्र लयको सरदारों महन ले विदेशको चल दी अनानिपूर्ण । ज्यमें कौन है ? दुर्ग देशमे रहुं नकर उन्होंने इ. पदननगर यमाया और वहां हो ये रहें। भार कसा - :: न्याय वह नर्मदातट पर आया। वहां उसने माहिष्मती नगरीका नीबागेपण किया। वहीं उसकी * उपु. पर्व ६७ व प्राबर मा. २ पृ० ५०-१५० । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ऐसेच और उसके बैंशन। [४७ राजधानी गी । कई देशोंको जीतकर ऐलेयने धर्मराज्य कया। वृद्धावस्था में वह अपने कुणिम नामक पुत्रको राज्य देकर तपके लिये बनमें चला गया। शत्रुनोंकी संताप देनेवाले राजा कुणिमने विदर्भदेशमें वरदा नदीके किनारे एक कुंरिनपुर नामका नगर बसाया । कुणिमके पश्चात् उनका पुत्र पुलोम गजा हुमा, जिसने पोलामपुर नामका नगर बसाया । इनके पोलोम और चम्म नामक दो पुत्र थे। पुलोमके मुनि होनेपर वे ही गजा हुये। उन्होंने कई गजाओंको जीता था। दोनोने मिलकर रेवानदी के किनारे इन्द्रपुर बमाया और चरमने जयन्ती और वनवास नामक दो नगर प्रथन बसाय । उपन्त काल में यह दोनों नगर दक्षिण भाग्नक इतिहासमें खूब ही प्रसिद्ध हुये थे। राजा चम्मका पुत्र संजय और पौलोमका महीदत्त हुआ। उनके उपगम्न वे ही ज्याधिकारी हुये : महतने कल्पपुर बसाया। अरिष्टनमी और माम्य ये दो उनके पुत्र थे। गजा मत्स्यने भद्रपुर और हम्निनापुरको मान लिया और वह मिल नापुर पाकर गज्य करने लगा था। श्रत अयोधन नामका गजा हा. जो मानान 4 रगी '। इन्हा नियमान . . . . कमी ... ....... ...... 21 को कम्नाद . . . . . . . .ई। गजा अभिचन्द्रका विवाद प्रबंशम उत्पन्न नी वसुमतीसे हुमा था। इन्हींका पुत्र बसु था; निमन जिहालम्पटना वस हो 'मब' बन्दका अर्थ 'शालि' न बताकर बकम' बताया पौर महोंने Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] संमित जैन इतिहास। हिंसाको ध्यान दिया था। इस प्रकार दक्षिणापथके एक प्राचीन नगरसे वेदोंमे हिंसक विधानोंको स्थान मिला था जैसे कि पहले भी लिखा जाचुका है। राजा वसुके पुत्र सुवमु और वृदध्वज वहां न गह सके । सुवमु भागकर नागपुग्में जारहा और बृहदध्वज मथुरामें मा बसा ! बिसके वंशमें प्रतापी राजा यदु हुमा था।* कामदेव नागकुमार। कनकपुरके पास राजा जगन्धा थे। उनकी एक रानी विशा. लनेत्रा थी, जिससे उनके एक पुत्र श्रीधर नामका था। एक रोज जगन्धर गजासे किसी वणिकने आकर कहा कि सौराष्ट्रदेशस्थ गिरिनगर के राजाकी पृथ्वीदेवी नामकी कन्या अति सुन्दरी है, जिसे बह राना उन्हें व्याहनेके लिये उत्सुक है । जयन्धर यह समाचार सुनकर प्रसन्न हुमा और उनका विवाह पृथ्वीदेवीके साथ होगया। कालान्तरमें रानी पृथ्वीदेवी के एक महा भाग्यशाली और परम रूरवान पुत्र हुआ, जिसका नाम उन्होंने प्रजाबंधु रक्खा । किन्तु उस नवजात शिशुके साथ एक अदभुत घटना घटित हुई। वह किमी तरह राजधायक हाथोंमे निकलकर नागलोगोंकी पल्ली में जा पहुंचा। नाग-सरदारने उस शिशुको बड़े प्यारसे पाला, पाषा और उस शस्त्रास्त्र में निष्णात बना दिया। भारतीय साहित्यमें इन नाग. लोगोंका वर्णन अलंकृत रूपमें है। उसमें इनको वापियों और कुमोचे *हरि. सर्ग १७ संभवत: निजाम राज्यका महादुर्ग नामक सान हमपर्वन नगर है। कहते हैं वहांहबारों जिनमतियां बमोदोस्त है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ऐष और उसकेन। [४९ रहते लिखा है तथा इन्हें सर्प अनुमान किया है। वास्तव में इसका माव यही है कि वे मनुष्य थे। विद्वानोंका कथन है कि भारतबकि मादि निवामी भर जातिसे नागलोगोंका सम्पर्क था। उनका सचिह सर्प था और वे ब्राह्मणों को मान्यता नहीं देते थे। एक समय वे सारे मारत ही नहीं बलिक मध्य एशिया तक फैले नर्मदा तटमा उनका अधिक आवास था। उनमें जैनधर्मका प्रचार एक अति प्राचीनकालमे या। तामिल देशके शासकारोंने दक्षिण मारनके प्राचीन निवासियों नाग लोगोंकी गणना की। ऐतिहासिक कालमें नागराजामोंकी कन्याओं के साथ पलाशके रामानों के विवाह सम्बन्ध हुए थे। तामिक देशका एक भाग नाग लोगोंकी अपेक्षा नागनादु कहलाना था। जन पद्म पुगण नागकु. मार विचारों का भी उलब है। गजा जयंघरके पुत्र हनी नाग लोगां एक मरदारके यहां शिक्षित मौर दीक्षित हुए थे । संभव है. इसी कारण उनका अपा. नाम नागकुमार था। उनका मात्र अवश्य नागोंमें रहा था। 'विष्णुपुगण' में नौ नागगजामोमें भी एक नागकुमार नामक थे। परन्तु यह मष्ट नहीं कि वह हमारे नागकुमारसे ममिन्न थे । नाग लोग भाने का मादर्य के लिये प्रसिद्ध थे। मुन्दर कन्याको 'नाग. कन्या' कहना लोकप्रचलित रहा है। नागकुमार मी अपने अलौकिक रूपके कारण सय कामदेव कहंगये है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.] संलित जैन इतिास। दक्षिण भारतकी अन्य राजकन्याओंमे उनका विवाह हुमा प्रगट है, परन्तु पला देशकी गजकन्याओं को उन्होंने नहीं व्याहा था। शायद इसका कारण यही हो कि स्वयं नागकन्यायें पल्लवोंको व्याही गई थी। यह सब बातें कुछ ऐसी है जो नाग लोगोंसे नागकुमारकी धनिष्टनाको ध्वनित करती हैं। होसकता है कि वे नाग वंशज ही हों ।* ____ जो से, युवा होनेपर नागकुमार अपने माता-पिता के पास कनापुर कोट माये और वहां सानंद रहने लगे। किन्तु उनके सौतेले भाई श्रीधरमे उनकी नहीं बनी। भाइयोंकी इस मनानको देखकर राजा जयंधरने थोड़े समय के लिये नागकुमारको दर हम दिया । ज्येष्ठ पुत्र श्रीधर था और उसीका अधिकार राज्यपर था। नागकुमार मथुग जापहुंचा । वहांके राजकुमारों-व्याल और महाव्याळसे उसकी मित्रता होगई । उनके माथ नागकुमार दिग्विजयको गया । और बहुतसे देशोंको जीना एवं गजकन्या भोंको व्याहा। महान्यालके साथ नागकुमार दक्षिण भाग्न किसिन्धमलय देशस्थ मेषपुरके राजा मेघवाहन अनिधि हुए। गजा मेघवाहनकी पुत्रीको मृदंगवादनमें परास्त करके नागकुमाग्ने उसे व्याहा । फिर मेधपुरसे नागकुमार तोपावलीद्वीरको गये। वहांसे लौटकर वह पांड्य देश आये थे। पांच्य नरेशने उनी खूब मावभगत की थी। *नाग लोगों के विषय में जानने के लिये हमारी 'मशन पार्ष. बाप' पुस्तक तथा 'जायकुमार परिउ' (कारंबा)की भूमिका देखिये। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वजारेचोर उसके वन। [५१ उनसे विदा होकर यह मांत्र देश पहुंचे। ऐसे ही धूमते हुने परिसर राजा जयन्धरने उनै बुहा मेजा और उनका राज्याभिषेक कर दिया। नागकुमार राजाधिराब हुवे गौर नीतिपूर्वक मने कामविशेष तक राज्यशासन किया । वृद्धावस्थाके निकर पहुंचने पर न्होंने राज्यमार अपने पुत्र देवकुमारशे मौंषा गौर सवं दिगम्बर मुनि से तप तपने बगे। व्यास, महाव्याल, भरेव और मछेय नामक राजकुमागेंने भी उनके साथ मुनिवत पाप किया था। तपकरण द्वारा कर्मोका नाश करके वे पांचों ऋषिकर मापद नामक पर्वतसे मोक्षधाम सिफर थे। Page #72 --------------------------------------------------------------------------  Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । ( भाग ३ खण्ड १ ) ऐतिहासिक काल । (प्राचीन खण्ड) दक्षिण भारतका इतिह Page #74 --------------------------------------------------------------------------  Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका ऐतिहासिक-काल। (प्राचीन खण्ड) मारतवर्ष के इतिहासका प्रारम्भ कबसे माना जाय ? यह एक ऐसा प्रश्न है कि जिसका ठीक उत्तर भारतके इतिहासका माजतक नहीं दिया जासका है। विद्वाप्रारम्भ। नोंका इस विषयपर भिन्न मत है। भार तीय विद्वान मार्य सभ्यताकी जन्मस्थली भारतभूमि मानने है और उसके इतिहासका आरम्म एक कल्पना. तीत समय से करते हैं। जैन शाम्ब मी इसी मतका प्रतिपादन करते हैं, किन्तु उनके कथनमें यह विशेषता है कि वे भारतभमिका मादि धर्म जैनधर्म और प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव द्वारा संस्थापित सभ्यताको मादि सभ्यता प्रगट कान है। जैन शामोंके इस कयनका समर्थन माधुनिक प्रतिहामिक खोजसे भी होता है। प्रो० हेल्मुख फॉन कामन मा युगपीय विद्वान जैनधर्मकी ही मारतका सर्व प्राचीन धर्म घोषित करने हैं।' उधर मातीय पुरातत्वसे यह स्पष्ट है कि वैदिक (ब्राह्मण, भायोंके मतिरिक्त और उनसे पहले भारतवर्ष एक सभ्य और संस्कृत जानिक लोग निवास करते थे। वे लोग अमुर, दाविड, नाग मादि नामोसे विख्यात थे और उनमें जैनधर्मका प्रवेश एक मत्यंत पाचीनकालमें ही होगया था। बनोंके प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषमदेव मुर, मसुर, नाग नादि द्वारा 1-Dor Tuinismus Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | पुजित प्राचीन जैन शास्खोंमें कहे गये हैं।' और यह हम पहले ही देख चुके हैं कि भारत के आदि निवासी असुर ही वैदिक नायसे प्राचीन मनुष्य हैं जो भारतवर्ष में रहते थे। सिंधु उपत्ययकाकी सभ्यता उन्हीं लोगों की सभ्यता थी और वहांकी धर्मउपासना जैन धर्मसे मिळती जुळती थी । किन्तु इस मान्यता के विरुद्ध भी एक विद्वत्समुदाय है, जिसमें अधिकांश भाग यूरोपीय विद्वानोंका है। वे लोग भारतको बायका जन्मस्थान नहीं मानने । उनका कहना है कि वैदिक मार्य भारतमें मध्य एशिया माये और उन्होंने यहाँ के असुर दास बादि मूल निवासियोंको परास्त करके अपना अधिकार और संस्कार प्रचलित किया । इस घटना को वे लोग आजसे लगभग पांच है हजार वर्ष पहले घटित हुआ प्रगट करते हैं और इसमें भारतीय इतिहासका प्रारम्भ करते हैं । किंतु सिन्धु उपत्ययकाका पुरातत्व भारतीय इतिहासका आरम्भ उक्त घटनामे दो-चार हजार वर्ष पहले प्रमा . १ - 'सुर वसुर गरुक गहिया, चइयरुस्वा जिणवण ॥६-१८॥॥ - ममवायानसूत्र । " एस सुसुग्म्णुसिंद, बंदिदं चांदवाइकम्मम । पणमामि दाणं, तित्यं धम्मस्स कसा ॥ १ ॥ " प्रवचनसार । कर्मान्तक महावर सिद्धार्थकुलसंभवः । पते सुसुगैघेण पूजितान् ॥ १ ॥ देशः गुरुपूजा | २० पृ० ४-२५. ― Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काळ । [ ५७ णित करता है। हां, वह अवश्य है कि उस समयका ठीक हाल हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। उसको ढूंढ निकालने के लिये समय और शक्ति अपेक्षित है। किंतु यह स्पष्ट है कि भारतीय इतिहासका जो मादिकाल योरुपीय विद्वान मानते हैं वह ठीक नहीं है। यह तो हुई समूचे भारतके इतिहासकी बात; परन्तु हमारा मम्बन्ध यहां पर दक्षिण भारत के इतिहास से दक्षिण भारतका है । हमे जानना है कि दक्षिण भारतका इतिहास | इतिहास कब आरम्भ होता है, और उसमें जैनधर्मका प्रवेश कब से हुआ ? यह तो प्रगट ही है कि दक्षिण भारत समूचे भारतमे प्रथक नहीं था और हम दृष्टिमेजबान उत्तर भारत के इतिहास से सम्बद्ध है वही बात दक्षिण भारत के इतिहास का होना चाहिये यह कथन ठीक है और विद्वान यह प्रगट भी करते हैं कि एक समय मा माग्नमें वे ही दाविड़ लोग मिळते थे जो उपरांत दक्षिण भारत में ही शेष रहे किंतु दक्षिण भारतकी अपनी विशेषता भी भाष ग्णतः । वह उत्तर भाग्नमे अपना प्रथक् अस्तित्व भी रखता है और वहां हो बाज प्राचीन भाग्नके दर्शन होते हैं। मैसूरके चन्द्रदल्ली १ - ०६३०, पृष्ट २३ - "Step by step the Dravidians receded from Northern India, though they never left it altogather." 2-"India, south of the Vindhyas - the Peni• asular India-still continues to be India proper. Here the bulk of the people continue distinctly Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] संक्ति मेन इतिहास। नामक स्थानमे मोहन मोदडो जैसी और उतनी प्राचीन सामग्री उपलब्ध हुई । बस, जब हम उसके स्वतंत्ररूपये दर्शन करते है और उसके इतिहासका प्रारम्भिक काल टटोलते हैं तो वहां भी धुंधला प्रकाश ही मिलता है। विद्वानोंका तो कथन है कि दक्षिण भारत के इतिहासका यथार्थ वर्णन दुर्लभ है। सर विन्सेन्ट स्मिथने लिखा था कि 'दृरवर्ती दक्षिण भारत के प्राचीन राज्य यद्यपि धनजन सम्पन्न भौर द्राविड़ जातिक लोगोंसे परिपूर्ण थे, परन्तु वे इतने अप्रगट थे कि शेष दुनियां को स्वयं उत्तर भारतके लोगोंको उनके विषयमें कुछ भी ज्ञान न था। भारतीय लेखकोंने उनका इतिहास भी सुरक्षित नहीं किया। परिणामतः भाज वहांका ईस्वी माठवीं शनान्दिसे पहले का इतिहास उपलब्ध नहीं है।'' एल्फिन्सटन सा० to retain their pro-Aryan features ; their preAryan languges, their pre-Aryan institutions." -Pillai's Tamil Antiquities. जैनशास्त्र में भी कहा गया था कि इस काल में दक्षिणभरतमें हो जैनधर्म जीवित रहेगा। क्या या उसके प्राचीन रूपका यातक है? 9-"The ancient kingdoms of the far south, although riob and populous, inhabited by Draridian nations......were ordinarily 80 secluded from the rost of the civilisod world, including northern India, that their affaire romained hidden from the eyes of other nations and native annalists being looking, their history provious to the year 800 of tho ohristian ora, has almost wbolly perished....... -EEL p. 7. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काल। [५९ ने पर लिखा था कि प्राचीनकालमें दक्षिण भारतकी राजनैतिक घटनाओं का सम्बन्धित विवरण लिखा ही नहीं जासकता । माज भी यह कथन एक हदसक ठीक है। पान्तु इस दरमियानमें जो ऐतिहासिक खोज और अन्वेषण हुये हैं, उनके आधाम्मे दक्षिण भारतका एक क्रमबद्ध ऐतिहासिक विवरण ईस्वी प्रगम्मिक शताब्दियोंसे लिखा जा सकता है। किंतु वह समय दक्षिण भाग्नके इतिहासका माम्म-काल नहीं कहा जा सपना । मले ही ईवी पूर्व शताब्दियोंके दक्षिण भारतका क्रमबद्ध विवरण न मिले, परन्तु उसकी सम्यता और संस्कृतिके अस्तित्व नौर अभ्युत्थानका पता बहुत ममय पहले तक चलता है। मिधु उपत्यकाका पुमतत्व और वहांकी मभ्यता द्राविड़ मभ्यसामे मिलती जुन्नी श्री चन्द्रालीका पगनत्व इसका पक्षी है। सुमेरु जातीय लोगोंमे भी द्राविड़ोंक! माश्य था । मोर यह मुमेरु लोग सिंधुसुवर्ण अथवा मिंधु सुवीर देशके मूल अधिवासी थे । सु-गष्ट्र या सौगष्टमे ही जाकर वे मेमोपाटमिया भादि देशम बस गये थे। गुजगत के मैनी वणिक इस मु-वर्ण नानिक ही वंशज मनुमान किये जाने हैं। सिंधु, सुमेरु और दाविड़-इन नीनों जानियों की सभ्यता और संस्कृतिका सादृश्य उन्हें सम-सामायिक सिद्ध करता है। इसलिय द्राविड़ देश अर्थात् दक्षिण भारतका इतिहास उतना ही पाचीन है जितना कि सुमेरु जातिका है, बल्कि संभव तो यह १-Ibid. २-मोद० मा. १ पृ. १०९। ३-विमा. मा. १८५ पृ. १३१। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचित न इतिहास। है कि वह उनमे भी पाचीन हो क्योंकि सुमेरु लोगोंने भारतसे जाकर मेसोपोटेमियामें उपनिवेशकी नीव डाली थी। महागष्ट्र, निजाम हैदराबाद और मद्रास प्रान्त ऐसे प्राचीन स्थान मिळत हैं जो प्रग ऐतिहासिक काल के अनुमान किये गये हैं और वहांपर एक मन्यंत प्राचीन समयके शिलालेख भी उपलब्ध हुये है। यह हम बात के सबूत हैं कि दक्षिण भारतका इतिहास ईस्वी प्रारम्मिक शनानियोंमे बहुत पहले आरम्भ होता है। उपर प्राचीन साहित्य भी इसी बानका समर्थक है। तामिळ माहित्यके प्राचीन काव्य · मणिमेखले' और ' मीनप्पदिकारम् ' में एवं प्राचीन व्याकरण शाल योनप्पकियम् ' में दक्षिण भारतके खूब ही उन्नत और समृद्धिशाली रूपमें दर्शन होने हैं और यह समय ईसासे बहुत पहले का था । अतः दक्षिण भारत के इतिहासको उत्तर मात जितना प्राचीन मानना ही टीक है ! अब जग यह देखिये कि दक्षिण भारतमें जैनधर्म का प्रवेश करमा ? इस विषय में जैनियोंका दचिण भारतमें जो मत है वह पहले ही लिखा जानुका जैनधर्मका प्रवेश। है। उनका कथन है कि भगवान ऋष. भदेवके समयमें हो जैनधर्म दक्षिण भारतमें पहुंच गया था। उपर हिन्द पुराणों की मक्षी आषारसे हम यह देख ही चुके हैं कि देवासुर संग्रामके समय अर्थात् उस प्राचीन कालमें जब भारत म निवामियों में ब्राह्मण आर्य मानी वैदिक सभ्यताका प्रचार कर रहे थे, जैनधर्मका केन्द्र दक्षिण पथके नर्मदा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतत्र ऐतिहासिक काल। [११ वटपर मौजूद था। जैन मान्यता भी इसके अनुकूल है। उसमें नर्मदा तटको एक तीर्थ माना है मौर वहांमे अनेक जैन महापुरु पोंको मुक्त हुमा प्रगट किया है। वैमे भी हिंद पुराणों में वर्णनमे नर्मदा नटकी सभ्यता अत्यंत पाचीन प्रमाणित होनी है यद्यपि अभी. तक वहांकी जो खुदाई हुई है उममें मौर्यकाल में प्राचीन कोई वस्तु नहीं मिली है। होसक्ता है कि नर्मदा तरका वह केन्द्रीय स्थान ममी अप्रगट ही है कि जहां उसकी प्राचीनताकी घोतक अपूर्व सामग्री भूगर्भ में सुरक्षित हो। मागंश यह कि जैन है नहीं बलिक प्राचीन भारतीय मान्य. तानुसार जैनधर्म का प्रवेश दक्षिणभारतमे एक मत्यन्त प्राचीनकालमे प्रमाणित हाता हैपरन्तु माधुनिक विद्वजन मौर्यकाल में ही जैन धर्मका प्रवेश दक्षिणमाग्नमें हुमा प्रस्ट करने हैं। वे कहते हैं कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य गुरु श्रुनावली भद्रबाहुन जब उत्तरभारतमें बारहवर्षका अकाल होता जाना तो वे मंघ सहित दक्षिणमाग्नको चले. माये और उन्होंने ही यहां की जनताको जैनधर्ममे सर्व प्रथम दीक्षित किया। इसके विपरीत कोई कोई विद्वान जैनधर्मका प्रवेश दक्षिणभारतमें इसमें किंचित् पहले. प्रगट करते हैं। उनका कहना है कि जब लंका जैनधर्म इस घटना में पहले अथांन इम्बीपूर्व पांचवी शतानि ही पहुंचा हुआ मिलना है तो कोई वजह नहीं किब १-नवग्रह परिष्ट निवारक विधान पृ०४१। २-'सरखती' भाग ३८ क १ पृष्ठ १८-१९ । ३-मरिई. पृ. १५४, ई, पृ. १६५, लि, पृ. १८॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षित जैन इतिहास। उमका अस्तित्व दक्षिणमारतमें न माना जावे।' आन्ध्रदेशमें जैन धर्म पाड़ मौर्यकाल में प्रचलिम इसा पमट किया ही जाता है।' किन्तु हमारे विचाम्मे जैनधर्मका प्रवेश हम कालमे भी बहुत पहले दक्षिण माग्नमें होचुका था। उपरोक्त मक्षिक अनिरिक्त प्राचीन जैन और मामिल साहित्य तथा पुरातत्व इस विषयमें हमाग समर्थन करने हैं। पहले ही भैन साहित्यको लीजिये : उममें बगवर श्री ऋषभदेवके ममयमे दक्षिणभारतका उल्लम्ब मिलना है, जैसे कि पौराणिक काल के वर्णनमें लिम्वा जाचुका है। और आगेक पृष्टोमें और भी लिखा जायगा। सचमुच जैनोंको लक्ष करके जैन ग्रंथोंमे दक्षिणभाग्नके पल्लवदेश, दक्षिणम. 1-"If this information (of the 'Mahavamsa') could be relied upon, it would mean that Jainism was introduced in the island of Ceylon, so carly as the fifth century B. C. It is impossible to conceive that a purely North Indian religion could have gone to the isla:df Ceylon without leaving its mark in the extreme south of India, unless like Buddhism it went by sea from the north. "-Studies in South Indian Jainism, -Pt. I p. 33. २-Jainism in the Andhra desh, at least, " was probably pre-Mauryan......" -Ibid., Pt. II. p. 2. ३-१• पृ० ६.९। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमिन मारतका ऐतिहासिक काल। [. थुग, पोलासपुर,' महिले. महामोकनग! इत्यादि स्थानोंच बाचीन वर्णन मिलना है। दक्षिणमथुराको स्वयं पाण्डवोंने बसाया था। पल्लबदेशमें भगवान मरिष्टनेमिका विहार हुआ था, जैसे कि हम मागे देखेंगे। वे ऐसे उल्लेख है जो दक्षिणमारतमें जैनधर्मके मस्तित्वको भदबाहु मामीसे बहुत पहलेका प्रमाणित करते हैं। यही बात सामिल माहित्यमे सिद्ध होनी है। मामिल माहि. त्यमें मुख्य ग्रन्थ " मंगम-काल " के हैं, जिसकी निथिक विषयमें मित्र मत हैं। माग्नीय पंडिल उस कालको ईम्बीनमे हजारों वर्षों पहले लेजाने है किन्तु माधुनिक विद्वान् ठमे ईम्सीमन में चार-पांचो वर्ष पहले ईबी प्रथम शताब्दितक अनुमान कान है। यह जो भी हो, पर इनना तो स्पष्ट की है कि 'संगमकाल' के ग्रंथ प्राचीन और प्रमाणिक हैं। इनमें नोल्कापियम' नामक ग्रन्थ सर्व प्राचीन है। इसका रचनाकाल ईम्वीपूर्व चौथी शतादि बनाया जाता है और यह भी कहा जाता है कि यह एक जेन रचना है। इसका स्पष्ट बर्ष यही है कि जैनधर्मका प्रचार तामिलदेशमें मौर्यशाम पहले होचका पा। तामिलके प्रसिद्ध काव्य मणिमेस्ले' और • मीलप्पतिकारम' हैं और यह क्रमशः एक बौद्ध और जैन लेखसकी ।चनायें है। इनमें अनधर्मका खास वर्णन मिलता है। बौद्धकाव्य मणिमेखले से १-जातृधर्म कथांग सूत्र पृ० ६८० व पु. पृ० ४८७ । २-तगडदशांग सूत्र पृष्ट २२ । ३-जन्तगरदशांग सपृ० ११ । ४-मगवती पृष्ठ १९९८ । ५-बुस. ( Budhistic Studies ) पृष्ठ ६७१। ६-गुल्ट०, पृ. ६७४ को बसाईमा० १.८९ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१] संमिशन इतिहास। स्पष्ट है कि उसके समय जैनधर्म वामिल देशमें गहरी जड़ पकड़े हुवे था। वहां जैनियों के विहारों और मठोंका वर्णन पदपदपर मिलता है। जनता भैन मान्यताओंका घर कर जाना उसकी बहु प्राचीनताकी दनक है।' मीनप्पदिकारम्' भी इसी मतका पोषक है।' उपलब्ध पुगतत्व भी हमारे इस मतकी पुष्टि करता है कि जैनधर्म दक्षिण भारतमें एक अत्यंत प्राचीनकालमें पहुंच गया था। जैन ग्रन्थ करडु चरित' में जिन तेगपुर घागशिव आदि स्थानोकी जैन गुफाओं और मूर्तियों का वर्णन है, वे आज भी अपने प्राचीन रूपमें मिलती हैं। उनकी स्थापनाका समय म० पार्श्वनाथ (ई० पृ० ८ वीं शताब्दि ) का निकटवर्ती है। इसलिये उन गुफामों और मूर्तियोंका मस्तित्व दक्षिण भारतमें जैनधर्मका मस्तित्व तत्कालीन सिद्ध करता है। इसके अतिरिक्त मदुग और रामनद जिलोंमें ब्राह्मी लिपिक प्राचीन शिलालेख मिलते हैं। इनका समय ईस्वी पूर्व तीसरी शतादि अनुमान किया गया है। इनके पास ही जैन मंदिरों के अवशेष गौर तीर्थकरोंकी खंडित मूर्तियां मिली हैं। इसी लिये एवं इनमें मंकित शब्दोंके भाषारसे विद्वानों ने इन्हें जैनोंका प्रगट किया है।' इसके माने यह होते हैं कि उम समयमें जैनधर्म वहांपर अच्छी तरह प्रचलित होगया था। मगरमले ( मदुग) एक प्राचीन जैन १-गुस्ट, पृ. ३० ६८१ । २-माई०, पृ. ९३-६४ । ३-अमेरिका, भा. १६ १० सं० १-२ मोर करकण्ड चरेप (कारंबा) भूमिका । ४-साई., मा० १ पृ. ३३-३४। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काल। ६५ स्थान था और वहां ई. पूर्व तीसरी शतारिक लेख पढ़े गये हैं।' इन उल्लेखोंमे भी दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी प्राचीनताका समर्थन होता है। निम्मन्देह यदि दक्षिण भारतमें जैन धर्मका अस्तित्व एक अति प्राचीन काल से न होगा तो मौर्यकाल में श्रुतकेवली भदवाह जैन संघको लेकर वह नाना हिम्मत न करते। हालपे प्रॉ० पाणनाथन काठियावादमे मिले हुये एक प्राचीन तपत्रको पढ़ा है। इसकी लिपि गमन, सिंधु, सुमेर आदि लिपि. योका मिश्रण है। प्रॉ० मा० इम बोलनक गजा ने बुम्दने पर प्रथम (ई० पूर्व ११४०) मयना द्वितीय (ई० पूर्व ६००)का बताने हैं २ उम नाम्र* होने निम्नपार प्राट किया है: बानगा या ३ म, मु.... जातिका देव, मेवश १-जमाम'• . २७ पृष्ट १२३-१.४।। 2-"])r. l'rau Nach, Professor at the Hindu University, Benares, bous licen icble to decipher the corner rate urint of Emperor chucharimezer I (circil 1140 B. C. ) or II (circa 600 B. C.) of Baision. fill recently in Kathiawar. The inscription is of great historical value, and it shows it preculiar mistire of the characters liseid lip the liomalls, The Sintha valley people and the Semiles. It may yo a long way in provine ihe ill.iijiti of ille Jains religion, since the 1 0 of Verlei appears in the inscription." -The Times of India, 19th March 1935, p. 9. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..m..morron mmmmmmm~ मंतिम भन इतिहास। दरजा भाया है। वह यद्गज (कृष्ण) के स्थ न ( द्वारिका) माया है। उसने मंदिर बनवाया. सूर्य ........ नेमि कि जो स्वर्ग ममान रनवन देव है ( उनका ) लये अंग किया।" जैन " भाग :., अक १ पृष्ठ २ । दम गिरनार बन) बना देवा में नमि' का कलेव हमा है और यह प्रगट । है । न का मिनाथ गिरनार (वन पर्वतमे निर्वाण मिवर थे। वह ग्वन पवन देव हैं । माथ हो अन्यत्र यह अनुमान किया गया है कि जातक जेनी वणिक 'मु जातिक' मत: य न प्रयोमा पानी ना मिद्ध कोती है । पस्नु इममें ग्वाम बानमा विपक्ष यह है कि नेश दनेज को रवा नगा व मी कहा है ! इस पनन होता है कि उसका 15। भारतमें न था, वरिवः नग क्षण भारतमें भवति हामता है। प्राचीन प्रारत • निगट' में भारतको दक्षिण में सटा है । होमना है विनगर वही र ह इसमें यह नम्रपत्र दक्षिण पथम मनधर्म व मन प न काल में प्रगट करता है। उपशाम को में ये पहनना अन्. चिरही है कि दक्षा नागने मनऐतिहामिक काल । 'न:* न मानीन __ पाभ होता है। उसके पाग. णि कालका वर्णन पृष्ट में लिखा जाचुधा है। भवन निहासिक ४-वभा. मा० १८ : ६३१। । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका ऐतिहासिक काळ । [ ६७ कालके वर्णन में उसका प्राचीन इतिहास लिखना अभीष्ट है। इसे हम भगवान् मरिष्टनेभिके वर्णनसे प्रारम्भ करेंगे और भ० महावीरके उपरांत उसके दो भाग कर देंगे, क्योंकि सुदूर दक्षिण भारतकी ऐतिहासिक घटनायें विन्ध्याचल के दक्षिणम्थ निकटवर्ती भारतमे भिन्न रही हैं। पहले दक्षिणपथ का ऐतिहासिक वर्णन निम्नलिखित छः कालोंमें विभक्त होता है • (१) आन्ध्रकाल - ईम्बी पांचवीं शताब्दि तक | (२) प्रारम्भिक चालुक्य- (ईवी एवं राष्ट्रकूट काल ( बी १३ व शतक (३) अन्तिम चालुक्य काल - (१० मे १४ श० ) (४) विजयनगर साम्राज्य काल । (५) मुसलमान मराठा काल । (६) और ब्रिटिश राज्य : शताब्दि) इसके अनुसार सुदूरवर्ती दक्षिण भारतके निम्नलिखित है काल होने हैं : - (१) प्रारम्भिक काल - ईस्वी पांचवीं शताब्दि तक | (२) पल्लव काल - ईम्बी व ९ वीं शताब्दि तक | (३) चील प्राधान्य काल ई० व १४वीं शतक | (४) विजयनगर साम्राज्य काल - ई० मे १६ १४ वीं शताब्दि तक | शताब्दि तक | (५) मुसलमान-मराठा काल - ई० १६ व १८ वीं Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षित जैन इतिहास। (६) ब्रिटिश राज्य-(उपगंत) प्रस्तुत प्राचीन खण्ड ' में हम दोनों भागोंके पहले कालों तकका इनिहास लिखनेका प्रयत्न निम्न पृष्ठोंमें करेंगे। अवशेष कालोंका वर्णन आगे खण्डोंमें प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जायगा। आशा है, जैन साहित्य संगार के लिये हमाग यह उद्योग उपयोगी मिद्ध होगा। आरंभिक-इतिहास। भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव । उत्तर भारत के क्षत्रिय वंशोंमें हरिवंश मुख्य था । इस वंशके राजाओं राज्य मथुगमें था. यद्यपि यादव वंश। इनके भादि पुरुष मगधकी ओर राज्य करने थे । हरिक्षेत्रका आर्य नामक एक विदा पर अपनी विद्याधरी माथ अकाशम ग द्वारा चम्पानगामें पहुंचा था। उस समय चमानगर अपने राजाको खोने के कारण अनाथ हो रहा था । विद्य धर मार्य चापाका राजा बन बैठः । उसका पुत्र हरि हुमा, जो बड़ा पराक्रमी था। उसने अपने राज्यका खुब विस्तार किया। उसीके नामकी अपेक्षा उसका वंश · हरि' नामसे प्रसिद्ध हुमा । यद्यपि यह राज लोग विदेशी विद्याधर थे; परन्तु फिर भी उनको शस्त्रकारोंने क्षत्रिय संभवतः इसलिये लिखा है कि विद्याधरोंके भादि राजा नमि-विनमि भारतसे गये हुये पत्रिय पुत्र थे। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव। [६९ धीरे-धीरे इस वंशके राजाओंने अपना मधिकार मगध पर जमा लिया और वहाँ इस वंशमें गजा सुमित्रके सुपुत्र तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ जन्मे थे । मुनिसुव्रतनाथ स्वपुत्र सुव्रतको राज्य देकर धर्मचक्रवर्ती हुये थे । सुव्रतके उपरांत इस वंशमें अनेक राजा हुये और वे नाना देशोंमें फैल गये । उनमें राजा वसुका पुत्र बृहदध्वज मथुर में आकर मन्याधिकारी हुमा और उसकी सन्तान वहां सानंद राज्य करनी रही। नीर्थक्कर नमिके नीर्थ मथुरा के हग्विशी राजामोंमें यदु नामका एक तेजस्वी राना हुआ। यह गजा इनना प्रभावशाली था कि भागे हरिवंश इसी नामकी अपेक्षा यादव वंश ' के नाममे प्रसिद्ध होगया। राजा युदुके दो पाने शूर मौर मुवीर उसीकी तरह पराक्रमी हुये । सुवीर मथुमका गजा : आ और शूग्ने कुशवदेशमें शौर्यपुर बसाकर वहां अपना गज्य स्थापित किया । अंधकवृष्णि मादि इनके भनेक पुत्र थे। सुवीर के पुत्र भोजककृष्ण भादि थे । सुवीरने मथुगका गजय उनको दिया और स्वयं सिंधुदेशमें मोवीपुर बसाकर वहांका गजा हुभा । अंधकवृष्णिके दश पुत्र थे, अर्थात् समुद्रविजय, अक्षयोमय, स्तिमित, सगर, हिमवन, मचल, धरण, पुरण, मभिचन्द्र मोर वासुदेव । इनकी दो बरिने कुन्नी मोर मानी बी, जो पाण्डु और दमघोषको बाही गई थी। कृष्ण वासुदेव जोर देवी के पुत्र के बढी उस समय मादवोंमें पमुम्ब राजा थे। गण्डगज हस्तिनापुर राज्य करते थे, और उनकी सन्तान पाण्डव नामसे प्रसिद्ध थी। कृष्मके माई बलमद थे। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | शौर्यपुर में राजा समुद्रविजय रहते थे। उनकी रानीका नाम शिवादेवी था। उन्होंने कार्तिक कृष्ण तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि । द्वादशीको अन्तिम रात्रिमें सुन्दर सोनह स्वप्न देखें; जिनके अर्थ सुनने से उनको विदित हुआ कि उनके बावीसवें तीर्थङ्कर जन्म लेंगे । दम्पति मह जानकर अत्यन्त हर्षित हुये । आखिर श्रावण शुक्ला पंचमीको शुभ मुहूर्तमें सती शिवादेवीने एक सुंदर और प्रतापी पुत्र प्रभव किया। देवों और मनुष्योंने उसके सन्मान में आनन्दोत्सव मनाया। उनका नाम अरिष्टनेमि खखा गया। अरिष्टनेमि युवावस्थाको पहुँचने पहुंचते एक अनुपम व प्रमाणित हुये । मगधके राजा जरासिंधुसे यादवो की हमेशा लड़ाई बनी रहती थी । अरिष्टनेमिने अपने भुज विक्रमका परिचय इन संग्रामोंमें दिया था । つ J जरासिंधु आये दिन होते हुये अक्रमणों तंम भाकर यादवोंने निश्चय किया कि वे अपने चचेरे भाई सुबारकी नाई सुराष्ट्रमें जा रमे । उन्होंने किया भी ऐसा हो। सब यादवगण खुम्बूको चले गये गये और वहां समुद्रतटपर द्वारिका बसाकर राज्य करने लगे । इस प्रसंग सु- राष्ट्रके विषय में किंचित् लिखना अनुपयुक्त नहीं है। मालूम ऐसा होता है कि सु- राष्ट्रका परिचय । यादवका सम्बन्ध सु-जातिके लोगों था; जिन्हें सु-मेर कहा जाता है बौर जो मध्य ऐशिया में फैले हुये थे । किन्तु मूलमें वे भारतवर्षके ही Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान अरिष्टनेमि. कृष्ण और पाण्डव । [७१ निवासी 2; यही कारण है कि उनके निवास की मूल भूमि काठि. यावाड़ · सुवर्णा · अश्वा । -रष्ट' नाममे विख्यात थी। 'महाभारत' में सिन्धु-मुणः-रदेश' और जातिका उल्लेख है। 'मु-वणां' का अर्थ '' जात होता है। जैन शासक मिन्धु-मौवी देशका लेप हुआ मिलता है। मोवी दश अपनी प्रमुग्व नगर मोवा पुरक कारण ही प्रख्यातिमें आया प्रतीत होता है जिसे यादवगना मुचीने स्थापित किया था ! सुबक अर्थ जानिका का होता है। इनके पहले और उपरान्त काय इा व 'मु.' म जन शामेिं भी हुआ है।' इ. नुवा लगा माता+। माय सिंधु उपत्ययकाकी मायनाम था : __ भानीय मत है कि पु-जानीय (Sumerivn ) HAIका विम in Hiमें हुआ था। -जानिक लोग मुराष्ट्र में ही नका मा नयाचे बम थे। जैन शास्त्रामे हमें पक प्रसंग मरना है में कहा गया है कि कच्छ-महान्छके १-fas.! ..." मा० ९८ अ ट ६२६में प्रकाशित "सुमे . . म भ ' शीर्षक लेम्व देखना चाहिये । २-भगमनं मुत्र पृ० १८६६ (सिंधुनमु मणवरमु ) हरि०३-३-७; ११-६८ इत्यादि। 3-Lorel Tristanemi, p. :37. ४-६० ११-६४-७६ : ४९-१४; पाक० १-१..; नाच.१-१५-७; कच०३-५-६। ५-"विशालभारत" भा. १८५ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] मंक्षिप्त जैन इतिहास । पुत्र नमि-विनभिको नागगज धरणेन्द्र माने साथ लेगया था और उन विद्याधर्गका गजा बनाया था। उन्हींकी मन्नान विद्याधर नाममे मध्य एशिया आदिमें फैल गये थे। यादवोंके पूर्व पुरुष भी विद्याधा थे। उपर्युलिम्वित विद्याधर्गके पूर्वज नमि - विनमि कच्छ महाकच्छ अथवा मुमच्छर पुत्र थे. जिसका अर्थ यह होता है कि उनका भानाम भी सुगम ( काठियावाड़ ) था। उनके पिता कच्छ महाकच्छ देशके प्रमुग्व निवासी होने के कारण उस न:ममे प्रसिद्ध हुये प्रतीत होने हैं। और कर, मद , अथवा मुकच्छ देश भाजकल के कच्छ देशके गम मीत सिंच नवर्ण मादि ही होना चाहिये । हममे भी यही बनिन होता है के मुजानिक लोग मध्य ऐशिया मादि देशोंमें जाई थे । नमे अथवा मुजातिक गजाओक नाम भी प्राय: वही मिलन है जो कि भारत के सूर्यबंशी गजाओंके हैं। सुमेर राजाओं की किशवंशावलीमे इ. वाकु, विकुक्षि ( जिनके माई निमि थे ), पुरंजय. मानेतु ( नक्ष ), मगर, बु. दशाय और रामचंद्र के नाम मिलने हैं। १-बापु. मग १८१४०९१-५२ व . मी . १२७-१३.। २-'तु..' नाम क्या उन्हें 'सुज तम त नहीं प्रगष्ट ता ! उत्त'पुण' (६६ ६७) में एक 'सुकच्छ' नामक देशका स्पष्ट उलेख है। देशके निवमी मु.जातीय होने के कारण महाकच्छ सुकट नामले प्रसिद्ध हुए प्रतीत होते है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डर। [७१ यदि ऋषभदेवको रक्षाकु माना जाय जिनमे नमि विनमिने राज्यकी याचना की थी, तो किस वंशके विकुक्षि और उनके भाई निमि जैन शाम्रके नमि विनमि अथा सुझच्छके पुत्र विकच्छ हो उधर वैचीलनके राजाने वशदनेजर अपने को 'मुजातिका देव (-नम्पति) और रेवा नगरके गज्यका स्वामी लिखना ही है, जिसे हम दक्षिण भारतमें अनुमान कर चुके हैं। यह गजा अपने दान. पत्रमें यदुगज (कृष्ण) को गजधानी द्वारिकामें आनेका विशेष उल्लंब करना है और वन पर्वनमे निर्वाण पाये हुए भ० नेमिके सम्मानमें एक मंदिर बनवाकर उन्हें अर्पण करनेमें गौरव अनुभव करना है। इसमें स्पष्ट है कि यदुगज प्रति उसके हृदय सम्मान ही नहीं बल्कि प्रन था। उसका कथन मा ही भासता है जैसे कि कोई नया भादमी अपने पूर्वजोंकी जन्मभूमिश्र पहुंचकर हर्षागार प्रगट करना से। यादवोंका मथुग छोड़कर मुगष्टमें आना भी उनको मुनातिमे सम्बंधित प्रगट करता है। क्योंकि आपत्तिके ममय माने ही लोगों की मद मादी । मधुमें जगमिथुन दुःस्वी यादव सुगष्ट्रमें आये, इसका अर्थ यही है कि अको सुगष्टवामियोंपर विश्वास था-वे उनके भागा भगवा ! उनके एक पूर्व ही मुवीर नामसे प्रसिद्ध हुये ही थे और उपर मुजातिक नृप यदुगजके प्रति प्रेम और विनय प्रगट करते हैं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१] संलिस मेन इतिहास इस सब वर्णनमे यह स्पष्ट है कि यादवोंका सुराष्ट्रवासियोंमे विशेष समन्ध था और मध्य एशियाके मु मेरे राजा भी उन्हीं के सजातीय थे । जैन शाम्रोंमे कहा गया है कि कृष्णका राज्य वैतान्य पर्वतसे समुद्र पर्यन्त विस्तृत था। यह वैताढ्य पर्वत ही विद्याघरोंका भावास और नामिविनामिक गज्याविकामें था। इममें स्पष्ट है कि कृष्णके साम्राज्यमें मध्य-ऐशिया भी गर्भित था। प्राचीन भारतका आकार उतना संकुचित नहीं था, जैसा कि वह भाज है । उममें मध्य ऐशिया मादि देश मम्मिलित थे। मिन्धु और मुमेर सभ्यतामोंके वर्णनसे ऐसा ही प्रतीत होता है कि एक समय मध्यऐशिय! तक एक ही जातिके लोगों का भावास प्रवास था। पूर्वाल्लिखित दानपत्रमें सुमेरनर नवशदन जा अपनेको रेवा. नगरका स्वामी लिखता है जो दक्षिण भारतमें बा (नर्मदा ) बटपर होना चाहिये । इसमे प्रगट है कि नर्मदामे लेकर मेमोपोटेमिया तक उसका गल वितृन था। एक गज्म होने के कारण वहांक लोगों में पर व्यापारिक ब्यकता और भादान-प्रदान होता था । यही कारण है कि भारतीय सभ्यता जैसा ही मभ्वना और सिके एवं वेलीप मध्य एशिया के लोगों में भी तब प्रचलित थी। ___एक विद्धानका कथन है कि इन सु-जाति के लोगोंके धर्मसे मैनधर्म उत्पन्न हुमा और गुजरात तथा सुराष्ट्र के मेन वणिक इनी १-मातृधर्मकथासूत्र (हैदराबाद ) पृ. २२९ व हरि० पृष्ठ ४८१-४८२। २-"सरस्वती" भाग ३८ अंक १ पृष्ठ २३-२४ । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव । [७५ लोगोंके वंशज हैं। नि:पन्देह यह कथन सु-वर्ण और सत्यशको लिये हुये है। क्योंकि इसका जैनधर्म। अर्थ यही हो सकता है कि सु-राष्ट्रवासी नमि विनमिन भगवान ऋषभका धर्मग्रहण करके उसका प्रचार अपने विद्याथा जानिक लोगों में किया थ', जो उपान्न मय सिमा बहुतायतमे मिरने थे । मध्य एशियाकी जातियोंमें जनधर्मका महाव था । यह हम अन्यत्र प्रगट कर चु हैं। उपर यह प्रगट है कि जनधर्मका केन्द्र रहा है। प्रथम नीथा ऋषभदेव पुत्रक अधिकामे मिन्यु सुवार और माथे । मनमें वे मुन होगये थे और उन धर्म प्रचार किया था। उनके पश्चात मी सुगए जैनधर्म आस्तिका वर्णन शाम्रोमें मिलता है । स्वयं एक नायर ने सुप्रने पम्या और धर्मप्रचार किया था : इममे माद और कां निवामियों में जैनधर्मकी मान्यता है । डॉ. नो हम मु-गष्टमें आकर यादवगण बम गये। द्वारिका उनी गजधानी हुई श्री कृष्ण उनके म. अरिष्टनेमिका गना। नीङ्कः अरिष्टनेमि कृष्णके विवाह। चची भाई थे। उन्होंने गजकुमारी गजुलके गाव अरिष्टनेमिका विवाद का १-"वशाल भार" मा० १८ अंक ५ पृष्ट ६३१। २"भगवान पार्श्वनाथ" पृ० १४०-१७८ । ३-हरि० सर्ग १३ श्लाक. ६४-७६ । ४-हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण बादि ग्रंथ देखो। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । देना निश्चित किया । अरिष्टनेमि दहा बने-ब.रातके बाजा बजे और बजा निशान उड़े । परन्तु अरिष्टनेमिका विवाह नहीं हुआ। उन्होंने किन्हीं पशुओंको भृम्बप्याससे छटपटाने हुये बाड़में बन्द देम्वा । इस वरुण दृश्यने उनके हृदयको गहरी चोट पहुंचाई । उनका कोमल हृदय इन अदयाको सहन न कर सका । पशुओंको उन्होंन बन्धन मुक्त कियाः पान्तु इनने मे ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। ___ उन्होंने मांचा संसारके सब ही प्राणी प्रान मोर यमदुतके चुंगलमें फंसे हुये शबन्धनमें पड़े हुये हैं-वह स्वयं भी तो स्वाधीन नहीं है ! क्यों न पूर्ण स्वाधीन बन जाय ? यही सोचसमझकर मरिष्टनेमिने वस्त्राभूषणाको उतार फेंका । पालक मे उतर कर वह मांध वितक ( गिरनार ) पर्वतकी और नर दिये। वहां उन्होंने श्रावण शुक्ल षष्टीको दिगम्बा मुद्रा धारण कर तपस्या करना आपकी घोर तपश्चरणका सुफल केवलज्ञान उन्हें नमीत्र हुमा । गरिनार पर्वतक पाम महलाम्रबनमें ध्यान माइकर उन्होंने पातिया को हा नाश पश्चिन कृष्णा अमावस्या शुभ दिन किया। भब मरिष्टनेमि मासान मर्वज्ञ नीयका होगये। देव और मनुष्योंने उन्हें मम्नक नमाया और उनका धर्मादेश चाबमे मुना। सना वार मा प्रमुख भिस्य हुआ । कुमारी नुल भी साध्वी देकर आर्यिकाओंने अपनी हुई। १-हरि०, पृष्ठ ४१३-५०५॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव। [७७. एक सर्वज्ञ सर्वदर्शी ताथकरके हमे भगवन मरिष्टनेमिने नानादेशीम विहार करके धर्म प्रचार किया। भगवानका हरिवंश पुराण में लिखा है कि भगवान् विहार। अरिष्टनेमिन क्रममे साठ (सुगष्ट्र ), बटोरु. शरमेन, पाटच', करुजांगल. पांचाल, कुशाग्र भगध अनन, अंग, बंग कलिंग मादि देशोंमें विहार किया था। इस विहार में भगवान । शुभगमन मलयदेश के भदिलपुर भी हमा। वहांक मा पाइने भक्तिपूर्वक मंगगनकी वन्दना की। वहीं मैट कि यहां कणकी नी देवकी , युगलिया पुत्र रहते थे । वे भी भगव नको वन्दना करने आये और धर्मादेश सुनकर मुनि ही भगवान के म थ हीलिये आगे भगवान का विहार पलवदेशमे मा हुा । उम ममय दक्षिण “युगमे पांचों पाण्डव गह रहे थे। उन्होंने जब यह मुना कि भगवान अग्टिनम वहां माय हैं तो उन्होंने जाकर भगवानकी बन्दना की। इसपर भगवानने दक्षिणा देशाम वहार किया। पलवदेशमें वे कईवारहने । उनके इमप्रकार धर्मपच र कानमें दक्षिण भाग्नमें धर्म प्रगत खूब हुई थी। घर अपने चचेरे भाई मरिष्टनेमिक मुनि हो जाने के पश्चात् कृष्ण लोटकर द्वारिका गये और वहा मानन्द राज्य करने लगे। १-पृष्ट ५५४ । २-हरि. पृ० ५५४। ३-१० सर्ग ६३ श्लोक ७६-७७। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | दिग्विजय के लिये जब भगवान नेमि कवकज्ञानी हुये, तब करने आये | के साथ अनेक यादवगणने शिव्यन्त्र ग्रहण किया था । उपरान्त श्री कृष्णने प्रस्थान किया। और अनेक पौक्षणभाग्न क्षेत्रको विजय किया । इसके पश्चात कृष्णने खूब भोग भोगे और अन्य राजाओं वश किया। उागन्न उन्होंने 'कोटिशिला ' स्ट नेके लिये गमन किया और उसे उठाकर अपने शारीरिक बनका परिचय जगनको करा दिया। यहां वह द्वारिका माये और वहां उनका राज्याभिषेक हुआ। अब कृष्ण गजराजेश्वर बनकर नीतिपूर्वक राज्य करते रहे ।' वह उनकी वन्दना कर अरिष्टनेमिका उधर हरितनापुर पांव सानंद रह रहे थे कि उसका विरोध कौम हुआ। शांतिप्रिय थे। उन्होंने इस को मेंटनेका पञ्च पाण्डव । उद्योग किया। यह गृहामि शांत न हुई । कौरवोंन दुष्टताको ग्रहण किया। उन्होंने पडकी लाखा गाने जला डालने का उद्योग किया, परन्तु वे सुरंग के रास्ते भाग निकले । हस्तिनापुर से चलकर पांचों पाडन और कुन्ती दक्षिण भारतमें पहुंचे। वर्षो उधर ही विचरते रहे और उस ओके राजाओसे उन्होंने विवाह सम्बन्ध किये । १- हरि० सर्ग ५३, कोशिटा दक्षिण भारत में हो कहीं मवस्थित थी । श्रीमान् ब्र० सीताजी ने इसे कलिगदेश में नहीं चन्ह है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, रुष्ण और पाण्डव। [७९ अर्जुनका व्याह काम्मिल्य नगरके गजा पदकी गजकुमारी द्रौपदीमे पहले ही होचुका था । अखि पटव दक्षिण मग बसा कर वहीं राज्य करने लगे थे। आज भी पांडवों के स्मारकरूपमें दक्षिण भारतमें पांडव मलय ' मादि स्थान मिले हैं।' एक दफा जब भगवान अरिष्टनेमि गिरनार पर्वतपर विराज मानये श्रीकृष्ण मपरिवार उनकी वन्दना द्वारिकाका नाश। फरने गये। बन्दना करके उन्होंने तीर्थकर भगवान से पूछा कि द्वारिकाका भविष्य क्या है : भगवान ने उनसमें बताया कि द्वारिकाका नाग द्वीगयन मुनिके निमित्तमे होगा । उद्धत यादव युवक मदमत्त हो द्वीपायन मुनिको छेगे और उनकी कोशनि मरे यादवा महिन द्वारिका भस्म होजायगी- केवल कृष्ण और बलगम शेष रहेंगे। वे दोनों निगश होकर दक्षिण मथगकी और दिवार पाम जायगे कि गम्न कोशांवन के मध्य नरकुमार का कृष्णका स्वर्गवास होगा। तीर्थकरके मुम्बमें यह भविष्यवाणी मनका यादवगण भयभीत डॉगये और उन्होंने द्वारिकाको नाके लिये मरा उपाय किये। परन्तु भावी अमिट थी। हाकिाका नाश द्वागदनकी कोषामिमे १-१० मग १२ व १४ । २-F#.10, पृ० ६२.... । ३- श्राहा म मी ह व मुदेव र कयासी-एवं मट कण्ड : तुम कर गयर मुगी दीवार को विनिए सम्माविया: णि गवि पहुणे मेग बाट देवेग मदि दाक्षिण वेयोलनिमह जुळ पामोकावण पंचाई पंडपाणं गय पत्ताणं पास इनहर महयने मंत्र काणगंग नगोहा दायाम मह रविसपर वियएम आय सरी'....इत्यादि। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. संक्षिम जैन इतिहास। हुमा । कृष्ण और बलराम ही उस प्रलयंकरी अमिसे बच पाये। वे दक्षिण मथुगको चले कि घोग्वेसे जरत्कुमारके बाणने कृष्णकी जीवनलीला समाप्त करदी ! बलगम भ्रातृमोहमें पागल होगये । पांडवोंने जब सुना नो वे बळगम के पास भाये और उनको सम्बोधा । तब बलरामने शृङ्गी पर्वतपर कृष्णके शबका अमिसंस्कार किया और वही मुनि हो वह तर तपने लगे। उस समय भगवान नेमिनाथ पल्लव देश विहार कर रहे थे। पांडव सपरिवार पहीको प्रस्थान कर गये।' पल्लादेशमें विहत भगवान अरिष्टनेमिके समवशरणमें पहुंच. कर पाण्डवों और उनकी गनियोंने भगवानकी निर्वाण। बन्दना की और उनसे धो देश सुना । सबने अपने पूर्वभव उनमे पुछे; जिनको सुनकर वे सब मंपारमे भयभीत होग। युधिष्ठिर आदि पांचों पांडवोंने तत्क्षण भगवान के चरणकमलों में मुनित्रत धारण किये । कुंती. द्रौदी भादि रानियां भी गजमती कार्यिका निकट साध्वी होगई । इसपकार मन ही मन्यस्त कर तर ताने में लीन होगए ! भब भगव । मटनेमिका निर्माणका समीर मारहा था । इसलिये वे पलवदेशसे चलकर उत्तरदिश.में विहार करते हुए गिरिनार पर्वतपर मा विराजे । उनके साथ संघ पहनदि भी माये। गिरनार पर्वतपर आकर भगान् अरिएनेमिने निर्वाणकालसे एक मास पूर्वतक धोम्देश दिया । यह उनका अंतिम प्रवचन था । -रिसर्ग ६२। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डव । [ ८९ उपरान्त एक मास पहले से उन्होंने योगोंका निशेष किया । और अघातिया कर्मो का नाश कर वे मुक्त होगये । उस समय समुद्रविजय, शंत्रु, प्रद्युम्न आदि भी गिरनारसे मोक्ष गये थे। इस पुनीत घटना के हर्ष देवाने म्यानन्दोत्सव मनाया था । इन्द्रने गिरिनार पर एक सिद्धशिला निर्माषी, जिसपर भगवान नेमिनाथ के ममस्न लक्षण अंकित कर दिये । इस प्रकार भगवानको मुक्त हुआ जानकर पांचों पटव शत्रुंजय पर्वत पर जा बिराजे । वहा उन्होंने गहन ध्यान माड़ा | उस ध्यान अवस्थ में उनर कौरव वंशके युनरोचन नामक दृष्टने घोर उपसर्ग किया। उमन लोहके कड़े मुकुट आदि नये और उन्हें अभिषेक पाटो पनि दिये, जिनमें उनके शरीर अवयव बुरी तरह जल गये । परन्तु साधु पाण्डवाने इम वर्गको समभावनि मन किया । युधिष्ठिर, भीम और अनंत उमी समय नुक होमिद्ध परमाना हुये सुनिराज नकुल और सहदेव भाइयों में किंचित गये | इसलिए सर्वार्थसिद्धि मेमेन्द्र हुये। बलभद्र भी हमने कर देव हु उदगन्त यादव कवकजस्तो के भौ जीवन वही 1 यादवोंकी वंश जाकर राज्य करने क हुई थी । - हरि० सर्ग ६४ । उनि नरकलिन देश में 3. की सन्त राम Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मलित जैन इतिहास । यहा यह प्रश्न निर्थक है कि क्या भगवान अरिष्टनेमि एक निहासिक महापुरुष थे! पूर्वोल्लिखित सम्राट म. अरिष्टनेमि शदनाक दानपत्र में उनका उल्लेख ऐतिहासिक हुमा है और उसमें उनका अस्मिन्व एक पुरुष थे। मति प्राचीनकाल से सिद्ध है। उम दान. पत्रके भनिग्निग्निार पर्वतरा बनेक प्राचीन स्थान और तम्ब हैं, जो भ० भरिटनमनिहामिहताको प्रमाणित करते है। गिरिनाक बाबा प्याकं मटन ने, शिन्लाने म्ब में .. केवलज्ञान सम्मानानाम" वाक्य पढ़ गया है। जिसमे कि म्यान किसी कंवलज्ञानी पनि कर ... विटन ही है कि श्री अरिष्टनेमिन ट २६२. मान प्राप्त किया था । 'युगका मानन : . : ... मिक मस्तित्वको सिद्ध करनी है । इपक भनिन 'न्य स्वन माहि. त्वको साक्षी भी इस विषयक समय में उले है। नोंके प्राचीन साहित्य तो भगवान मष्टिनेमिका वर्णन है री; पन्त महत्वकी बात यह है कि हमें वैदिक साहित्यमे भी भगबाम गरिनेमिका उल्लेख हुमा मिलता है। जुर्वेद म० ०. मंत्र १-ईऐ., मा. २० पृ० ३६...... २-:पृष्ट ८६-८८ वस्तुर१३....। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण और पाण्डय। [८१ २५में एक अरिएनेमिका स्पष्ट उल्लेम्व है।' और न एवं भजैन विद्वान उन्हें जैन तीर्थक । प्रकट करते भाए है।। इसके अतिरिक्त प्रभास पुगण ' में स्पष्ट लिखा हमा है कि नमि जिनने वित पर्वनमे मोका नाम लिया था। इस साक्षीने ममक्ष भ० अग्निमिक मस्तित्व शक करना व्यर्थ है । विद्वा. नो मन है कि जब नेमिपभो चचेर माई श्री कृष्णको निहापिक पुरुष माना जाना है तो कोई वजह नहीं कि नीर्थकर नमि वास्तविक पुरुष न माने जाय। डॉ० फुहा और प्रो० वारनेट साने रएतया भगवान मरिष्टनेमिका नियमिता विकार की है। इस प्रकार भगवान गिटनमि चरित्रमे यह प्र है कि उनके द्वारा दक्षिण भारत पदव, मलय भादिदगोम जन धर्मका प्रचार हुमा था और इम मश्री से दक्षिा माग्नमें न धर्मकी प्राचीनना भी सट हानी है १- जम्नु - भूवनः च अनुवनानि मयत: । मगजनन 'मन प्रग पर अवयनमनो॥२५॥ २-बी टोडामट कृत ' मोक्षमाग-प्रकाश देवा । ३-प्रो. स्वामी विरुष महिपाने ८ अर्थ किया था-टेवा अन पथ प्रदर्शकका विशेषांक [ वर्ष ३ मा ३] ऋग्वेद ( १.६ व १६) के इस मंत्रका 'स्वस्ति बस्ताक्ष्यों बरिष्टनेमिः' का अर्थ 'परिष्टनेमि (संसार सागरको पार कर जाने में समर्थ ) ऐसा मोहिनेमि तीर्थरबह हमारा कल्याणकरे' किया था। ४- बतादौ चिनो प्रेमियुगादिविमनप। सीमां या श्रमादेव मुकिमार्गस्य कारणम् ॥' सामने..८८-८९ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समित जैन इतिहास । भगवान पार्श्वनाथ । काशी देश इक्ष्वाकुवंश-उपकुलके राना विश्वसेन राज्य करते थे। बनारस उनकी राजधानी थी और वहीं उनका निवासस्थान था। रानी ब्रह्मदत्ता उनकी पटरानी थी। पौषकृष्ण एकादशीको उन गनीने एक प्रतापी पुत्र प्रसव किया, जिसके जन्मने है। लोकमें मानंद और हर्षकी एक धारा बह गई। देवों और मनुष्याने मिलकर खूब उत्सव मनाया। उस पुत्रका नाम 'पार्थ 'स्वः मया भौर वहीं जैन धर्म २३ वें तीर्थकर हुये। युवावस्थाको प्राप्त करके राजकुमार पार्थ राज-काजमें व्यस्त होगये । वह अपने पिताके साथ प्रजाका हित साधने में ऐसे निश्त हुये कि उनका नाम और काम चहुं ओर फैल गया। लोग उन्हें " सर्वजन प्रिय " (1oples Fiulopirite ) हक पुकारने थे। एकदफा कुमार पार्श्वनाथ मित्र महिन वनविहार के लिये निकले । बागमें उन्होंने देखा कि उनक' नाना महीपाल का गज तापसके भषमें पंचाग्नि तप रहा है। वह उन्टा मुख किये हमें लटका हुमा था । कञ्चन-कामिनी का मोह उसने त्याग दिय! ५ : परन्तु फिर भी उसके त्यागमें की थी। उमे घमंड था कि मैं साधु हैं। मुझसा संसा में और कोई नहीं। इस घमंड के दपये वह अपने आप को भूल गया । उसकी आत्मोन्नतिका मार्ग अब कष्ठित होगया । लेकिन वह तप तपता और कायक्लेश सहता था। पामार और उनके मित्रोंको उसने देखा । बसको चीरनेमें Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पानाथ। [८५ देर न कगी। पर वह साधु था। उनका अभिवादन पाये बिना यह क्यों बोले ? सग्ल-सहमकी रीनि उसे पसन्द न थी। पार्थकुमाग्ने उसकी मढ़ता देखी। वह उसे भला अभिवादन क्या कानं ! हा. वह उसका सपा हित साधने के लिये तुल पड़े। उन्होंने कहा कि यह माधुमार्ग नहीं है । ममि मुलगाकर व्यर्थ जीवोंकी हिंसा करते हो ! गजकुमारके इन शब्दोंने उस साधुको भाग-चला बना दिया। उसने कुल्हाड़ी उठाई और अधसिलगे लकड़ीके बोटको वह फाड़ने लगा। उसके भाचर्यका ठिकाना न रहा, जब उसने उस लकड़ी की खुखालमें एक मरणासन सर्पयुगल देवा ! उसका मन तो मान गया, परन्तु घमंडका भूत मिम्मे न उलग : यही कारण था कि वह भहिंसा धर्महे महत्वको न समझ सका । यर्पयुगलको भ० पाने मम्बोधा : वे समभावोसे मरे और धरणेन्द्र-पद्मावनी हुये। इस गनिमे भ० पर्यनाथ कौमारकालमे ही जनतामें धार्मिक सुधार कर रहे थे : उन समयमें धर्म नामपर तरह नाहक मन प्रचलित होगये थे। कार्य प्रभूने उनको मेंटना मावश्यक समझा । उन्होंने देखा कि समाजमे गृहत्यागियोंकी मान्यता है और विना गृह त्याग किये सत्यके दर्शन पा लेना दुर्लभ है। इसलिये उन्हें घग्य गहना दम होगया। नाविर में एक निमिन मिल गया-मब वे दिगम्बर मुनि होगये। मुनि अवस्थामें उनान घोर तप तपा। ज्ञान-ध्यानमें वे हीन रहे । संयमी जीवनकी पराकाहार से पहुंच गये। एक मच्छेसे Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.] संक्षिा न इतिहास। दिन 'ज्ञान' मूर्तिमान हो उनके अभ्यन्तरमें नाचने लगा । पार्श्वनाथ साक्षात भगवान होगये-वे मर मर्वज्ञ नीर्थकर थे। ज्ञान-प्रकाशका घवल मालोक उनके चहुंओर छिटक रहा था । ज्ञानी जीव उनकी शरणमें पहुंचे । भगवान ने उन्हें सच्चा धर्म बनाया, जिसे पाकर सब ही जीव सुखी हुये-मबने समानताका अनुभव किया और मात्मस्वातंत्र्य वे अधिकारी हुये । अपने इस विश्वसन्देशको लेकर भगवान पार्श्वनाथन सांग चार्यदेश विहार किया। महा-जहां उनका शुभागमन हुभा वहां वहाक लोग प्रतिबुद ही सन्मार्ग ५५ भारुढ़ हुये । भगवान पाचनायक धर्मपचारका वर्णन साल कीर्ति कृत पार्श्वनाथचरित' में निम्नप्रकार लिखा हुमा है: "तत्व मेदप्रदानेन श्रीमत्पाश्वभुमहान् । जनान कौशलदेशीयान् कुशलान् संध्यध्य ॥ ७६ ॥ भिदन् मिथ्यातमोगाढे दिव्यध्वनिप्रदीपकः । काशीदेशीयकोकान म चक्र सयमतत्परान ।। ७ ।। श्रीमन्मालम्देशीयमध्यलोकसुचातकान् । देशनामधाराभिः प्राणयामाम तीर्थगन ॥ ७८ ॥ जयंतीयान् जनान् सर्वान् मिथ्यात्वानलतापितान् । ग्यामिपियामास...पार्धचन्द्रामृतः ॥ ७९ ॥ गौराणां बवानां हि पार्श्वसमाद वितेद्रियः । Pow बर्ष कोमलतः ॥ ८.. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् पाश्र्धनाय । [८७ पावभट्टाक श्रम न पादपासविहार; सन् सौराष्टलोकांश्च पवत्रान् विधेभ ॥ ८२ ।। अंगे वंगे कलिंगेऽथ कणांट कोकणे तथा । मेटमदं तथा ढाटे लिंग दवा || ८३ ॥ काश्मीरे मगध को ' न ट के । वाडे ५३ पम पममी ना ॥ ८ ॥ इत्यार्यग्वान्देशा कीमत्व महामनः । दर्शनज्ञानव विमानमेवा र ॥ ८५ ॥ १५ ॥' भावार्थ- दर ५३। * लिग मान प्रम श्री पश्यं भगवान दशक शर. पद वार किया और अपनी दिनिका प्रदीय द मियानमक नजारा दी। फि. संयममें नः।। ३ दशक में नम का प्रमाव फराया। श्री माळवदक नम: भाइस चानान भी नोटके धमांमृतका पान किया । सनी देश जी मियानलमे नप्त था, सो पाश्वकपीन्द्रो ममतको पाकर शांत होगया था। गौर देशमें न्द्रिय नटर द्वचनोंक प्रभावम मिपाव बिल्कुल जमिनहाय ; महाट देशवासियों में अनेकाने पार्श्व भगवान मे दीक्षा ग्रहण की थी। पर्व मोष्ट देशमें भी पार्य मट्टारकका विहार हुआ था जिसमें वहां लोग पवित्र होगए थे। अंग, बंग, कलिंग, कनाटक. कोकण, मेदपाद, लाट, दाविड़, कश्मीर, मगध, कच्छ, विदर्भ, काल, पंचान, पल्लव, पास इत्यादि गासिंडके देखोंब मी बगवानके उपदेशसे सम्मान, शान, पारित लोमितिमी। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] संलिम जैन इतिहास। भगवान पार्श्वनाथ के हम विहार विवरणसे स्पष्ट है कि उनका शुभागमन दक्षिण भारत देशोंमें भी हुमा था । महागष्ट्र, कोकण. कर्नाटक, द्राविड़, पल्लव आदि दक्षिणावर्ती देशों विचर करके नीर्थकर पार्श्वनाथने एक बार पुन: जैन धर्मका रद्योत किया था । दक्षिण भारतमें भगवान पार्श्वनाथ शुभागमनको चिरस्मरणीय बनाने वाले वहां वई नीर्थ माज भी उपलब्ध हैं । अन्तरीक्ष प.वनाथ. कालकुंड पावनाथ मादि तीर्थ विशेष उल. म्खनीय हैं । दक्षिण भारत के जैनी भगवान पवनायका विशेषरूपमें उत्सव भी मनान हैं। महाराजा करकंडु। भगवान पार्श्वनाथ शासनकालमें मुमसिद्ध महागजा करकंड हुये थे । इन्हें शास्त्रों में प्रत्येक बुद्ध 'हा गया है और उनकी मान्यता जैनतर लोगों में भी है। उत्तर भारतके चम्पायुमे पाटीवादन नामका जान्य करता था । उसकी नी पद्मावती मर्मती . . ए दिन है थीयर मबार होकर राजा और रानी वनविहारको गये । ३ ः विच गया और उन्हें जंगलमें लेभागा । जाना पड़की डाली कडा बच गया। पातु गनीको हाथी लिये ही चला गया । वह दन्तिपुरके पाम एक जलाशयमें जा धुमः । गनीने कूद कर आने प्राण बचाये पौर एक मालिनके घर जाकर वह गहने लगी। किंतु माफिनके कर स्वभावसे वह तंग भागई और एक स्मशान भूमिमें यह जा बैठी। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराणा करकन्छु। [८९ कमौके वैचित्रको विकारती हुई पद्मावती रानी वहां बैठी थी कि वहीं उनोंने एक पुत्र प्रसव किया। एक मातंग वेषधारी विद्याघरने उम समय पद्मावती रानीकी सहायता की-नवजात शिशुकी रक्षाका भार उसने अपने ऊपर लिया । उम विवाषने उस बालकको खूब पढ़ाया-लिखाया और शस्त्रास्त्र चलानेमें निष्णात बनाया। बालकके हाथमें मुखी खुजली थी। इस कारण उसे 'करकंडु' नामसे पुकारने लगे। बालक करकंड भाग्यशाली था। जब वह युवा हुआ तो दन्तिपुरके राजाका परलोकवाम होगया । उसके कोई पुत्र न था। राजमंत्रियोंने दिव्य निमित्तम कापडको राजत्यके योग्य पाकर उन्हें दन्तिपुरका गजा बनाया । गजा होने के कुछ समय पश्चान करकं. का विवाह गिरिनगरको गनकमारी मदनावलीसे होगया । चम्पाक गजाने करकंडका अपना माधिपत्य स्वीकारने के लिये बाध्य किया, जिसे करने मम्वीकार किया। भाखिर दोनों नरे. शोंमें युद्धकी नौबत आई: पन्नु पद्मावतीने बीच में परकर पितापुत्रकी मन्धि कगदी। धाहीवाहन पुत्रको पाकर बटुन हर्षित हुए । उन्होंने चम्मका गजपाट काण्डको माग और भाप मुनि होगये। करकण्ड मानन्द राज्य करने लगे। एकवार करकंडकी यह कामना हुई कि उनकी माज्ञा सारे भारत निवांध गतिमे मान्य हो किंतु मंत्रियों उन्हें मालुम हुमा कि द्राविड़ दशके चोल, , और पाण्यनग्श उनकी मात्राको नहीं मानते हैं। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] संमित जैन इतिहास । गजाने उनके पास दुन भेजा, पान्नु उन्होंने करकंडका माधिपत्य स्वीकार नहीं किया। इस उत्तरको मुनकर करकंड चिढ़ गया । मौर उमने उनपर तुरन्त चढ़ाई कर दी। मार्गमें वह तेगपुर नगर पहुंचे। गौर वहांके गजा शिवने उनका सम्मान किया। वहीं निकटमें एक पहाड़ी और गुफायें थीं। करकंड शिवगजाके साथ उन्हें देखने गया । गुफामें उन्होंने भगवान पार्श्वनाथका दर्शन किया । वहीं एक वाम को उन्होंने बुदवाया और उससे जो भगवान पार्थनाथकी ॥ मूर्ति निकली. उसको उन्होंने उस गुफा विराजमान किया । मनि निम सिंहासन पर विराजमान थी उनके बीचमें एक भद्दी गाँट दिखनी थी। करने उसे तुड़वा दिया, किन्तु उसके तुड़वाने ही वहाँ भयंकर जलप्रवाह निकल पड़ा। करकंड यह देखकर पछताने लगे। उस समय एक विद्याधरने माकर उनकी सहायता की और उसने उम गुफाके बनने का इतिहास भी उनको बताया। विद्याधरके कथनसे करडको मलम हुआ कि दक्षिण विजबाईक चनपुर नगरसे गजच्युत होकर नील महानीक नाम के दो माई तेरपुरमें भारहे थे। यह दोनों विद्याधर वंशक राजा थे। धीरे धीरे उनोंने वहाँ राज्य स्थापित कर लिया। एक मुनिके उपदेशसे उन्होंने जैन धर्म प्राण कर लिया और वह गुफा मंदिर मा मुख परिये एक र्ति ठेठ दक्षिणमातसे बाई रातो सोने मामले पुदी तर faite Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजा करकण्ड। । ९. बनवा कर वह मुंर जिनमर्ति स्थापित कराई थी। कोई विद्याधर उस मूर्तिको वहाँ उठा लाये और में उसका उताग । फिर वह उम मुनिको वहाँमे नहीं ले जम करकंडु यह सब कुछ सुनकर बहुन प्रसन्न हुयं । ककंदन वहां दो गुफायें मौबनवाई। ग करकंद मिदापन और वहाँ राजपुत्री का पाणिग्रहण किया। न एक विद्याधर पुत्रीको व्याह कर उन्होंने नील ना और "छ। गांकी मम्मिलित मनाका मुकाबला किया भोगका अ, प्रण पग किया । किन्तु जब कहने उन्हें, जनधनुयाय जाना उन मुस्टीमें जिनप्रतिमाय देखी तो उन्हें बहन, 'श्व ताप हा और हम उन्हें पुनः गज्य देना चाद: पायाभर न दवडाभियान यह कहकर नाम्याको चनकिकदम में पौत्रादि: 4 मेवा कग्ग । वडाम लौटकर न हाने ये का नया भाये और. गज्यसुम्व भागने लगे। ___एक दिन च मामें शगुम मानक मनि का शुभागमन हुमा । कई माग्वार उनको पदनाको । मुनिगजमे उनोंने बोनश और अपने पूर्वभव मुने. जिनके मन में उनमें वैराग्य होगया और वे अपने पुत्र वनावको गज्य बैंकर मुनि हो गये। मुनि अवध में उनोंने घोर तप तप और मास प्राप्त किया। उनकी सानियाँ भी साध्वी होगई थीं। बाराबारबुडी माई हुई ना गाव भावार राजके उस्मानाबाद मिले तेर नामक स्थानपर मिनीtam. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । 1 रचना और क्रम ठीक वैसा ही है जैसा कि करकेंटुकी बनवाई हुई गुफाओंका था । और aniपर जीमूतवाहन विद्याधर के वंशजोंका एक समय राज्य भी था | वे ' नगरपुरक अधीश्वर ' कहलाते थे । उपगन्त वे ही लोग इतिहास में शिलाहार वंशके नामसे परिचित हुये थे । करकण्डु महाराजकी सहायता करनेवाला भी एक विद्याधर धा और उसने यह कहा था कि नील महानील विद्याषकि वंशज तेगपुर ( तगरपुर ) में राज्य करने थे। इसमें है कि शिलाहावंश के राजा उन विद्य घक ही अधिकारी थे. जिनमें नधर्मकी मान्यता थी । शिलाहार राजाओ ने भी अधिकांश जैनी थे। इससे भी दक्षिण भारत में जैनधर्मका प्राचीन अस्तित्व सिद्ध है। x भगवान् महावीर - वर्द्धमान् । भगवान महावीर जैन धर्म माने हुये चौबीस तीर्थङ्क में अन्तिम थे। वे ज्ञातृवंशी क्षत्रिय नृप सिद्धार्थ पुत्र न थे। उनका जन्म वैशालीक निकट व्यवस्थित कुण्ड प्राममें हुआ था और उनके जीवनका अधिकांश समय उत्तर भारत में ही व्यतीत हुआ था परन्तु यह बात नहीं है कि दक्षिण भारतके लोग उनके देश रहे थे । यह अवश्य है कि उनका बिहार टेठ दक्षिण में शायद नहीं हुआ हो। वहां उनके पूर्वगामी नीर्थङ्कर श्री अनमी आदि ★ विशेष लिये काण्डु बन्द' (कारंजा जन्माला । की भूमिका देखना चाहिये, जिसके वह परिचय सेचन्याद किखा गया है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर पर्दमान । [९३ और उनके शिष्यों का ही विहार हुमा; परन्तु विंध्याचलके निकटवर्ती प्रदेश अर्थात् दक्षिणा पथमें भगवान महावीरका शांति-मुख. विस्तारक ममोशग्ण निम्सन्देह अवतरित हुआ था। जब लगभग तीस वर्षको अवस्थामे उन्होंने गृह-त्याग करके दिगम्बर मुनिका वेष धारण किया तब वे उत्तर और पूर्वीय भार. तमें ही विनाने रहे । उधर पूर्व-दक्षिणमें लाद ववभूमि मादि देशा भगवान ने विहार किया था और इधर पश्चिम दक्षिण वे उज्जैन न पहुंचे थे। जिनके महाकाल स्मशान भूमिमें अब भग. वान् विगन रहे थे. तब उनके अलौकिक ध्यान ज्ञान-अभ्यासको सहन न कर रुद नामक व्यक्ति ने उन पर घोर उपसर्ग किया था। इस घटना के बाद भगवान का विहार उत्तर पूर्व दिशाको हुक्षा था। अन्ननजम्ममाम निकट ऋजुका नदीके नटस उनोंने घार नमश्चाः किया था और वह उनका केवलज्ञानको मिद्धि हुई यी। यह स्थान भावुनिक झिरियाक निकट भनुमान किया गया है . नाका हर भगवान ने जमृहकी ओर प्रस्थान किया था और वे प्राय: मात्र उना मानमें विचरने रह थे। कमेडी है.' जसकना कि व कहा कम और कब पहुंचे थे. परन्तु इनमे संशय नहीं कि नव व भूमेन, दशार्ण भादि १-शाय? यही कारण है कि दक्षिण भारतके जनोंने अपने संघको 'मुटमंच' कहा है। मत: जनक यथार्थ दर्शन दक्षिण भारतीय साहित्य में ही होना संभव है। , २-बोर ! मा०.५ पृष्ठ ३३४-३३६ ।, . Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४] मंलित जैन इतिहास। देशों में होने हुये सिन्धु-सौवीर देशमें पहुँचे थे, तब विंध्याचलके समान स्थित देश उनके सम्पर्क में आनेसे नहीं बचे। हेमांगदेशकी गजधानी राजपुर में भगवानका शुभागमन हुआ था । गजपुर दण्डकारण्यके निष्ट अवस्थित था। वहां के राजा जीवधा अत्यंत पराक्रमी थे। उन्होंने पलवदेशादि विजय किये थे। उनका विचरण दक्षिण भारत के देशोंमें भी हुआ था। दक्षिणम्य क्षमपुगमे उन्होंने दिव्य जिनमंदिर दर्शन किये थे। माखिर भ० महावी के निकट मुनि होगये थे । पोदनपुग् गजा प्रसन्नचंद म. महावीर का भक्त था : पोगपुरका राजा भी भगवान् महावीरका शिष्य था। ___ भगवान का शुभागमन हुन देशोष हा था। इसमे मागे वे गये थे या नहीं, यह कुछ पनाही करना . हवंशपुगण' में अवश्य कहा गया कि भ० महावीग्ने ऋषभदेव के ममान ही सारे मायं में। और धर्मना किया । इसका अर्थ यही है कि दक्षिण भाग्नये भी चे १ चे थे । सम्राट् श्रेणिक, जम्बूकुमार और विद्युचर । भगवान् महावीर-बमानके अनन्य भक्त सम्राट् श्रेणिक थे। तब मगधमें शिशु नागवंशके राजामोंडा मेणिक विम्पसार। राज्य का। मेणिक उसी के गल पौर मगप साम्राज्य संस्थापक थे। मगध राज्यका उन्होंने खूब ही विस्तार किया था। प्रते हैं कि १-सिधा., मा० २०९-१.२ -1, पृष्ठ १८ । - - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् श्रेणिक, जम्मकुमार और वियुचोर। [९५ भारतकी पश्चिमोत्तर सीमापर पैर जमाये हुये ईगनियों को सम्राट श्रेणिकने ही दूर भगा दिया था। श्रेणिकके पुत्र नभयराजकुमार थे। वह गजमंत्र और तंत्र अति प्रवीण थे। मलम होता है कि ईरानके गजवंशसे उनका प्रेममय व्यबहार था। श्रेणिकने इंगन और उसके निकटवनी देशों जिनमूर्तियां ग्यापित कराई थीं। अमयगजकुमाग्ने अपने मित्र इंगन के शाहजादे माईकके लिये स्वाम नौग्पा एक जिननि भेजी थी। आईक उस दिव्यमर्तिके दर्शन करके मा प्रतिबुद्ध हुमा कि सीघा भगवान महावी के समाशग्णमें आ मुनितीक्षाम दीक्षिन गया। निम्संदेह सम्राट घेणक और उन मुनि मगध गन्यको समृद्धिक सायर जैनधर्मकी महान सेवा और प्रभावना की थी। श्रेणकी गजधानी गन गृह नगरी थी : वहां अईदाम नाम के एक मामा मेट पहने थे. जिनकी जम्बूकुमार। पानी जिनमनी थी। फाल्गुन माम शक में एक अच्छे दिन जब चन्द्रमा गहिणी नक्षत्र पाया तब प्रात: समय उस टानीको कोखमें एक पुत्र रत्नका जन्म हुमा। माता-पिताने उमका नाम बम्बकमार मला । जम्बुकुमारने युवा होने२ सब ही शनशास्त्र विषयक विद्याभोंमें योग्यता पाठ कर की। गदरबार भी इनकी मान्यता रोगई। माद श्रेणिक इनका खा सन्मान करते थे। १-'मारि.' (मक्टूबर १९३०). ४३८ २- मा. १ पृ. २२-२३ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमिशन इतिहास। उस समय दक्षिण भारतके केरक देश एक वियापर समा राज्य करता था। उस मोर विद्याधर केरल विजय। वंशके राजाभोंने प्राचीनकालसे अपना भाषिपत्य जमा रक्खाया। बस, केरलके उम विद्याधर राजाका नाम मृगांक था। सम्राट् श्रेणिकसे उमकी मित्रता थी। मृगांकपर हंसद्वीप (लंका) के राना ग्लचूनने भाकमण किया था। मृगांककी सहायताके लिये श्रेणिकने जम्बूकमारके सेनापतित्वमें अपनी सेना भेजी थी। जम्बूकुमारने वीरतापूर्वक शत्रुका संहार किया था। इस युद्ध में उनके हाबसे भाठ हजार योद्धाओं का संहार हुमा था। उपरांत मृगांकने भरनी कन्या विलासवतीका विवाह श्रेणिक के साथ किया था। जब श्रेणिक केरल गये हुये थे तब उनोंने विन्ध्याचल मौर रेवा नदीको पार करके करल नामक पर्वतर विश्राम किया था और वहांपर स्थापित जिन बिम्बोंकी पूजा-अर्चना की थी।' दक्षिण भारत के इतिहाससे यह सिद्ध है कि प्राचीन काळमें हंसद्वीप (लंका) और तामिळ-पाण्ड्यादि दक्षिण देशवासियों के मध्य परस्पर भाक्रमण होते रहने थे। उधर यह भी प्राट है कि नन्द. १-'जम्बूकुमार चरित् ' में विशेष परिचय देख' 'ततस्तां च समुत्तीर्थ प्रतस्थे केरला प्रति । विशश्राम कियरकालं नाना कुरलभूधरे ॥१४३॥७॥ पूजयामास भूमीशस्तत्र वि विमेशिनः। मुनीनति महामत्या ततः सामुयाः ॥१४४॥ . Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् श्रेणिक, जम्मकुमार गौर रिपोर। [९. राजामोंने दक्षिण भारतपर म'क्रमण किये थे। इस मास्वामें यह संभव है कि श्रेणिकने राजा मृगांककी सहायता की से। केल विजय करके श्रेणिक और जम्बुमार लौटकर मानन्द राजगृह माये और खूब विजयोत्सव मनाया। एक रोज जम्बूकुमारका समागम मुनिराज श्री सुधर्माचार्यसे हुमा. जिनमे उन्होंने अपने पूर्वमा सुने । उनोंने जाना कि सुधर्माचार्य उनके पूर्वभव माई हैं। वह भी माईकी तरह मुनि होजाने के लिये उद्यमी होगये; परन्तु सुधर्माचार्य ने उन्हें उस समय दीक्षित नहीं किया । जम्बुकुम र माता पिताको मात्रा लेने के लिये घर चले गये । वहां उ, पितृगण के विशेष भामहमे विवाह करना पड़ा: पान्तु उन्होंने नववधुओंके माथ रहकर निकलीमें समय नहीं गंवाया । उन सबको समझा-बुझ कर वे दिगम्बा मुनि होगये । जिम समय जम्बूकम' अपनी पत्नियोंको समझा रहे थे उस ममय विद्युन' नामका चोर उनकी विद्यचर। बसुन हा य'. निनका उसपर चढव असा पद. ! और बर भी आने में नसी शिष्यों महिन वृ नय मुनि होमया : 4 : ह्यचक्षणपथा मद्धत पोदन के ना !,: : : प्रभ यो : इन माम! अध्ययन किया : ५.स -उ० पृ० २.९ नम्भूमार चल नापुके मजाक पुत्र हिना है; पान्तु वह विद्युबा इनसे भिम मोर भ. पाश्वनायके तीर्थ में हुये थे। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समित न इतिहास । करने के लिये रामगृह चला आया था। दक्षिण भारतके देशों उसने बासा भ्रमण किया था। समुद्र के निकट स्थित मरयाचल पर्वतार वा पहुंचा था । वहां वह सिंहलद्वीप भी गया थ'; नहाम वापिस र वह करल भाया था । द्रविड देशको उसने जैन मंदिगं और नियोंमे परि. पूर्ण देखा था। फिर यह कणांटक का बोज, कांचीपुर, सार्वन, महाराष्ट्राहिये होता हुमा विध्याचलके उप पर मामीर देश, कोहण, किष्किन्धादि पहुंचा था। इस वर्णनसे भी उम समय दक्षग भारतमें जैन धर्मका मस्तित्व प्रमाणिः होता है। ___जम्बकुमार और विद्युञ्च ने अपने माथियों महिन भगवान् सौवर्माचार्यसे मुनि दीक्षा ग्रहण की थी। विशुलाचल पर्वत परमे जब सुधर्मस्वामी मुक्त हुये तब जम्बस्वामी कंवत्रज्ञानी हुई। १-"क्षणस्य दिशा मुझं मलयानाम। पटरादिद्रुमाकोणमनामन म ॥ २१ ॥ भगम्यं 6 सिंहलं देशमुन्न म् दवित् गृहम जनकपरितम् ॥ २६ ॥ वीणं टसंज्ञच कावीर कौतुकानाम् । कांचीपुरं सुकांत्या व कांपनाम मनोहान् ॥१७॥ कागल च समामाघ मह्य पर्वतान्न न् । महाराष्ट्र च वैदर्भदेशं मानावना कम ॥ १८ ॥ विचं नर्मदातर प्रदेश विधान विपाटी समुलध्य तसलिनन ॥ २१९ ॥ -:म्बु. १. १८८. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९९ नन्द और मौ सम्राट् । उन्होंने मगधादि देशोंमें धर्मप्रचार किया और आखिर विपुकाचल पर्यतपरसे वह भी निर्वाण पषा । एकदा विद्युचर अपने पांचसौ साथियों सहित मथुराके उद्यानये विराजे; जहां उन पर घोर उपसर्ग हुआ । सब मुनियोंने समतापूर्वक समाधिमरण किया। उनकी पवित्र स्मृति में वहां पांचमी स्तूप निर्माण किये गये थे, जो अकबर बादशाह के समय तक वहां विद्यमान थे।" नन्द और मौर्य सम्राट् । शिशु नागवंशके प्रनःपी राजाओंके पश्चात मगध साम्राज्य के अधिकारी नन्द्रवंश के राजा हुये थे। उन समय मगधका शासक ही भारत वर्षका नन्द - राजा । प्रमुख और अप्रगग्य नृप या सम्राट् समझा जाता था। इसी कारण मगधका अधिकार पाने ही नन्दराजा भी भारत के प्रधान शासक समझे जाने लगे। यहां तक कि विदेशीयूनानी लेखकोंने भी नन्दोकी प्रधानता और प्रसिद्धिका उल्लेख किया है । इन नन्दोंने सम्राट् नन्दवर्द्धन और महापद्म मुख्य थे । नंदबर्द्धनने एक भारतव्यापी दिग्विजय की थी, जिसमें उसने दक्षिण भारतको मी विजय किया था । दक्षिण भारतके एक शिलालेखसे यह स्पष्ट है कि नन्दग १- मम्पू० पृ० १०-११. मथुरा में रिकी स्मृति स्तूपोषा होना इस कथानककी सत्यताका प्रमाण है । २- १०, पृष्ठ १३९ । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.] संशित के इतिहास । जामोंने कुन्तलदेश पर शासन किया था और कदम्ब बंशके राजा उन्हें अपना पज मानते थे।' कुन्तलदेव भाजकलके पश्चिमीय दक्खिन (Decoan) और उचरीय मैसूर जितना था । दक्षिणमार. तके होसकोट जिलेमें नन्दगुडि नामक ग्राम उत्तुभुज नामक रामाकी राजधानी बताई जाती है और कहा जाता है कि नंदराजा उसके भतीजे थे । उसने उनको कैद कर लिया था; परन्तु उन्होंने मुक्त होकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था। परन्तु कहा नहीं जा सकता कि इस जनश्रुतिमें कितना तथ्य है, नो भी यह स्पष्ट कि नंद साम्राज्यका विस्तार दक्षिण भारत तक था। कुंतलदेश नन्दराजाओं के शासनाधीन था ! नन्दराजामों के पश्चात् भारतके प्रधान शासक मौर्यवंशके शासक हुये । चन्द्रगुप्त मौर्य्यने मन्तिम मौर्य-सम्राट्। नंदराजा और उसके सहायकको परास्त. करके मगध साम्र उस पर भग्ना अधिकार जमाया था। उपर पश्चिमोत्तर सीमा प्रांतसे यूनानियों को स्वदे. इकर चन्द्रगुप्तने उत्तर भारतमें अफगानिस्तान तक अपना राज्य स्थापित किया था। और यह प्रगट ही है कि दक्षिण भारत के एक भागको नन्द राजाओंने ही मगध साम्राज्यमें मिला लिया था। इसलिये चन्द्रगुप्तका अधिकार स्वत: उस पदेशपर होगया था। एक शिलालेखमें स्पष्ट कहा गया है कि शिकारपुर तालुकके नाग १-का• ७, शिकारपुर २२९ । २३६, मैकु• पृष्ट ३ व जमीसो. मा. २२ पृष्ठ ५०४ । २-मीसो० मा. २२ पृष्ठ १.५॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्द मौर मौर्य सम्राट् । [..१ खण्डकी रक्षा प्राचीन पत्रिव-चारित्र-बाय-चन्द्रगुप्त करते थे।' चन्द्रगुप्तने कृष्णा नदी के किनारेपर भी शालममें एक नगर भी बसाया था। किन्तु मालूम होता है कि मोयोको उपगन्त दक्षिण भारतमें मधिकाधिक राज्य विस्तारकी बाकांक्षा हुई थी। तदनुसार मौर्योने तामिल देशपर माक्रमण किया था। मौय्योंके इस भाक्रमणका उल्लेख नामिलके प्राचीन संगम्' साहित्यमें मिलता है। संगम कवि मामूलनार, पानर, प्रभृतने अपनी रचनामोंमें मौर्य-माक्रमणका वर्णन किया है। उससे शात होता है कि दक्षिणके नीनां प्रधान राज्यों-चेर, चोल, और पांण्डयने मिलकर मौयोका मुकाबिल दिया था। ____नामिल मेनाके सेनापनि पाण्डियन्नेदुन्नेलियन नामक महानुभाव थे । मोहरका गजा उनका सहायक था। उधर मौयोंके सहायक वेडुकर अर्थात् नेलुगु लोग थे । तामिळोंमे पहला मोरचा बकर लोगोंने लिया था; परन्तु तामिलोसे वे बुरी तरह हारे थे। इस मयं मौर्य सम्राट् ग्णाङ्गणमें उपस्थित हुये थे और घमासान युद्ध हुआ था; किन्तु वेस्ट पर्वतने मौर्योको मागे नहीं बढ़ने दिया यः । फिर भी यह प्रगट है कि मौर्य मेमर नक पहुंच गये थे । माथ ही विद्वानों का अनुमान है कि दक्षिण भारतपर यह भाक्रमण सम्राट विन्दुसार द्वाग हुमा थी। क्योंकि अशोकने १-सोपस नं० २६३ का शिाख, बो १४ वीं शताब्दिका है। मकु• पृष्ट १० एरि• मा०९ पृष्ठ ९९ । २-जमीसो., माग १८ पृष्ठ १५५-१९६॥ ३-अमीसो., माग २२ पृष्ठ ५.५/ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२] संक्षिस जैन इतिहास । केवल एक कलिजका युद्ध लड़ा था परन्तु उसके शासन लेख मैसूर तक मिलते हैं। इस प्रकार मौय्योंका शासन दक्षिण भारतमें मैसुर प्रान्त तक विस्तृत था। सम्राट अशोकके धर्मशासन लेख मेसरके पति निकट मिले है। प्रमगिरि, मिद्धपुर, जटिक, रामेश्वर सम्राट अशोक। पर्वत. कोप्पल चोर बेरुन्गड़ी नामक स्थानोंसे उपलब्ध मशोक लेख वहांतक मौर्यशामनके विस्तारकं घातक हैं। किन्तु 'ब्रह्मगिरि के धर्म लेखमें सम्राट् माता-पिता और गुरुकी सेवा करनेपर जोर देते हैं, यह एक खास बात है। यह शायद इसलिये है कि यह धर्मलेख मैसूरके उस स्थानसे निकट अवस्थित है जहाँपर अशोके पितामह सम्राट चन्द्रगुप्तने आकर तपस्या की थी ! श्रवणबेलगोलसे ही चंद्रगुप्तने स्वर्गारोहण किया था। भयोकने अपने पितामह के पवित्र समाधिस्थानकी बन्दना की थी। मालम होता है, इसीलिये उन्होंने ब्रह्मगिरिक धर्मलेसमें लास तौरपर गुरु गोर माता-पिताकी सेवा करनेकी शिक्षाका समावेश किया था। मो० एस० मार० शर्मा यह प्रगट करते है। और यह हः पाले ही प्रमाणित कर चुके हैं कि बौद होनेसे पाले अशोक बेनी वा भौर अपने शेष श्रीवनमें भी उसपर जैन धर्मका काफी प्रभाव रहा था। सचोकने जैनोंका उल्लेख निर्घन्य और भमण नामसे किया था। १-ब• पृष्ठ ९४-९६ । २-संबहि, मा० १ खण्ड १ पृष्ठ २१५-२०।३-वेबई., बन्याय २। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्द और गौर्य सम्राट् । किन्तु मौर्य सम्र टोय चन्द्रगुतका ही समय दक्षिण भार. तमे विशेष और महत्वशाली गा। सम्राट चन्द्रगुप्त! एक शासक रूपमे ही 48 सम्रार दक्षिण भारतीयोंके परिचय में बाये देवल इतना ही नहीं बल्कि वह उनके बीच एक पूज्य मायके भेषमें विचरे थे। जैन सत्रों और शिलालेखोंमे प्रगट है कि जिम मःम्राट चन्द्रमान मानक शासन का है ये उस समय उत्तर भारतमे पE भयंकर दुष्काल पड़ा. जिसके कारण लोग प्रात्रि iह कान नंगे ! इस समय जन संघका प्रधान केन्द्र मगर पा और श्रुतवल: भद्रबाहु मोर नाचार्य स्थूलभद्र मंष नेता थे । भदबहुम्न माने इस दुकालका होना अपने दिव्यज्ञानसे. जानकर पहले ही कपन का दिया था। ____ मम्रद नगुन इन बानायो शिष्य थे। उन्होंने जब गुरु भद्राहुनी नुप्रय दुकान ममाचार मुन्नी उनोंने अपने पुत्रका गतिला का दिया और मयं मुनितीक्षा कर श्रुतंकवली साथ हो लिये । भदवाइन्सामी मंरको लेकर दक्षिण मारतकी ओर चके गा। मैमूर प्रांत में श्रवणबेलगोलके निकट टबम पर्वतपर वह ठहर ग्ये, और मंघको आगे चीलदशमें जाने के लिये मादेश दिया। मुनि चन्द्रगुम उनकी वैयावृत्ति लिये उनके साथ रहे थे। वहीं तपश्ररण करने हुये भद्रबाहुस्मामी स्वर्गवासी हुये थे १-संबहि, मा०२ बँड १ पृ. २०३-२१८, अब. ३०-३२ वैशिख• भूमिका। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१] संमिशन इतिहास । और चन्द्रगुप्त मुनिने भी वहींसे समाधिमरण द्वारा स्वर्गगम किया बा । उत्तर भारतमे जैन संघके दक्षिण भागमनकी इस बानों के पोषक दक्षिण भारतके वे स्थान भी हैं जहां आज भी बताया जाता है कि इस मंघके मुनिगग ठहरे थे। अोट जिलका तिरुमलय नामक स्थान इस बात के लिये प्रसिद्ध है कि वहां भद्रबाहुनीक संघबाले मुनियोंमेसे माठ हजार ठहरे थे। वहाँ पर्वत पर डेढ़ फुट लम्ब चाणचिह्न उपकी प्राचीनताके योतक है। इसी प्रकार हसन जिले के हमवृतनगर ( जो हेमवती नदी के तट पर स्थित यः : ; के विषय में कहा जाता है कि वहाँ श्रुतकेवली भद्रबाहुजीके मंयके मुनि उत्ता भारतसे नाकर ठहरे थे ।' उपर तामिळ भाषाके प्रसिद्ध नीतिकाव्य · नालाहियार' की रचना विषयक कथासे स्पष्ट है कि उत्तर भारतमे दुर्भिनके कारण पीड़ित हुये भाट हजार मुनिगण पाण्ड्य देश तक पहुंचे थे। पाण्ड्यरेश उप्रपेरुकलीने उनका स्वागत किया था। पाण्ड्यनरेश उनकी विद्वत्तापर ऐसा मुग्ध हुमा कि वह उनसे मला नहीं होना चाहता था। हठात् मुनियोंने पानी धर्मरक्षा के लिये चुपचाप वहांसे प्रस्थान कर दिया: परन्तु चलने के पहले उन्होंने एक एक पद्य रचकर आने२ मामन पर छोड़ दिया : यही 'नाला. रियार' काव्य बन गया । मागंशतः इन उलेखों एवं अन्य शिला P-ममप्रास्मा० पृष्ठ ७४ । २-गैमकु०, मा. २ पृष्ठ २०६। ३-हि. भाग १४ पृष्ठ ३३२ बात नहीं कि पाण्डक नरेशका - Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्द मौर मौर्य सम्राट् । [१.५ मेलादिसे सम्राट् चन्द्रगुप्तका मुनि होकर श्रुनदेवकी मदबाहुजीके साथ दक्षिणमारतमे आना है। इन मुनियों के भागमनके कारण वहां पहलेसे प्रचलित जैन धर्मको विशेष प्रोत्साहन मिला प्रतीत होता है। किन्तु इसी समय उत्तरमारतमें नमाम्यवश जैन संघ मतमेनका शिकार बन गया था; मिसके परिणामस्प हमका एकधागार प्रवाह इधर उधर पर चला था। स्वेताम्बा संप्रदायके पूर्वरूपमें कामक' मान्यतावालोका बन्म इसी समय रोगया था और उपगंत वही विकमित होकर ईबी प्रथम शताब्दिमें स्पष्टतः श्वेताम्बर संपदायके नामसे प्रख्यात् रोगया था। मूल जैन मंघक मनुयायी निथ कामांतर 'दिगंबर' नाममे प्रसिद्ध होगये थे। यह मनाने हम पहले ही लिख चुके हैं।' मम्राट चन्द्रगुप्तके प्रसिद्ध मंत्री चाणक्य के विषय भी कहा ___ जाता है कि वह जैन धर्मानुयायी ये चाणक्य। और अपने अन्तिम जीवन में बह जेन साधु हो गये थे । माखिर यह आचार्य हुये थे और अपने पांचौ शिष्यों सहित देश-विदेश में विहार करके वह दक्षिण भारतके वनवास नामक देशमें स्थित काचपुग्में मा विगजे। वहीं उन्होंने प्रायोपगमन मन्याम लिया था।' एक जननि चाणक्यको 'शुक्रतीर्थ' में एकान्नवास करने बतानी है। संभव है कि यह शक्कतीर्थ जैनोंका बल्गोल. य: 'बालसा' तीर्थ १-संहि. भाग २ सण १ पृष्ठ २०३-२१० २-पूर्व पुस्तक पृष्ठ २३९-२४२ । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.६] संक्षित जैन इतिहास । हो।' हनी बातों को देखते हुये विद्वज्जन जैन मान्यताको विश्वसनीय प्रगट करते हैं। चन्द्रगुप्तके समान ही उसका पोता सम्पति भी जैन धर्मका अनन्य भक्त था । वह धर्मबीर होने के सम्राट् सम्पति। साथ ही रणवीर भी था। कहते है कि उसने अफगानिस्तानके मागे तुर्क, ईगन आदि देशोंको भी विजय किया था। इन देशोंमें सम्प्रतिने जैन विहार बनवाये थे और जैन साधुमोको वहां भेजकर जनतामें जैन धर्मका प्रचार कगया था। विदेशोंके अतिरिक्त भारतमें भः सम्प्रतिने धर्मपभावनाके भनेक कार्य किये थे। उन्होंने दक्षिण भारतमें भी अपने धर्मप्रचारक भेजे थे। किन्तु सम्प्रतिके बाद मौर्यवंशमें कोई भी योग्य शासक नहीं हुआ । परिणाम स्वरूप मौर्य साम्राज्य छिन्नभिन्न होगया और दक्षिण भारतके राज्य भी ब धीन होगये। अशोकके एक धर्म १-जस पृष्ट ९। । २-" This co-incidence, if it were merely eocidental, is certainly significant. Apart frow minor details, this confirms the opinion of Rhys Dovids that the linguistic and epigraphical evidence so far available confirms in many rospects the general reliability of the traditions ourrent among the Jains..." -Prof. S. R. Sharma, ४. .. ३-स. मा. २ण्ड ११ १९३-२९९ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्ध्र- साम्राज्य । [ १०७ लेख यह ष्ट है दक्षिणकेचे बोल पण्ड्य राज्य पहले से ही स्वाधीन ये और मौयोंके बाद माधवशी बलवान होगये. आन्ध्र - साम्राज्य | नर्मदा और विन्ध्याचलके उपरान्त दक्षिण दिशा के सब ही प्रांत दक्षिणापथके नामसे प्रसिद्ध थे।' जननिक दृष्टि उनके दो भाग वस्तु हो जाते हैं। पहले भागमें वह प्रदेश बाता है जो उत्तर नर्मदा तथा दक्षि कृष्णा और तुङ्गभद्रा बीच है। और दूसरे भाग में वह त्रिकीजाकार भूभाग आता है जो कृष्णा और भद्रा नदियोंमे बारम्भ होकर कुमारी अंतरीक जाना है। यहाँ वामे तामित्र अथवा विदेश है इन दोनों भागकी अपेक्षा इनका इतिहास भी अलग अलग होजाता है। तदनुमायां हम मौर्योक बाद पहले भाग पर अधिकारी आन्ध्रवंशके राजाओंका परिचय लिखने हैं। दक्षिण भारतके दो भाग । अशोक के उपगत बान्धवंश के राजा स्वाधीन होगये थे। यह लाग शातवाहन अथवा शालिवाहन के नाम से भी प्रसिद्ध थे। और इनके ર आन्ध्र राजा । राज्यका मारम्भ ईस्वी पूर्व ३०० के लगभग हुआ था। चंद्रगुप्तके समय में तीस बड़े बड़े प्राचीरवा के १- गैव०, १०१३३ यूनानियोंने इसे 'दखिनबदेस' (Dakhinsbades) कहा था। २- मेकु०, पृष्ठ १५ । ३ - कामाइ०, १०१९१ । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] संलित जैन इतिहास । नगर मान्ध्र गज्यके अंतर्गत थे। मान्छोंकी सेनामें एक लाख प्यादे, दो हजार सवार और एक हजार हाथी थे । युनानी लेखकोंने हमें एक बलवान शासक लिखा है । अशोकके मरते ही इन्होंने अपने गज्यको बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया और सन २४० या २३० ई० पूर्वक लगभग पश्चिमी घाट पर गोदावरीके उद्भव मीर नामिकनगर उनके गज्यमें मम्मिलित होगया। धीरे-धीरे सरक्षक्षिण प्रदेश पर समुद्रमे समुद्र पर्यन्त उनका राज्य होगया ।' कहने हैं, मगधको भी मान्धीने, खारवेल के साथ जीत लिया था। कलिङ्गक जैन मम्राट खारवेलने आन्ध्र सम्राट् श तकर्णीको पगात किया था।' इमीमे अनुमानित है कि मगधविनय में वह स्वारवेल के माथ रहे थे। उनके समयमें पश्चिमकी ओरमे शक-छत्रपोंके पाकमण भारत पर होते थे । बान्धोंने उनसे बचने के लिये अपनी राजधानी महाराष्ट्र के हृदय प्रतिष्ठान (पैठन में स्थापित की थी। इनका पहला राजा सिमुक या मिन्धुक नामक था। इनका सारा राजत्वकाल करीब ४६० वर्ष बताया जाता है, जिसमें इनके तीस राजाओंने राज्य किया था। इस वंशके राजाओंमें गौतमी पुत्र शातकणि नामक राजा प्रख्यात था। नामिकके एक शिलालेगौतमीपुत्र शातकर्णि। बमें उसे गिजागिन' और अशिक, अश्मक मूलक सुगष्ट. कुकुर, अमान्त, अनृप, विदर्भ और मकरावन्ती नाम देशों पर सामन करने लिखा १-गैब०, पृ. १५४-१७२ । २-कुऐई., पृ० १५ । ३-जवि. बोलो., मा० ३ पृ. ४४२। -गमा०, पृ. १९। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गान्ध्र-साम्राज्य। [१०९ है। अनेक राजा-महाराजा उसकी सेवा करते और माझा मानते थे। वह शरणागतोंकी रक्षा करता और प्रजाके सुख-दुःखको अपना मुख दुः ममझता था । वह विद्वान, सजनोंका भाभय, यक्षका भागार, चारित्रका भंडार, विधाने भद्वितीय और एका धनुपर वीर था। उसने नक, यवन गौर पल्लयोंकी मंयुक्त मेनाको पगात करके भाग्नको महान मंष्टमे मुक्त किया था। इसी कारण वह 'विक्रमादित्य' नाममे प्रसिद्ध हुमा था। उसका गजत्वकाल पूर्व १०. ४४ वाया जाता है। प्रारम्ममें उमने बामणों के धर्मका पालन किया था, पान्तु भरने अनिम जीवन में यह एक जेन गृहम्य होगया थ' ! शवजयकी 'मृनिमें उसका एक मंगत भी भारम्म हुमा या जो भान तक पचलित है। गौतमीपुत्रके मतिरिक्त हम वंशके राजाओंमे बाल और कुन्तलमतकणि भी उल्लेखनीय हैं। हाल व्यापार। अपनी साहि:यक रचनाक लिए सिद्ध हैं भौः कुन्नलने मन ७८ ई० में पुनः शको अमाम्राज्यको म्वाधीन बनाया था। शालिवाहन शक इ. घटनाको निमें प्रचलित हुआ यः । मा बालमृद्धिशाली हुआ था। लोगोंमें उपाह और मान का हुआ था. निमम उन्होंन जीवन प्रत्येक १-०, पृष्ठ १४९। २-विक्रमादित्य गौतमीपुत्र शातकणिका विवेचनात्मक वर्णन ' संक्षिप्त जन इतिहास ' माग २ खंर २ पृ०-६१-६६ में देखना चाहिए। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...] संमित जैन इतिस। अंगको उन्नन बनाया था। वणिज-व्यापार खुब ही वृद्धिको पहुंचा था। पश्चिममे जहाज आकर भृगुकच्छ के बन्दरगाहपर ट करते ये। पेठन एक खास तरह का पत्थर और नगापुर । नेगपुर ) से मनलेन माटनें, मारकीन मादि कपड़ा एवं अन्य वस्तु भृगुच्छ गाड़ियों में ले जाई जाती थी और वहांस जहाजों में लाकर पश्चिमके देशों यूनान आदिको चली जाती थी। सोपाग; कल्याण. सेमुल्ल इत्यादि गा व्यापारकी मंडियां थीं। लोगोंके लिये आने-जानेकी काफी सुविधा और उनकी रक्षाका समुचित प्रबन्ध था। भारतीय व्यापारी निश्चित होकर देश-विदेश व्यापार काक मृद्धको प्राप्त होहे थे। वाणिज्यके भनुरूप ही माहित्यकी भी आन्ध्रकालमें मच्छी उन्नति हुई थी। मान्ध्रशके भनेक गजा साहित्य । मारित्यरमिक थे और उनमें से किन्हीं स्वयं ही स्चमाय भी रची थी। सम्राट हालकी • 'गाथा सप्तशनी' पसिद्ध ही है। परन्तु यह बात नहीं है कि मान्ध्र कालमें केवल प्राकृत भाषाकी । उनति हुई हो. बलिक संस्कृत भाषाको भी इस समय प्रोत्साहन मिला था। प्राकृत भाषाका प्रमुख अन्य बृहत्कथा' था, जो महाकवि गुणाढ्य की रचना थी। कहा जाता है कि गुणात्यने कारणमति नामक भाचार्यसे जानकर कपासाहित्यका यह मद्वितीयअन्य रबका मालिवाहन गजाको भेंट किया था। वह कारणभूति एक जैनाचार्य प्रगट होते है। उधर १- पृष्ठ १७४-१७६ । २-बगै• पृष्ठ १७०-१७१। . ३-'वारका बहान-ब' देखा। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्ध्र-साम्राज्या [१११ संस्कृत भाषाका भपूर्व व्याकरण कातन्त्र' भी एक मामिाहन रानाके लिये रचा गया था ! हने हैं कि यह भी एक जैनाचार्यकी कृति थी। जैन विद्यालयोंमें इसका पठनपाठन भाज भी होता है। लोगों : बदिकधर्म साथ-साथ बौद्धधर्म और मनधर्मका भी प्रचार था। मामाजिक संस्थायें प्रायः पुदुर धर्म। दक्षिण देश जैमी ही थीं।' कालकाचार्यक थन में प्रगट है कि पैनके गजा वह गुरु थे। जैन मुनियों और मार्यिकानों का भावगमन राजपासादये भी था : गजा मोर प्रजाको जैन गुरु धर्मकी शांति और मुखकर शिक्षा दिया करने थे। उनका धर्मापक बकाया भी था। यही वजह है कि गौतमीपुत्र और हाल विषय अनुमान किया जाता है कि वे जैनधर्मानुयायी होगय थे. माध्रदेश मधन • नो.पनों और उत्यकामोंमे परिपूर्ण था। प्रतिप्रिय जनों का ध्यान हम देशके सौन्दर्यकी ओर आकृष्ट हुमा । टन संध वहा पहुंचे और अपनीअपनी पनिक' स्थापित कर बस गये । माग देश जैन मंदिरोंसे अलंकृत और जन मुनियों धर्मापदेशमे पमित्र होगया। 9-" The Aodhra os Sutavahana rule is characterised b: almost the same social features as the further south; bie in point of religion they seem to have been great patrons of the Jains and Buddhists."-S. Krishnaswani Aiyan. gor in the Ancient India, page :4. २-साई., मा. २ पृष्ट ८९। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] संक्ति मेन इतिहास । मुदूर दक्षिणके राज्य । (द्राविड़-राज्य) गोदावरी और फिर कृष्णा एवं तुभवासे परे दक्षिण दिशामें जो भी प्रदेश था वह तामिल अथवा द्राविड राज्योंकी द्राविड़ नामसे परिचय माता था। यह सीमायें। द्राविड़ अथवा तामिलदेश तीन भागों मर्थात् चेर, चोक और पाण्ड्य मण्डलोंमें विभक्त था । पाण्व्यमंडळ 'पण्डि नाडु' नामसे विख्यात् था भोर यह बर्नमानके मदुग जिला जितना था।' शोकके समयमें पांड्य राज्यमें मदुरा और तिनावलीके जिले गर्मित थे। मदुरा उसकी राजधानी थी, मो एक समय समृद्धिशाली बहुजनाकीर्ण बौर परकोटेसे वेष्टित नगर था। पांड्योंका दमरा प्रमुख नगर को ( Korkui) 11 चोलमंडलका दूसरा नाम 'पुनलनाडु' था और युर (उरगपुर) उसकी राजधानी थी, मो वर्तमान में ट्रिचनापली नगर के सान्निकट भवस्थित थी। चोल राजका विस्तार कांगेमण्डक जितना था। पुकर अर्थात् कावेरीकम्पहनन् चोलों। प्रधन बन्दगाह था: प्राचीनकाबमें चम्मण्डलका विस्तार मैलर. कोइ बटी नाम, दक्षिा मावार, दावनमार पौर कोचीन जितना था। इसकी नी कर अथवा १-जमीसो०, भा० १८ पृष्ट २१३ । २-लामः० ० २८६ । ३-बपीसो०, मा• १८ पृ. २१३ । ४-छाम• पृ० २८६ । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बान्ध्र-साम्राज्य [११३ बलिथी और पाण्यदेव इससे पश्चिममें थी। वह तीन राज्यही दक्षिण भारतचे प्रमुखये। दक्षिण इन तीनों राज्यों का उल्लेख सम्राट अशोक धर्मः लेखमें हुमा है। और सम्राट् खारवेल के शिलालेख और शिबानेम्व में भी इनका उल्लेख मिलता द्राविड राज्य। है पान्तु साहित्यमें इन तीनों गज्योंका ममित्व एक पनि प्राचीनकालमे सिद्ध राता है। कास्वावन-वातिका में पण्ड्य. चोकमादिका उलेख है। पातदिने इसी प्रकार माहिमनी, बेदर्म काशीपुर भोर कर. बका उल्लेख किया है। महामान' (वनपर्व ११८) में द्राविड़ देशको उत्तरीय मीमाये गोदावरी नदीका उल्लेख है। यूनानी लेम्बको टोल्मी मादिने भी इन देशों का उलम्ब किया है।' ___ उपर अन साहित्यसे भी च. चीन और पाण्ड्य राज्योंका प्राचीन अस्सिव प्रमाणित है। महागा जैन साहित्य में कृष्ण युद्ध, जब जा सिंधुमे हाहा था द्राविड़ राज्य। दवड देके गजा भी उनके पनमें थे। मादा होता है कि प.प्टोक दक्षिण मधुगमें राज्य स्थापित न कण उन राज्यों। सम्पर्क उत्तर भाग्नीय राज्योंमे घनिष्टनामे : गित होगया था। चचील. १-कच. पृष्ट २५० । २-३. पृट ११३-११९। ३बविमोसी० मा० ३.४४६ । ४-ग. पृ० १३८ । ५-महामाव्य, १. १, १९। ६-ग• पृ. १३८-१२। -रि.पृ. १६८। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] समितीन इतिहासः। पाण्य.इन द्रविड़ राज्योंका युधिष्ठरादि पाण्डयोंसे महरा सम्बन्ध बा। विदित होता है कि जिस समय पल्लवदेशमें विराजमान भगवान् मरिहनेमि के निकट पाण्डवोंने बिनदीक्षा ली थी, उसी समय इन द्रविड़ राजाओंने भी मुनिव्रत धारण किया था। पाण्डवोंके साथ तप तपकर यह मी शत्रुजयगिरिसे मुन्न हुये थे।' भगवान भरिष्टनेमिक तीर्थ ही कामदेव नामकुमार हुवे थे। नागकुमारका मित्र मथुराका राजकुमार महाव्याल था। यह महाव्याल पांड्यदेश गया था और पाण्ड्य गजकुमारीको व्याह साया था।' इसके पश्चात म० पार्श्वनाथके तीर्यकालमें करकण्ड रामा हुये थे, जिन्होंने चे, चोल और पाण्ड्य गजाओंको युद्ध में परास्त किया था। करकण्डुको यह जानकर हानिक दुःख हुआ था कि वे गजा चैनी थे। उन्होंने उनसे क्षमा चाही और उनका राज्य उन्हें देना चाहा; परन्तु वे अपने पुत्रोको गज्याधिकारी बनाकर स्वयं जैन मुनि होगये थे। इन उल्लेखोंमे चेर, चोल, पाण्ड्य गज्योका माचीन मस्तित्व ही नहीं बल्कि उनके राजाभों का जैनधमांनुयायां होना भी स्पष्ट है। दक्षिणामारतमें अरु तर पर्वत, एंवर मले, निरुमूर्ति पर्वत इत्यादि १-पंडुसुमा ति गा वि रिहाण बहकोरियो। हेतुबप गिरितारे गिनणगया णमो तेसिं ॥" २-'गंमोर विपदुदुहिणि गाउ-द हिणमाहिउ परिरा' -णायकुमारचरितार ३-41. पृष्ठ ७९-८०। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान ऐसे है जिनसे प्रगट होता है कि वहां पायादि प्राचीन महापुरुष पहुंचे थे। दक्षिणके इन नीनों राज्यों में पाण्ड्य गव्य प्रधान था। राज तकी अपेक्षा ही नहीं बल्कि सभ्यता पाण्य राज्य। और संस्कृतिक कारण पाण्डपक्षको हरी अस म्यान है। उनका एक दीर्घकालीन गज्म या मोर उसमें उनोंने देशको ग्यूष ही समृद्धिशाली बनाया था। पाण्ड्यगय भनि पानी काममे गेमवानके साथ व्यापार करना था। कहा जाता है कि पांड्याजाने मन २५६० १० में अगष्टम मीनरके दरबार में दुत मजे छ । यही मोगों के साथ नम श्रमणाचार्य भी यनान गये थे। यनानमें भारतीय रुपरेकी बहुत खरत थी। गेमन ग्रंथकार पाटर वीनसका इस बातका मन्देह था कि यूनानी मणियां भाग्नीय परिधान पहन निर्लज्जताकी दोषी होती है । वह मारतकी मनमको 'युनी हुई पबन के नाममे पुकारता है। बिनी एवं मन यूनानी लेखन शिकायत की है कि यूनानका करोड़ों रुपया विगसिताकी वस्तुओं मृल्पमें यूनानसे मारत चला पाता है। उस समय ई, ऊन और रेशमके कपडे बनते थे। उनके बोंने सबसे नफीस चूहोंकी उन गिनी जाती थी। खमके कादेतीस प्रकरके थे । सारांश यह कि पांड्य गवताकाटमें हां विला, कला और विज्ञानकी खूब उमति की। १-जमीसो. मा. २५ पृष्ठ ८८-८९।२-जमीसो. मा.१८ पृ. २१३१३-हिस्सा.,मा०२ पृष्ठ २९३३-माइ, पृष्ट २८७-२८८ -- - - - - -- -- Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समित व विज्ञास। पाका राजके समवये सर्वात् ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दिमें पाण्डव देख पानीका सीकाव बाया पाण्य विजय। था, जिसमें कुमारी और पहरूलि नामक नदियों का मध्यवर्ती प्रदेश जल. मम होगया था। अपनी इस पतिकी पूर्ति पाण्ड्य गजने चोकचेर राजामोंक कुन्हुर और मुत्तुर नामक निकोपर अधिकार जमाकर की थी। इस विजयके कारण यह पाण्ड्यराम नालन्तर तिरुवीर पाण्ड्यन् कहलाये थे। इन्हीं के समय में द्वितीय · संगम् साहित्य परिषद हुई थी। पाण्डयवंशकी इस मुक शाखाके मतिरिक्त दो अन्य शाखा मोका भी पता चलता है। ईस्वी पारकुरुके पाण्ज्य : प्रथम शताब्दिमें मधुग पाण्ड्यवंशके एक देव पाण्ड्य नामक रामकुमार तौब्व देशान्तर्गत बारकुरुमें मा बसे थे। और वहीं किसी जैनीकी यासे उनका व्याह हुमा था। कालान्तरमें वह बारकुरुको राजपानी बनाकर शासनाधिकारी हुये थे । इनके उत्तराधिकारी इनके मानजे भूतान पण्ड्य थे जो कदम सम्राट् भाधीन राज्य करने ये । इसी समयसे पाय देश निज पुत्र के स्थानपर मानजेको उत्तराधिकारी होने का नियम प्रचम्ति हुआ था। भूतालके पश्चात् क्रममा विद्युत पाण्ड्य (सन् १४८९०), बीर पाण्य (सन् २६२ १० तक), चित्रवीर्य पाण्डा (सन् २८११०) देववीर पाण्या १-पाई., मा. १ पृष्ट ३८-३९ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भान्ध-साम्राज्य (सन् २००६०), बम्बीर पाण्य (सन् ३१६६०) और जयवीर गज्य (सन् ३४३ ६०) ने राज्य किया था। इसके भागे इस माण्यवंशका पता नहीं चला।' पाण्यवंशकी एक दूसरी शाखा कारकनमें गज्याधिकारी थी। जिस समय तौला देशका शासन कारकलके पाण्य । कापिट्ट रग्गड कर रहा था, उस समय प्रजा उसके दुःशासनके कारण उस गई थी । भाग्यवशान कारकलमे हम्बुचके शासक जिनदत्तरायके बंशन मैग्य पाण्ड्य मडनिद्री नीर्थकी यात्रा करके मा निकले। दुखी प्रमाने उनसे जाकर अपनी दुख गाथा कही । भैरव पाण्याने हगाडको बुलाकर ममझाया, परन्तु उसपर उनके समझानेका कुछ भी मसर नहीं हुआ । हठात उन्होंने हंगडेको युदये परास्त कर उसके प्रदेशपर अधिकार जमाया । इनके उत्तराधिकारी कारक मारह और निम्नलिम्बित गामोंने वहां मकर राज्यशासन किया था। (१) पाख्य देबरम या पाण्ब चक्रवर्ती, (२) लोकनाय देवम्स. (३) वीर पाय देवग्स, (५) गमनाथ मरस, (५) मेररम मोडय. (६) बार पाण्ड्य भैरम बोय. (७ ममिनम पाण्यदेव, (८)हिरिव भैरवनय आडेय, (९.) हम्मरि मैग्वगय, १०)पांत्यप्प ओडेय, (११) हम्मर मेगवगवा (१२) गमनाय और (१३) वीर १-असिभा., मा. ३णि ३ पृष्ठ ९२ । २०४९३। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~..... . ११८] संमित जैन इतिहास । पाण्ड्य राज्यमे उस समय धार्मिक सहिष्णुता भी प्रचुरमात्राये विद्यमान थी। 'मणिमेखले' नामक धर्म। नामिक महाकाव्यमें एक स्थल पर एक नगरके वर्णनमें कहा गया है कि प्रत्येक धमलयका द्वार हर भक्त के लिये खुला रहना चाहिये । प्रत्येक धमा. चार्यको अपने मिद्धांतों का प्रचार और शासार्थ करने देना चाहिये। इस तरह नगरमें शांति और आनंद बढ़ने दीजिये।" यही वजह थी कि उस समय ब्राह्मण, जैन और बौद्ध तीनों धर्म प्रचलित होरहे थे। लोगोंमें जैन मान्यतायें खूब घर किये हुये थीं, यह बात 'मणिमेखले' और · शीलाधिकारम् ' नामक महाकाव्यों पढ़नेसे स्पष्ट होजाती है । 'मणिमेखले में ब्राह्मणों की यज्ञशालामा, जेनीकी महान पल्लियों (hermitages). शवोंक विश्रामों और बौदोंके संघागमोका साथ-साथ वर्णन मिलता है । यह भी इन काव्योम प्रगट है कि पाब्य और चोल रानामोंने जन और बौद्ध धर्मोको अपनाया यो । मधुरा जैन धर्मका मुख्य केन्द्र था। 'मणिमेखले का मुख्य पात्र कोवलन अपनी पत्नी महित १-जैमाई., पृष्ठ २९ । २-बुस्ट', पृष्ठ ३ । 1-"It would appear that there was then perfoot religious toleration, Jainism advancing mo far as to be embruood by monubors of tho reyal family......The epios give one the impre ssion that there two (Jain & Buddhist) religions woro patronised by the Chola aswell as by tho Pandym Kings."-पाईजे. पृ ४६-४७ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान सामान जिस समय मधुराको मारहा था तो मार्गमें एक जैनीने उमें साबपान किया था कि वे वहां पहुंचकर किसी जीवको पीडा न पहुंचायें और न हिंसा करें, क्योंकि वहां निर्यन्य ( मैनी ) इसे पाप बताते हैं। पुहरनगरमें नब इन्द्रोत्सब हुआ तो राजाने सब ही सम्प्रदायोंको निमंत्रित किया । जेनी भी पहुंचे और अपना धर्मोपदेश दिया, जिसके फजाप अनेकानेक मनुष्य जैन धर्म दीक्षित हुऐ। 'गीरप्पधिकारमाध्यमे प्रगट है कि उमके मुख्य पात्र मधुगकी यात्रा करने गये थे। मधुमप ममय तीर्थ समझा जाता था। वहां पासमें अनेक जन गुफायें थीं, जिनमें जैन मुनि तपस्या किया करते थे। 'भागवना कथाकार में प्राट है कि म. महावीरके उपगन्त वहांपर एक मुगुमाचार्य नामके महान साधु हुये थे।' मदराकी यात्राको चलकर वे पात्र पहले जैन साधुमांको एक 'पलि' चे ठहरे थे। वहां चिकने मंगमामाका चवृतग था. नमपसे जेनाचार्य उपदेश दिया करते थे। उन्हान उसकी परिक्रमा दे बन्दना की। वहांसे चलकर उन कावेरी नदीक तटपा आर्यिकाओं का भाश्रम मिला । देवन्धि भायिका मुख्य थी, वह भी उनके साथ होली। जैन भायिकाओं का प्रभाव उस समय तामिक बीसमाजमे खुब था। मागे कावर्गके बीच टापूमें भी उन्होंने जैन साधुके दर्शन किये । सारांश यह कि उन ठौर-टोरपार जैन मुनियों और मार्यिकाकि दर्शन होते थे। इससे वहां जैनधर्मका बहु प्रचलित होना सष्ट है। १- १-१८।२-वैसाई.8 २९।३-मा.। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३.] संति व इतिहास । चोल प्रदेशका नाम चोलमण्डल भा, जिसका अपमंश कोरो मण्डल होगया। उसके उत्तरमे पेलार मौर चोल राज्य। दक्षिणमें वेल्लारु नदी थी। पश्चिममें यह गज्य कुर्गकी सीमातक पहुंचता था। अर्थात् इस राज्यमें मदरास, मैसूरका बहुनसा इलाका और पूर्वीसागर तटपर स्थित बहुतमे भन्य ब्रिटिश जिले मिले हुए थे। प्राचीनकालमें इस गजवकी गजधानी उगईऊर ( पुगनी नृचनापली ) थी। और तब इसका पश्चिमके माय बहुत विस्तृत व्यापार था। तामिल लोगोंके जहाज माग्नमहामागर नया बसालकी खाड़ीमें दुर-दुर तक जाते थे। कावेरीप्पुमपहनम इस देशका बड़ा बंदरगाह था। चोलराजाओम प्रमुख कारिकल नामका राजा था जिसने लंकापर भाक्रमण किया था और कावेरीका बाघ बांधा था। इस गजाकी नाम अपेक्षा एक जिनालय भी स्थापित किया गया था, जिससे इस राजाका जनधर्मप्रिमी होना सही पाण्ड्य और चोल राज्यों के समान ही र मथवा केरल राज्य था। चर राजाओं के इतिहास विशेष चेर राज्य। उलेखनीय बात यह है कि उनके राज्यकालमें देहांतका शासन अधिकांश प्रजातन्त्र निबमोंपर चलाया जाता था, जिसका प्रभाव सारे राज्यपर पड़ा हुणा था। गांवों भिज मिन समायें प्रबन्ध गोर १-काभाइ• पृष्ट २९१-२९२ । २-माई.,मा.२ पृष्ट ३८॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्न सामान्य [२१ विचार सम्बन्धी अधिकारोंका उपयोग करती थीं। एक समय कोगुनाडु प्रदेश मी र राज्यके पन्तर्गत था, जिसमें वर्तमानका फोहम्मदर जिका, सलेमका दक्षिण-पश्चिमी भाग, त्रिचनापली बिलेका कमर तालुक भौर मदुग जिलेका पवनी तालुक गर्मित बा। कवि भानगिरिनाथाने कोंगु देशपर चर अधिकारका उल्लेख किया है। बलुलोरके शिलालेख में कोकानुन रवि और रवि को? नामक चेर गजाओंका उलेख है। प्राचीनकाल चर राजा अति प्रभावशाली ये मोर उनका सम्बन्ध उत्तर भारत के रामामोंसे था। सम्राट् श्रेणिकने एक केरल गजाकी सहायता की थी, यह पहले लिखा जा चुका है। इसमें भी पहले हस्तिनापुरके कुरुरामके सहायककांगु और कर्णाटक गजा थे। चा गजबकाल में भी धार्मिक उदारता उलेखनीय श्री। एक ही घमें जैन और शेव साथ-साथ धर्म। हने थे। शीलप्पषिताम्म' कायके कत्तां चं गजकुमार इसनणेबविगल बनी थे, जबकि उनके माई संगुतुबन एक शेव थे। तो भी उस समय च दशके निवासियों न धर्मका खूब ही प्रचार था। हैम्बी पहली इसग शतानिये कांगु देशके पहले तीन चर गमानोंके १-डामा०, पृष्ट २९२ । २-जमीमा०, मा. २१ पृष्ट ३९-१.। ३-'बहिं मम्मोहनाबाबा माहबटककोख सबब्बर । मयंग कुंग वेगढिवि गुजगोडळाटकमारबि ।' -मविसयतकाए सामः सन्धिः। ४-साइंब, मा. १ पृष्ठ ४६-४७ । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिक क्षेत्र इविक्षन। गुरू जेनाचार्य थे, बल्कि पांचवी शताब्दि तक उस बंशके राजा गुरू जेनी हो रहे । चेर राजा कुमार इनको मादिगलके पितामह एक महावीर थे । एक युद्ध में उनकी पीठमें घातक भाषात पहुंचा। उन्होंने अपना अन्त समय निकट जानकर सल्लेखना व्रत स्वीकार किया था। राजकुमार इगोबर्द्ध मा जैन मुनि हुये थे। कोंगु देखये अनेक प्राचीन स्थान से हैं जिनसे प्राचीनकालमें न धर्मका बहु प्रचार स्पष्ट होता है। विजियमङ्गलम् नामक स्थानपर चन्द्रप्रभ तीर्थरका एक जैन मंदिर है। उसमें पांचों पाण्डवोंकी तथा भगवान् ऋषभदेवकी भी मृतियां हैं। मंदिरके पांचवें बड़े कमरेचे पत्थरमें आदीश्वर भगवानको जीवन पटनायें पारित हैं।' इम प्रकार इन तीनों द्रविड गज्योंमें प्राचीनकाल से जैन धर्म प्रधान रहा था । इन राजवंशोक राजत्वका क्रम यह था कि पहले. चोकराज प्रधान थे; उनके बाद चेर राजामों का पावल्य रहा । मन्तमें पाण्यराज प्रमुख सत्ताधीश हुये । पाण्डयों के उपरान्त पल्लव. चालु. क्याविकी प्रधानता हुई थी. जिनका इतिहास मागे लिखा जायगा। द्राविड राजाबोंके राजत्वकालमें तामिळदेशका व्यापार मी ___ खूब उन्नतिपर म्हा था । निस्सन्देह दक्षिणब्यापार। भारतका व्यापार तब एक भार उत्तरभारतसे होता था तो दूसरी बार योरुपक देशोंसे भी १-पैसाई०, पृष्ठ २९-३० व गैमकु., मा० १ पृष्ठ ३७० । २-मीयो०, मा. २९१८-११। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्ध्र साम्राज्य। [१२३ वहांका व्यापार खुब चलता था। ऊर (Tr) से प्राचीन नगरके ध्वंसावशेषोंमें जैतूनकी लकड़ी मिली है जो मलावारमे वहां पहुंची अनुमान कीजाती है। सोन', भोती. हाथीदांत, चावल, मिर्च मोर. लंग मादि वन्तुयें दक्षिणमारतकी उपज थीं जो दाविड़ जहाजोंमें लादकर बिलन, मिश्र, यूनान और गेमको भेजी जानी थीं। इस व्यापारका मस्तित्व ईवी पूर्व ७ वी या ८ वी शताब्दिमे भी पह. लेका प्रमाणित होता है।' रोमन सिके तामिलनाडुमे उपलब्ध हुए हैं, जिनसे तामिक देशमें पश्चिमात्य व्यापारियों का भनित्व सिद्ध होता है। उन लोग 'यवन' कहते थे और इन यवनोंका उल्लेख कई नामिर क व्योमें है। तामिजराजागण हन विदशियाको मपनी फौजले भरती कान थे और उनके आत्माक्षक भी यह होने थे। कावेरी यमनममें इन यवनों का एक उपनिवेश था नामिलों का हन-सहन और दैनिक जीवन माधा-सादा था। उनकी पोशाक समाजमें व्यक्तिगत प्रतिष्ठा संस्कृति। और मयांदाक अनुमार भिन्न-भिन्न यो। मध्यश्रेणी के लोग बहुधा दी वरूप धारण करने थे। एक वाकी व अपने मिासे लपेट लेने व भोर दुसरेको कम से बांध लेने थे। सैनिकलोग बग्दी पहनने थे। सादा लोग मौसमके अनुकूल वस्त्र पहनने थे। लड़कोंकी शादी १६ वर्षकी उनमें पौर लड़कियोंकी १२ वर्षकी अवस्था होनी थी ! विवाह के लिये यही उम्र टीक समझी गाती थी! मृत व्यक्तियोंके दाहस्थानोपर १-हिमाल पृष्ठ १५८.... २-4मीसो. मा. १८ पृष्ठ २१३ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] संक्षित जैन इतिहास । मंदिर और निषधि बनानेका मी खिाज था। संग्राममें वीरगतिको प्राप्त हुये योद्धाओंकी स्मृतिम्वरूप 'वीरपाषाण' बनाये जाने थे जो 'वीरगल' कहलाने थे और उनपा लेम्व भी रहते थे।' तामिल जातियों के राजनैतिक नियम भी मादर्श थे। राजाको राज्यप्रबन्धमें सहायता करने मोर ठीकराजनैतिक प्रबंध। ठीक व्यवस्था कराने के लिये पांच प्रका की सभायें थी अर्थात् (१) मंत्रियोंकी सभा, (२) पुगेहिनोंकी सभा, (३) सैनिक अधिकारियोंकी सभा, (४) राजदनोंकी ममा और (५) गुप्तचरोंकी सभा । इन सभाओंमें कुछ सदस्य जनताके भी रहते थे। उसपर पण्डितों और सामान्य विद्वानोंको अधिकार था कि जिस समय चाहें अपनी सम्मति प्रगट करें। उपरोक्त सभाओंमें पहली सभाका कार्य महकमे माल और दावानीका प्रबन्ध करना था। दूसरी सबा सभी धार्मिक संस्कागेको सम्पन्न कराने के लिये नियुक्त थी। तीसरी सभाका कर्तव्य जिसका नायक सेनापति होता था, सेनाकी समुचित व्यवस्था रखना था। शेष दो समानोंके सदस्य राजाको मंधि-विग्रहादि विषयक परामर्श देते थे। गांवों के प्रबन्ध के लिये गांव पंचायतें थीं। न्याय निःशुल्क दिया जाता था-भाजकलकी तरह उसके लिये कोर्टफीस में 'स्टाम्प' नहीं लगता था। दण्ड व्यवस्था कड़ी थी-इसी कारण अपाय भी कम होते थे। १-अमीसो• मा० १८ पृष्ट २१४ । २-छामाइ• पृष्ठ २८९ व बमोसो. भा. १८ पृष्ठ २१४-२१५। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बान्ध्र सामान्या [१२६ तामिक राजाओं के समबमें शिक्षाका खुप प्रबार था । सियां भी आतंत्रतापूर्वक विषाध्ययन करती माहित्य। बी। उनमें कई मियां मच्छी कवियत्री भी। विद्वत्ता भी केवल उच्च वर्णक लोगों तक सीमित न थी। हरकोई अपनी बुद्धि-कौशलका प्रदर्शन कर सकता था। उन कोटिक साहित्यका निर्माण ठीक हो और साहित्य प्रगतिको प्रोत्साहन मिले, इसलिये एक • संपम ' नामकी समा स्थापित थी। जिसमें उद्भट विद्वान् गौर राजा रचनामोंकी समालोचना कर उन प्रमाणता देने थे। इस संघम्काल के जगमग पचास भनट तामिळ ग्रंथ भाजतः उपलब्ध है जो इतिहास लिये महत्वकी चीम है। जनाचार्य भी इस संघम्' में भाग लेने थे और नामिनका भारम्भिक साहित्य मधिकाश जैनाचार्योका ऋणी है । पाण्डय गजा 'पाण्डियन ठर्ग पैक वोटि ने इस मंघम ममा उलंबीय माग लिया था । उनी समक्ष नामिलका प्रसिद्ध काव्य 'कुल' संघममें उपित किया गया था और म्वीकृत हुमा था। उस समय ४८ महाकवि विद्यमान । 'कुरल' अनाचार्यकी रचना है, यह हम भागे प्रगट करेंगे। उस समय एक तामिल कवियित्री मनवैय्यार नामक थी। उसने राजाकी प्रशंसा एक मुंदर रचना रची थी। तामिल राज्यमें वैदिकधर्म और बौद्धधर्म मतिरिक्त जैनधर्म १-माइ• पृष्ट २८९-२९. जमीसो. मा• १८ पृष्ट २१५॥ २-मममामा• पृष्ट १.५। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमित ईतिहास भी एक प्राचीनकालमे प्रचलित था। सन् धर्म। १३८ में वहां अलेक्जेन्डियामे पन्टेनस नामक एक ईसाई पादरी माया था। उसने लिखा है कि वहां उसने श्रमण (जैन माधु ), ब्राह्मण और बौद्ध गुरुगोंको देम्वा था, जिनको भारतवामी खूब पूजने थे, क्योंकि उनका जीवन पवित्र था। उस समय जैनी अपने प्राचीन नाम 'श्रण' नामसे ही प्रसिद्ध थे, यह बात संगम् ग्रंथों यथा मणिमेम्बले, शीलपधिकारम् मादिके दम्बनेसे स्पष्ट होजाती है । निम्पन्देह 'श्रमण' शनका प्रयोग पहले पहले भनियोंने अपने साधुनोंके लिये किया था। उपरान्त बौद्धोंने भी उस शनको गृहण कर लिया और उनके साधु 'शाक्यपुत्रीय श्रमण' नाममे प्रसिद्ध हुए थे। दक्षिणमारतके माहित्य-अन्यों और शिलालेखोंमें सर्वत्र श्रमण' शब्दका प्रयोग जनों के लिये हुमा मिलता है। श्रमण और श्रमणो. पासक लोगों की संख्या वहां प्राचीनकालमें अत्यधिक थी। १-बबेस्मा• पृष्ट १४२। २-"The Jainus used the term 'Sramana' prior w the Buddhists is also conclusively proved by the faot that the latter stylod themselves 'Sakyaputtiya' Sramanas as distinguished from the already existing Nigganth Srananas." -Buddist India p. 143. selves is the fact that is also a Page #147 --------------------------------------------------------------------------  Page #148 --------------------------------------------------------------------------  Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जैन संघ । DO जैनियों में संप-परम्परा अति प्राचीन है। जैन सासोंसे पता चलता है कि नादि तीर्थकर ऋषभदेव के समय में ही उसका जन्म होगया था । ऋषभदेव के संपमें मुनि, मार्यिका श्रावक मौर भाविका, सं मेळित थे। वह संघ विभिन गणोंमें विभाजित था, यह बात इसमे प्रमाणित है कि छात्रों में ऋष भदेव के कई गणवरोका उल्लेख है परन्तु उन गणोंमें परस्पर कोई मार्मिक मेद नहीं था। उनका पृथक् अस्तित्व केवक संघ व्यवस्थाकी सुविषा के लिये था । जैन संघकी यह व्यवस्था, मालुम होता है भगवान महावीर के समय तक अक्षुण रूपमे चली भाई थी, क्योंकि जैन एवं बौद्ध ग्रन्थोंसे यह प्रगट है कि भगवान महावीरका अपना जैन संघकी प्राचीनता और उसका स्वरूप। १ - ऋषभदेवके ८४ गणका महत्व सभी बनी मानते हैं। देखा गए, मा० २ पृ० ८१ । २- सू० भ० पृष्ठ ११३-१२१ । ३-योप्रन्थ ' दोषनिकाय ' में म० महाबो के विष यमे एक उल्लेख निकार है: - "जयम् देव निगंठो नातपुतां घी चब गणी च गणाचार्यो च ज्ञातो यसस्सां, तित्वकरी साधु सम्मतो बस रत्तस्सु चिरपब्यजितो बद्धगतो वयोमनुपत्ता ||" ( मा० ११०४८-४९ ) । इस उल्लेख में निर्भय झालत्र ( म० महावीर ) को संघका नेता बौर गणाचार्य लिखा है, जिससे स्पष्ट है कि म० महावो का संघ था बोर उसमें गण भी थे । ..... Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३.] मंमित जैन इतिहास । संघ था जो गणोंमें विपक्त पाइन्द्रमति गौतम नादि ग्वारा गणा उन गणों की मार-संपान करते थे। किन्तु प्रमाकि इस वाचीन मंका गम मेष और किरायें क्या थी ? खेद है कि इस प्रथा पूर्ण और यथार्थ उत्तर देना एक पचासे असंभव है, क्योंकि ऐसे कोई भी सावन उगलन नहीं हैं जिनसे उस प्राचीन कासका प्रामाणिक और पूर्ण परिचय प्राप्त होसके। परन्तु तौमी स्वयं दिगम्बर एवं शेनामा जेन शत्रों और ब्रामण एवं बौद्ध अन्यों तथा भारतीय पुरातत्व यह स्पष्ट है कि प्राचीन-भगवान १-महापुगण, उत्तर पुगण, तथा महाचागदि प्रन्य देखिये। २-'कल्पसूत्र में लिखा है कि म०ऋषभदेव उपरान्त यथाबात-मनमेष में रहे थे और यही बात भ. महावीर के विषय में उस ग्रन्थ में लिखी हुई है। ३-'भागवत' में ऋषभदेवको दिगम्बा माधु लिखा है। (भम. पृष्ठ ३८) मावालोपनिषद् मादि इतर उपनिषदोंमें 'यथाजातरूपधर निग्रन्थ' साधुमोका उल्लेख है ।(दिमु.पृ०७८) ऋग्वेद (१०।१३६), बराहमिहिर संहिता ( १९४६१) माहिमें भी जन मुनियोंको न दिखाई। ४-महायाग ८,१५,३ । १,३८,१६, चुल्लबग ८,२८,३, संयुत्तनिकाय २,३,१०,७. जातकमाळा (S. B. B. I) पृ० १४, दिव्यावदान पृ० १६५, विशाम्बावस्थु-धम्म- पद-कथा (P. T. S., Vol. I) भा० २ १० ३८४ इत्यादि जैन मुनियों को न्न लिखा। ५-मोहनजोदगेके सर्व प्राचीन पुरातत्वमें श्री ऋषमदेव सी बेचिनयुक्त खगासन नगन मर्तियां मुद्राबोर कित है ( मारि. बगस्त १९३२) मौर्यकारको प्राचीन मति नही है (बेसिमा. मा. ३ पृ. १७)। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जैन-मेघ । ११ - 1. महाबीर से भी प्राचीन जैन संघ के साधु नद्म-पथः जातरूपमें ते थे- वह भनौदेशिक मोजन दिनमें एकबार करने थे- निमंत्रण स्वीकार नहीं करने थे-जनोपका में तल्लीन रहते थे। बसती से बहुत दुर एकांतवास करने थे। श्रावक और श्रविायें उनकी भक्ति - वंदना करते थे। उनमें से प्रमुख महापुरुषोंकी में मूर्तियां और निविषिकायें बनाकर उनकी भी पूजा किया करते थे। व्रती भावक श्वेत वस्त्र पहना करने थे। पकी यह रूपरेखा भी भ० महावीर के संके साधारणतः प्राचीन जैन दक्षिण भारत में नादि नीकर ऋषभदेव द्वारा ही जैनधर्मका प्रचार होगया था । यह पहले लिखा जा चुका है। और चूंकि ऋषभदेव स्वयं दिगम्बर बमें रहे थे, इसलिये दक्षिण भारतीय जैन संघके माधुगण भी उन्हींकी तरह नम मेषमें विचरते थे। दक्षिण भारतकी प्राचीन मूर्तियोंसे यही प्रगट है कि उस समय के जैन साधुगण नम रहते थे। वे साधुगण अपने प्राचीन नाम 'भ्रमण' से प्रसिद्ध थे और जैन संघ 'निर्ग्रन्थसंघ' कहलाता था। तामिलके प्राचीन काव्योंसे स्पष्ट है कि उनके रचनाकालमें दिगम्बर जैन धर्म ही दक्षिण भारतमें प्रचलित था । विज्ञानोंका मत है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य्यके गुरु श्रुतकेबली मद्र दक्षिण भारतीय जैन संघ । १- ममवु० पृ० ६१-६९ । २-ममबु० पृ० ६०-६१ । ३ - मेस्मा • पृष्ठ १५, ४१, १२, ६१, ६९, ७४ व १०७ ० भूमिका व चित्र देखो। ४ – साई पृ० ४७ व जेसाई० पृ० ४० । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] संहितास। बारी साप ही बेन धर्मा प्रवेश दक्षिण भाख दुमा पन्त अन मान्यता अनुपार दक्षिण भारतका जेन संघ इतना ही पाचीन था, जितना कि उत्तर भारतका बेन संघ था। वही बाबीकि उत्तर नकाम पड़ने पर पर्मग्बा भावमे भद्रबाहु स्वामी अपने संघको लेकर दक्षिण भारतको चले आये थे। उनका ही संच शाळउपमें दक्षिणका पहला दिगम्बर अन संघ प्रमाणित होता है। इसके पहले गौर कौन-कौन जन संघ थे, हमका पता लगाना इस समय दुष्कर ।। यह संघ मुनि, नायिका, भावक और श्राविकारूप चारों भागों में बंटा हुमा सुव्यवस्थित था। दाविद लोगोंमें इसकी खूब ही मान्यता थी।' विद्वानों का मत है कि द्राविड़ लोग प्रायः नागजातिके वंशज थे। जिस समय नागराजाबों का शासनाधिकार दक्षिण भारतका था, उस समय नागलोगोंके बहुतसे रीति-रिवाज और संस्कार द्राविड़ों घर कर गये थे । नागपूजा उनमें बहु प्रचलित थी। जैन तीर्थंकरों में दो सुपाश्व बोर वाकी मूर्तियां नागमूर्तियों का f-" The fact that the Juina community had a perfect organisation behind it shows that it was not only popular but that it had takon deep root in the soil. The whole oommunity, we loarn from the opics, was divided into two sections, the Sravakas or laynen and the Munis or ascetios. The privilege of enter ing the monastery was not denied to women and both mon and womon took vows of celibacy." Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दकि -का १५ मारश्य गती थी और जेनोंकी पापणा मी गति सरल की। हाविदोंने उसको सहमे ही अपना लिया या ! नती करणविश पूजा वीर निषि स्थापन प्रभाका मी उन लोगों का था।' परिणाम स्वरूप इस प्राचीन काल में जैनी उपगन्त.. साठवीं शताब्दिमे कहीं ज्यादा सम्मान्य और प्रतिसके। तामिक महाकाव्योमे तत्कासन बेन संपली क्रिगोंडा ठीक परिचय मिलता है। उनमे प्रगट 10 संपकी रूपरेला। निर्गन्ध साधुगण प्रमों और नगरे बाहर पल्लियों का विहार गते, को जातक छाबामे युक्त मोर का रंगसे पुती हो उनी दीगों थे। उनके मागे छोटे-छोटे बगीचे मी रोते थे। उनके मंदिर तिगो मोर चौगों पर बने होते थे। उनके गाने पर कर्म बने हुये थे जिन परमे बह पोम्देश दिया सने थे। विहारो माब माथ ही माविकायोंकि विनाम भी हुमा डरते थे, जिनसे प्रगट है कि तामिल सी समाजानी भाबिहाबोर काफी प्रभाव का। चोलोंडी राजधानी क महिनम्, सब जायेरी वटपर स्थित उपयु-में गोपनीय पतियां और किस । माग बेन संघका केन्द्र वा। यहां मविकट गुफागोवे और f १-मा . १८-R; साई. १२८....1 --उपाडवायो a का विवामोका मोर शामें मारें। (eg. प.) २-बाईक., मा. . . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] संक्षिा जैन इतिहास । मुनियोंक गावासका पता चलता है। वे मुनिगण दिगम्बर मर्ति योकी वंदना करते थे. यह बात उन गुफामोंमें मिली हुई प्रतिमामौसमट ! तामिळ बायोमे प्रगट है कि तबके नैनी बहद भगवान की भव्य मूर्तिकी पूजा किया करते थे। वह मूर्ति अक्सर तन सत्रमा अशोक वृक्षसे मंडित यापन हुआ करती थी। घे न दिसम्बर थे, यह उनके वर्णनसे स्पा तथा वे राज्यमान्य भी थे। "मणमेखले" से जैन सिद्धांत के उस समय प्रचलित Ki भी दिग्दर्शन होता है। उसमें जैन सिद्धांत। लिखा है कि "मनिमेखलाने निगंट (निबन्ध) से पूछा कि तुम्हारे देवकीन १और तुम्हारे धर्मशाला क्या लिखा है ! उसने यह भी पूछा किलो पदाधीकी उत्पति और बिना किस तरह होता ! उसमें निगम ने बताया कि उनके देव इन्द्रोदारा पूज्य है और इन बताये हुये धर्मश स्रोमे इन विषयों का विवेचन है। वर्ष, भधर्म, कास, माकाश. जीव, शास्वत परम गु. पुण्य, प, इनके हाग रचित बंध और इस वर्मधमे मुक्त होने का मार्ग । पदार्थ अपने ही मासे मना पर पदाकि संयोगवती प्रभावानुसार मनित्वमा नित्य है। एक मात्रके समय में उनकी तीनों दया १-ममेरामा, . १.७॥२-माई., मा० ११.८॥ . "That these Jains were tho Digamlarus is alearly soon from their description. "-BLJ. P. ३-साईब०, मा. १.५०-५१। - - Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जैन संघ । - [ १३१ उत्पाद, व्यय, घोष होता है। हरे चनको और चीजो साथ मिलाकर मिटई बनाकी गई परन्तु चनेका स्वभाव यहां नष्ट नहीं हुआ, यद्यपि उसका रूप बदल गया ! धर्मव्य हर ठौर है और वह प्रत्येक वस्तुको व्यवस्थित गतिमे हमेशा चलाने में कारण है। इसी अधर्मद्रव्य प्रत्येक पदार्थही स्थिर रखने कारण है और सर्व बिनाशको रोकता है। क्षण और लाग्शे म भी है। आकाश सब पदार्थों को स्थान देता है। जब एक शरीरमे प्रवेश करके पांच इन्द्रियों द्वारा चलता, सुरता, छूना, सुनता और देखता है। एक गणु शरीररूप अथवा मन्यरूप ( अनेक पाणुओंव मिलकर ) हो बाता है। पुण्य और पापमई को श्रतको गेना, संचित का परिणाम भुगता देना और सर्व कचन मुक्त होजाना मं है।" ६ मेनसिद्धांउका यह रूप ठीक वैसा ही है जैसा कि आज वह मिळ हा है। अच्छा तो, बहाक के विवेचन मे यह स्पष्ट है कि दक्षिण मारदिगम्बरधर्म ही प्राचीनकाल से श्वेताम्बर जैनो । प्रचलित था और उसकी मान्यता भी जनसमुदाय में विशेष थी। किन्तु प्रश्न बह है कि श्वेताम्बर सम्प्रदापके जैदी दक्षिण भारत में कब पहुंचे ! इस प्रश्नका उत्तर देने के लिये जैन संघके इन दोनों सम्पदाका उत्पत्तिकाल हमे स्मरण रखना चाहिए। यह सर्वमान्य है कि जनसंघ मेवकी जड़ मौर्यकालमें ही पड़ गई थी। उत्तरभारतमें रहे हुवे संघवें शिविकाचार प्रवेश कर गया था मौर उस संपके सामने ब Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] apan पानना भी नाम दिया किन्तु जब मालीन भद्रबाहु संख नम साधुगण उत्तम जाय तो बाप में संघर्ष गस्थित हमा ने प्रयत्न हुये पन्तु समझौता नहुमा। दुष्कालले विािबाको प्राप्त हुये साधुनोंने अपनी मान्यताओका पोषण करना बम कर दिया। शुरुमें मोंने एक खंडामही बजा विकासाले सिपाप किया-से बह रहे पाचीन समयेही। स मधुग पुगतलये कण नामक एक मुनि माने हायपर एक रकाये हुवे नम मेषको छुपते एक बाबागपट में दांव गो ।' बीरे परे जैसे समय बढ़ना गया यह मतमेन और 4 सरोगया और मालिईस्वी पहली शताभिमें प्रेस संघमें दिगम्बर गोवापर मेद विस्कुल एट होम'ही कारण है कि बाग्तके प्राचीन साहित्य और पुगतवर्षे हमें श्वापर संपदावका मलेवनी पिलता है। कहा जाता है कि मौर्य नट् सम्मति दक्षिण भारत जैनधर्म का प्रचार कराया था; पन्तु यह नहीं कहा बासका कि उम धर्मका रूप दशका! हमारे स्पालसे वह वही रोना चाहिये जो उपरोक्त तामिळ काय चिबित किया गया। यदि धर्म तामिक काव्योमेनिम धर्ममे मित्र था, तो कहना होगा किसम्पति द्वारा भेजे गयेधो देशकों को दक्षिण सफलता नहीं मिल श्री. ताम्मरीब शामोंमे पगट है कि नवकाचार्य पठनके राजाचे गुरु.थे; निमा म यह होगा कि वह बाध देशतक धुंने १-दा• पृष्ठ २५-ट. १०। २-41. मा. ३. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Imatीरी तामिता पाया. मासेड़ा किन्तुबानीहा बाया कि नावाने साथी की सा. एक सास सोपा मार न संपण -मिता' पन्ह सके बाद कर सबका कोई भी भइया तरीके बहुपसिद्ध संपले उपरांत शासन बिहिन पथके उस दिगम्बर मेकमीपरसेनाचार्य संघका पता चता , में भीमेवा. के समबमें महिमा नगमे संबिभूत-उदार। ति हुमाया। ग नगरी वर्तमान मनाग जिला महिमानगर ' नामक बाब प्रगट होता है। इस संपने परामर्श करके मोशस्थ वेण्यात क्ससे दो सा -पारगामो एवं तीवणबुदिरे पास मुनि पुंग. जोपासनाचार्य निार अन मध्ययन के लिये मेगा था। श्रीपरमेशचर्य उस समय सौदा सिर नगा गिनिगाके निर खगुफ में विराजमान थे। टपोक दोनों शिष्यो नाम उम्र समय: भूमि को पुतांत गाये थे और उननि उनको 'मरमेषतिपामृत' नामक अन्य मी पढ़ा दिया था। उपरांत भोपासनाचार्यजीने उन दोनों नाबायोको बिना किया, जिन्होंने (मोर निमार वर्मा बतीत किया। १ . मा.१.१० २१ । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३०८] बिनविस योगको समान करके तथा मिनालियो देशार पुगताचार्य बनवा देशको चले गये मोर मालिनी दामिल (दाविड़) देशको पायान कर गये। इसके बाद पुदंताचार्य ने बिनावितकदीका देडर, बीस सूत्रों (विंशति रूग्णात्मक सत्रों) की रचना कर और से सूत्र बिनशान्तिको पकाकर उमे भावान भूतबलिके पास भेजा। मन्होंने जिनपानित उन वाम सूत्रोंको देखा और उसे भयानु जानकर साफ मावसे उनहोंने 'षट् सप्यागम' नामक ग्रंपकी बिना की। इस समय श्री भूतालि भाचार्य संभवतः दक्षिण मदुरा विगजमान थे।' इस त इस पटवण्डागमथुनके मूल मंत्रकार भीमान महावीर, अनुत्रकार गौतमस्वामी मौर उपत्रकार माल-पुष्पदन्तादि आरायोको समझना चाहिये ।' ' उनोंने दक्षिण भारत के प्रधान नारों में रहकर भूनशानी हा की थी । दक्षिणी भी गुणपराचार्यने कसाब पाहुर' नामक श्रममावड़ा सा खा कर प्रबचन बासस्यका परिचय दिया था। वे सूरगापायें माचार्य-पम्पसे चलकर कार्यक्षु और नागउम्ती नामके वाचायों को प्राप्त हुई थी और उन दोनों भारयोरे इन गावाभो । मले प्रकार मर्ष सुनकर यतिमाचार्यने मर पनिषों की रचना की. जिनकी संख्या छ हजार लोक-परिमार । उपरोक्त दोनों मत्रप्रन्यों को लेकर ही उन पर 'पाण' और 'पा' नामक टोचाये रखी गई थी। इसपकार किन बार १-सिमा०, ३ किरण पर १२०-१२८ । २-सातार सया, पा .५संह.मा. २ खंड २ पृष्ठ-1पिया, मा. ३किरपृष्ठ १३१ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका देव-संघ | एके जैन संघ द्व| श्रु-ज्ञानका सं क्षण और प्रर्तन हुआ था। वे प्रन्थ अबतक दक्षिण भारत के मुह बद्री नामक स्थान सुरक्षित हैं; परन्तु र उनका थोड़ा बहुत प्रचार उतर भारतमें भी होता है। श्री इन्द्रनंदि कुन नागर' के आधार यह बात हम पहले ही मगट कर चुके हैं कि इस घटना के समय जैनसंघ नंदि, देव, सेन, बीर (पिंड) मौर संघ-भेद । भद्र नामक उपसंघों विभक्त होगया था। से विभाग श्री महेंद्र कि आचार्य द्वारा किये गये थे, परन्तु इनसे कोई सिद्धांतमेव नहीं था। यह मात्र संघ पत्रवाकी सुविधा के लिये महिलाये गये प्रतीत होने हैं। शिमोगा मिले नगरत स्लो में म स्थान प्राप्त शुक मं० २०९ के लिये हुये फनी शिलालेख ( नं० ३५) से भी राष्ट है कि मद्रबहुस्वामी के बाद यहां का ●का प्रवेश हुआ था और उसी समय गणमेद उत्पन्न हुआ था । वर्षात जैनमंत्र कई उपसंघों या गणने बंट गया था। वह इस समबड़ी एक विशेष घटना थी । (२५९ उपरान्त श्री भद्रबाहु स्वामीकी परम्गमे अनेकानेक कोड मान्य, ज्ञान-विज्ञान पाग्गामी और धर्मप्रभावक निर्धन मावार्थ हुबे थे। उन मेसे इस कालसे सम्बन्ध रखनेवाले कतिपय बाबाओं का संक्षिप्त परिचय यहां पर दिया जाना अनुग्युख मूल संघ । १-संबै३० भा० २ खंड २ पृष्ठ ७२-७३ | १ - ...... भद्रबाहु स्वामी गलिन्दशत कविकाव्यर्त्तनेवि गणमेद gfigy...." -रखा० जीवनी पृष्ठ· १९३ । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] मेमा। वहीं है। परन्तु साथ ही हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि श्री मावार्य द्वारा उपर्युक प्रकार उत्सव स्थापना होने पर निक उपरान्त संभवतः उन भाचार्यी नाम मपेक्षा 'बलात्कारमय' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। कहा जाता है कि इसी समय गिरिनार पर्वत पर तीथकी वंदना पहले या पीछे करनेके मनको केकर दिगम्बर और नम्बरोंने बाद उपस्थित हुआ था । दिगम्यने वहां पर स्थित 'सरस्वती देवी कर जपनी प्राचीनता और महता स्थापित की थी। इसी कारण उनका संघ मूलसंघ सरस्वती गच्छ के नामसे प्रसिद्ध होगया था। इसके बाद मुजे श्री कुंकुंद नामके एक महान् माचार्य की मूर्ति मुखसे कह 4 १-०० भा० २० पृ० ३४२ । दिगम्बायको इन मान्यताओंका बाधार केवळ मध्यकाळीम है। इसी कारण इन मान्यताको पूर्णतया प्रमाणिक माना कान है। परंतु साथ है। यह भी एक पति साहसका काम होगा, यदि हम इनको सर्वथा अविश्वसनीय कहीं; क्योंकि इनमें जो प्र गाथायें दी गई है वह इनकी मान्यताओंका प्राचीन पुछ करती है। यही कारण है कि डॉ० इनके सा० ने मी इन बलियोको सर्वथा कुन नहीं किया था। यदि थोड़ी देने लिए हम इन हाथयोकी मान्यताओंको कपोकप रूम घोषित करदें, तो फिर वह कौनसे प्रमाण और साधन होंगे जिनके आधार से हम 'मुहसंघ, सरस्वती कारण, कुन्दकुन्दान्वय' बादि सम्बन्धी विवरण उपस्थित कर सकेंगे ! इस कये हमारे विचारसे इन पट्टाब कियों को हमें उस समय तक अवश्य मान्य करना चाहिये कि उनका वर्णन | Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिणपन- [१५१ हुमोले बाबन डावासी मी साधुगण अपनेको मानवी' घोषित करने गौरवका . मव बायपर्वत पते बारे हैं। भगवान कुन्दकंवसाली यचिवकी महानताको प्रगट करने के लिये पर्याप्त है। ऐसे नाचार्य प्रबास परिचय पाठकों को मारकर होगा-माहवे, उमकी एक सांकी यहां के देखें। पावन संघमें अंतिम तीर्थकर १० बावीर पर्वमान और गणघर गौतमस्बानी के उपरांत भगवान मान्दिन्दाचार्य।न्दकुन्दको ही स्मरण करनेकी परि पाटी प्रचलित है' जिससे कुंदकुंदवा. मी भासनकी उपना स्पष्ट होती है। शिलालेखों में उनका नाम कोण्डकुंव दिखा मिलता है, जिमका उद्गम द्राविड़ भाषा है। उमीका श्रुतिमधुररूप मंस्कृत साहित्यमें कुंकुंर प्रचलित है।' कहते है कि इन भाचार्यप्रवरका यथार्थ नाम पद्मनंदि था, परन्तु वह कुरकुंद, वक्रग्रीव, एनाचार्य मोर गृदपिच्छ नामोंमे भी प्रसिद्ध थे। वह कुंडकुंद्र नामक स्थानके अषिवामी थे, इसी कारण पर १-"मंगल मगान वीरो, मंगलम् गौतमो गणो । मंगळं कुन्दकुन्दायः, बनबमोऽस्तु मंगलम् ॥" २-ओन शिलालेखसंग्रह (मा० .) भूमिका देखो। ३-एका• मा• २ नं. ६४, ६६, इंऐ• मा० २३ पृष्ट १२६ । बकनीष मोर गपिन नामके दूसरे बाचार्य मिलते है । इस. लिये कुन्दकुन्दस्वामीके ये दोनों नाम विद्वानों द्वारा अस्वीकारे। इसी तरह का कि-मामी संदिग्ध पहिले देवा पानी Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१. सलिन इतिहास। . कोणनाचार्य नामसे प्रसिद्ध हुए थे। 'बोषपामृ' कुन्दकुन्तसामीने अपनेको श्री भदवास्वामीका शिन्य लिखा है। 'पुण्या माया' ग्रंथसे स्पष्ट है कि दक्षिण माग्तरे पिदथनाडू प्रांत कुरुमाय नामक गांव, था, जिसमें कामुण्ड नामक एक मालदार सेठ रहता था। उसकी पत्नी श्रीमती थी। उही कोख से भगवान कोण. कुन्दका जन्म हुमा था। वह जन्ममे अतिशय बयोपशमको लिंग हुये था । और युश होते होते वह एक प्रकाण्ड पण्डित होगये थे। कोण्डकुन्दका गृहम्प जीवन कैसा रहा यह कुछ ज्ञात नहीं; परन्तु मुनिवीक्षा लेने पर वह पद्मनन्दि नामसे प्रसिद्ध हुये थे-माचार्य रूप में यही उनका यथार्थ नाम था । पद्मनन्दि स्वामी महान् ज्ञानबान थे-उस समय उनकी समकोटिका कोई भी विद्वान न था। विदेहस्य श्रीमंपास्वामीके समवशरणमें उनको सर्वश्रेष्ठ साधु घोषित किया गया था और वह स्वयं विदेह देशको श्रीमंधरस्वामीकी बंदना करके ज्ञान प्राप्त करने गये थे। शिवकुमार नामक कोई नृर उनके शिष्य थे। उन्होंने भारतमें जैन धर्मका खूब ही उद्योत किया था। उनका समय ईस्वी प्रथम शताब्दिकं लगभग था । द्राविड संघसे भी उनका सम्बन्ध वा । माखिर वह दक्षिणके ही नर स्न थे। कहते है कि उन्होंने ८१ पाहुड़ प्रबोंकी रचना की थी; परन्तु विशेषके लिये प्रो. ९. एम. उपाध्ये द्वारा सम्पादित "प्रवचनसार" की बची भूमिका तथा पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारकी उसकी समालोचना (जैसिमा० मा० ३ ० ५३) देखना चाहिए। १-प्रो. चक्रवतीने इन पल्लववंशके शिवस्वन्तकुमार नृप बताया है। .. . -प्रसा• भूमिका पृ. २०। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रविन भारत । [ इस समय उनके रचे हुए निम्नलिखित मिसे है (१) दशभकि, (२) वंसपाहुर, (३) वारिपार, (५) सुगर, (५) कोषपाहर, (६) मावाहुइ (७) मेक्सपाहुर. (८)' जि . (९ सीमा (१०) •णमार. (११) पारस-पशु-' बेला, (१२) नियमसार. (१३, पासा, (११) समय सार, (१५) पचनमार। श्री कुन्दकन्दाचार्य के उपरोक्त सब ही अन्य प्राकृत भाषा चे गये थे और दिगम्बर जैन संघ लिंग एक ममत्य निधि है। किन्तु इन माचार्यने : तामिलभाषा में भी अन्यरचना की थी, किन्तु .. खेद है कि इस समय उनकी कोई मी तामिन-चना उपलब्ध नहीं है। भवत्ता तामिलो अपूर्व नीतिग्रंथ 'कुक' के विषयमें कहा जाता है कि वह श्री कुन्कुन्दाचार्यको ही रचना है। नामिल लोग . इस मन्त्रको सपना 'वेद' मानने हैं और वह है भी सर्वमान्य । शेव,.. वैष्णव, भेन, बौद्ध-सब ही उमकी शिक्षा प्रभावित हुये थे और सब ही उसे अपना पवित्र ग्रन्थ प्रगट करने है; परन्तु विद्वानोंने गहरी शोषके पश्चात् उसे श्री कुन्दकुन्दम्बामीको । रचना ठहराया है।' बन ग्रन्थ · नीबेसी' के टी उमे जैन ग्रंथही प्रगट करते है। उसपर करन में निम्नलिन्धित मी बाते हैं जो उसे सर्वथा १-साई ,मा.१ पृ०४०-४३ | "Kural was certainly composed by a Jain."-Prof. M. S. Ramaswami lyengar, sis., I 89. २- नीरा सीटोका में उसे 'मोन' मत मारावेद' कहा। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rammar एक अनापारमा प्रवाहिते (OP (परिबोर ही मंगलसिले व ते हो उसे बना और बारको कोदोकोमा मोजपा को न माला बना। गोवे बानि और सांकेतिक महस खाती प्रतिपादित किया गया है। मानानक ५०० बार नामा एक मासके तुल्यबसाया है। (जेश मा० ११० १-२) (२) पहले परिच्छेदमें उपरान्त एक सर्वज्ञ परमेश्वर जिसने कमों पर गमन किया (मकर्मिसहयेगिनान) और जो भावि पुलो तक जो न किसीसे प्रेम करता है और न घृणा एवं जो जितेन्द्रिय है, उसकी बंदना करनेका विधान है। बेन अन्यों भाप्त हो साल बताये गये है उनमें उसे सर्वज्ञ-रागद्वेष गस्ति और वीतराग खास रीतिसे बताया गया है। इस काका मादितीकर, मादिनाय या ऋषमदेव मुख्य बाप्त है। इसी लिये चासोने उन्हें नादि पुरुष भी कहा गया है। कुर्ररू' के रचयिता भी उन्हीं स्मरण करते हैं। वह सर्वत्र तीर्थंकर रूपमें जब बिहार करते थे तब देवेंद्र उनके पग तले कमलोंकी रचना करता जाता था। और यह उसपर गमन करते थे। यह विशेषता जैन तीर्थहरकी खास है। 'कुरल' कर्ता उसका उल्लेख करके अपना मत सष्ट कर देते हैं। (१) भागे इसी परिच्छेदये 'कुरक' के रचयिता महन्त वा १-Divinity in Jainism देखो।२-बिसहस्त्र नाम देखो। ३- २९-२५॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जैन-मंत्र | [ १४५. तीर्थ भगवानका स्मरण करके मिद्ध परमात्माका स्मरण करते हैं मोर उन्हें मटगुणोंव भिमून परब्रह्म (यंग- नाथन् बताते हैं। जैन ग्रंथों परमब्रह्म सिद्ध परमात्माको निम्नलिखित अष्टगुणम युक्त बनल्भया गया है:- (१) खामियत (२) अनंतदर्श, (३) Max319, (v.) aaaaátú, (14) qƒ«1, (&) manigaĉt, (७) जगूरुलघुत्व, (८) अन्यावाचन अन्यत्र परमात्मा बड अठ गुण शायद ही मिले। • (४) तीसरे परिच्छेद में मंास्यागी पुरुषोंकी महिमाका वर्णन है। उसमें उनको सर्वस्वका त्यागी और पांचों इन्द्रियोंको वशमें रखकर तापसिक जीवन व्यतीत करनेवाला लिखा है । इन्द्रियविषय क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध बताये हैं। साथ ही साधु प्रकृति पुरुषोंहीको ब्राह्मण कहा है। जैन धर्ममें साधु सर्वस्वत्यागी, इन्द्रिय निरोषी तपस्वी कहा गया है। इन्द्रियों की संख्या नौ उनके विषय भी जैन मान्यतानुसार हैं। खास बात यह है कि ऐसा साधु जैन दृष्टिसे एक सच्चा ब्राह्मण है । 6. कुरल" में यही प्रगट य गा (४) चौथे परिच्छेदले धर्मका फल मोक्ष बौर धर्म अपने मनको पवित्र रखने में बताया है। उससे मागामी जन्मोंका मार्ग बन्द होजाता है। 'भाब गहुट में श्री इन्दकुन्दाचयेने इसी प्रकार मन शुद्धिका विधान किया है। जैन सिद्धांत में पृथ्म- पापका माफ मनुष्यके भावोंसे ही किया जाता है। {−qâqw, ufw { q• 481 ? chuo w• {'go 401 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६) संमिश और बिहान । ६) पांचो परिच्छे में गृहस्थ जीवन के निदेवपापतिषिसत्कार, बन्धु-बांधवों की सहायता भौर मात्मोति करना बादाम बताया है। मगवत् कुंदकुंदस्वामीने भी देवपूग करना गौर दान देना तथा जात्मोनति करना एक गृहसके लिये पुसवताये। (७) नई परिच्छेद गतिथिको भोजन देने और मेहमान दारीका विधान है। न हासोंचे गृहस्व लिये एक मग 'पतिषि संविधाय' । (८) उनीसवे परिच्छेदके अंतिम पदमें 'कु' मनुष्यको निज दोषोंकी बालोचना करनेका उपदेश देता है। बनधर्म में प्रत्येक गृहस्पके लिये प्रतिकमण-दोषों के लिये मालोचनादि करना लाजमी है। (९) बीसवे परिच्छेद छायाकी तरह पाप-कमोको मनुष्य साब लगा रहते और सर्वस्व नाश करते बताया है मो सर्वथा जैन मान्यता अनुकूल है। मरने पर भी जन्मान्तरों तक पाप कर्म मृतामासे मिल रहकर उसको कष्टका कारण बनने हैं, वह मेन मान्यता सर्वविदित है। (१०) पचीसवें परिच्छेदमें जैन सामोंके सर ही निरामिन भोजनका उपदेश है। यदि कुरखका रचयिता जैन न होकर वैदिक ब्रामण अश्या बौद्ध होता तो वह इस प्रकार सर्वथा मांस-मदिरा त्याग करने का उपदेश नहीं दे सकता था; क्योंकि उन लोगों इनका सर्वया निषेध नहीं। १-तत्वाषिराम । २-१५०, पृ. १२-१०। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिणा संघ । [ १४० (११) तीसवें परिच्छेद में महिलाको सब धर्मोपे भेटका बरें उसके बाद सत्यको बताया है। जैन दर्शन में भी हिंसाकी विशेषता है। इसी परिच्छेद बडहिंसाका भी निषेध है। · (१२) बनीसर्वे परिच्छेद त्यागका उपदेश देने हुये पुरुषको अपने पास कुछ भी न रखनेका विधान है उसके किए तो वह शरीर भी अनावश्यक है। मैनधर्म भी तो वही कहता है। (१३) लस्सीवें परिच्छेद में कहा गया है कि उ बम्म केनेसे ही कोई उपा सज्जन नहीं होजाता और जन्म से नीच होनेपर भी जो नीच नहीं है वह नीच नहीं होसकते। जैन शास्त्रों बंद - पद पर नही उपदेश भग मिलना है। भगवत कुन्दकुन्दस्वामीने भी इसी बात का उपदेश दिया है। ' यह एवं ऐसी ही अन्य बातें इस बातको प्रमाणित करती है कि 'कुरल' के रचयिता एक मैनाचार्य थे, जिन्हें विद्वज्जन भी कुन्दकुन्दाचार्य बताते हैं। इस प्रकार भगवत कुन्दकुन्दके पवित्र जीवनकी रूपरेखा है । उनके पश्चात् जैन संबमें भगवान् उमास्वातिका विशाळ मौर विशुद्ध मस्तित्व मिकता है, म० समास्याति । जिस प्रकार भगवान् कुन्दकुन्दकी मान्यता दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों १- पतितोद्धारक बेनधर्म देखो । २-विदेहो मंदिर नवि व कुलो पनि बनाइ संजुती । को मंदिब गुणहीनो न ह सपना जेब सावनो हो ॥१७॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] . संक्षिप्त जैन इतिहास 4 सम्प्रदायक लोगोने थी, उसी प्रकार भगवन् उम स्वाति भी दोनों मम्प्रदायों द्वारा मन्य और पूज्य दे । दिगम्बर जैन साहित्यब भगवान् कुन् कुंका वंशज प्रगट किया गया है और उनका दुसरा नाम गृच्च्छि चर्य भी लिखा है।' किन्तु उनके गृहस्थ जीवन के विषय में दिगम्बर शास्त्र मौन हैं। हां, श्वेतांबरीब त चिगम सूत्र भाष्य' में उमास्वाति महाराज के विषय में जो प्रशस्ति मिलती है, उससे पता चलता है कि उनका जन्म न्यग्रोधिका नामक स्थान में हुआ था और उनके पिता स्वाति और माता वात्सी थीं। उनका गोत्र कौमीषणि था । उनके दीक्षागुरु श्रमण घोषनंदि और विद्यागुरु वाचकाचार्य मूल नामक थे। उन्होंने इसुमपुर नामक स्थान में अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ' तत्वार्थाधिगम सुत्र ' रचा था।' दोनों ही संप्रदायोंमें उमास्वातिको 'वाचक' पदवीसे भलंकृत किया गया है। श्वेतांबरोधी मान्यता है कि उन्होंने पांचसौ ग्रंथ रचे थे मौर १- मा० स्वामी समन्तम पृष्ठ १४४ एवं 'लोककार्तिक' का कथन " एतेन गुड पिच्छाचार्य पर्याधुनि सुत्रेण । व्यभिचारिता निरस्ता प्रकृतसूत्रे ॥ " म• कुंदकुंदका भी एक नाम गुढपिच्छाचार्य था । शायद यही कारण हैं कि अवणवेगो किन्हीं शिलालेखों में म० कुंदकुंद और म० उपस्थीतिकों एक ही व्यक्ति गती लिख दिया है। (इका० मा० २ ० १६) । २-१२०० 1-888-748-424" Rapin Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण मन-मं ।१४९ . इस मम नयाधिगर कि ' जन्मद। ममास: पारण श्रावक प्रमनि. क्षेत्रविवार, शमान भी. १॥ प्रारण' म.म. को उनकी रचना माने हैं. पान्नु जायज प्रशम ति' को म० उमाकीनना होना शस्य मनाने है। इसमें न उमाम्सानि माने समय के अद्वितीय विद्वान थे। मनोने जैन गममें पमिद्ध मैदानिक बगील भूगोल मावि विषयों का संक्षिन संग्रामने तथा धगम में 'र दिया है, यही कारण है कि इनका यह प्रयराज बाज"न बाइकि" के नाम प्रमित है। या संस्कृत भाष में नोंकीवरी सबमे गली बल्लेखनीय रचना है । इसकी उताना विषयमें कहा बात कि मोगष्ट। गिग्निगा (जनागद नापब में माम अन्य द्विव कुलोत्पन. नांवमत एक रिसर' नामहा बिन भाबक मत पा। उसने दर्शनशानवाग्विाणि मोहमार्ग: ' मामाको उमे परिपालि छोड़ा। एक ममम वर्ग भी गृह पसार्य उमायाति नाम धारक भान ये वहां पाये। उन्होंने यह सब देख र उपमे मकमा जाड़ दिया। मिटम मे जब यह मा तो वह उन भावार्य पार भागा और देर र उनमे उम 'मोसमास' को बने लिये प्रयाहुमा । माचार्य " पन्तो मम: मिनचंद्र मुनिः पुन: ! कुरकुदमुनीन्द्रोमास्वातिवाचकसंजितो ॥" (बनेकानन पृ. १.६ फुटनोट ) १-बनेकान्त, वर्ष १ पृ. ३९४ । २-'सत्यवतीविषा -बनेकान्त वर्ष १ पृ. २७.। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.] संक्षित जैन इतिहास । महागजने की यह प्रार्थना म्वीकार की कार 'तत्वावधिमा स्त्र' कोच दिया। · सिद्धरप' के निमित्तम इस ग्रंथगमले रचे जनक लम्ब संभवतः 'मर्वार्थसिद्धि' टी में भी है। निस्सन्ह मिद्धय्या निमित्त रचा हुआ यह प्रस्थान सिद्धांतकी नमुल्य निधि है। यही कारण है कि उपरान्त जैनाचार्यो म. हमास्वानिक! माण दे ही सम्माननीय रीतम किया और उने 'भूतवाल देशीय ' एवं 'गुणगंभीर ' भी लिम्बा।' श्रुतसागरजीने इनका भुतिमधुर नाम उमास्वामी रख दिया और तबसे दिसम्बर सीका प्रचार होगया; परन्तु प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रंथोंमें उनका नाम उमास्वाति मिलता है । म० उमास्वाति संभवत: श्री कुन्द दाचार्य शिष्य थे। इसलिये एवं उनकी सैद्धांतिक विवेचना कीमे, विमा साम्य योगसूत्र' मादिसे है. स्पष्ट है कि वह ईवी पहली शतान दिदन ये समयानुकूल भ० उमायाति पश्नत बल्लेखनीय नागार्यको समंमदम्बामी है। दिगम्बर द्विानों श्री समन्तभद्र लिये वह स्तवनाई और प्रमाणभूत है। स्वामी। पान्तु वाम्बर विद्वानों ने भी उनकी प्रमाणिता) खुके रिसे स्वीकार १-4.1, वर्ष १ पृ० १९. । २-तत्वमर्थक मुमास्वातिमुनी परं । चुतकेवलिदेशीय वन्देऽहं गुणमणिम् ॥बनेकान्त प. ३९५ ३-बनेकान्त, पृ. २६९ । -पूर्व पृष्ठ १८९-३९१ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जैन-संप। [१५१ किया है.' भी शुभयान यी ६ · भरतभूषण ' कहा है। श्री समर दी गृध के वि में ! जाता है कि बहुतकर उन्होंने दक्षण11-2 बशको भने ममे सुशोमित किया । यह 2- उनी नि' भी माता नाम क्या ये; परंतु या ज्ञान है 'कन कि फणमानांतर्गत जग्गज न। :: . मद्रका बाल जैनधर्मके द्विार 3॥ में ली : म २ - तुम :: कि नाम प्रस्य न थे। उ गृश्र में पता किया नही यह गट न, किन्तु यहा कि वह वास्पकाममे की नपर्म गौर जिन्दा मन भक्त थे न बन को धाय आण र दिया था। पुमट उन जिमीक्षा बरण का भी मौकी ( कांजी३. म । उनी धर्मयाद था। 'गजाली थे ' में उनका :: बार हुन लिया। उन्होंने कहा कि “मैं पांच नम मधु ई " (च्या नमाटsis: ) नुनकला। परनय पी । यह स्पष्ट है कि वह मूलसंत्रा पर जान थे। म उनको अपन मधुनमें म दृस्मद गेग होगया था। यह मनों भोजन खा जाने थे, मग तृमि नहींनी या माविक शमन हरनेक लि उनोने पकवण मासीका भेष धान कर दिया गा।कांची उमममम शिवको नामक 'जा गय गता या चोर उसका भीमनिश' नामक शिक्षालय का। समन्तभद्रजी इसी शिवम पहुंचे और उन्होंने गजाको अपना अढाल बना पिया। सभामा प्रसार किया जिवावा । समन्तबहीने उससे Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंसिम जैन इतिहास | १५२ ] सारन्छ भनी जठ | म शान्त की ओर बाहर मा राजाको आनंद दिया। प्रसन्न हुआ और प्रतिदिन सवा मनका ममन्त-द्वजी उसके द्वारा प्रसाद शिवाके लिये भेजने लगा। बानी व्याधिको शमन करने हे किन्तु जब व्यघिका जोर कम हुआ तो उपपाद कुछ बनने लगा। उधर कुछ लोग उनके बिरुद्ध हो रहे थे उन्होंने पता लगाकर राज से शिकायत कर दी कि महागज, यह सधु शिव कुछ भी प्रसाद अर्पण नहीं करता, बल्कि सब कुछ स्वयं स्वा जाता है और शिप के पार कर सोठा है । राजाके विस्मय और शेषका ठिकाना न रहा। उसने शिवाय माकर -मनभद्र यह आग्रह किया कि वह प्रसाद शिवजीको उन सामने स्विच और शिवप्रणाम भी करें। सीलिये यह ीक्षाका समय थ'; क्योंकि उन्होंन आपण धुक मंत्र अवश्य धरण किया थान्तु हृदयमें बहुरनु भभ्यक्तवी थे । उन रोमरोम जैनब समाया हुआ था ! ब. खिउन्होंने हदमाक राजाकी बाज्ञाको शिरोधार्य किया । बारप्रवाहरु वर्षे उन्होंने स्वयंको रचना और उच्चाण करना शान किया। जिस समय वह द्रप्रन मन्वानको रहे थे, उस समय शिवलिङ्गमें चन्द्र-की मूर्ति प्रगट हुई। इम कद्भुत घटना को देखकर सब ही लोग जाश्रर्यचकित होग्यं । राजा शिवकोटि जपने छोटे भाई शिवायन सहित उनके चरणोंमें गिर पड़ा और बैनधर्म में दीक्षित हुआ। उसके साथ उसकी प्रजाका बहुभाग भी बैनी होगया था। जब समतबदजीका रोग शांत होगया था। उन्होंने अपने गुरूजी के पास जाकर प्रावधित पूर्वक पुनः दीक्षा ग्रहण की बौर वह धर्म Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतका जन संघ। ॥ बबार एवं करित में निम्तए । उन पर तप तणा ज्या ज्ञान ध्यान द्वारा अपार शक्तिको संचय किया था। कन्सर भाचार्य इये मोर लोग उन्हें बिनशासनका प्रणेता बने थे। बेन सिद्धांनके मर्मज्ञ होनेके मिवाय पर नई, पारण, ज, नका. कात्यकोषादि ग्रंथों में पूर्ण निष्णात थे। वह मम्सना, प्राकृत. कनी, सामिक मादि भाषाओं बिठन थे. पातु उनके नारा दक्षिण मातमें संस्कृत भागको जो प्रतेनन और प्रोत्साहन मिका का वह अपूर्व था। उनकी वादति महिनी : उनाने बार नंगे पो मोर नंगे बदन देशका छोसे उप छोग्ता धूमकर मिथ्यावादियों गर्व स्वस्ति किया । यह महान योगी बेको उनको 'चारण ऋद्धि प्राम थी, जिस कारण बर का जीवोंको बधा पहुंचा बिना कसेको मोकी यात्रा शनासे बते थे। एवार दर पटक नगर (जिल! मताग में पहुंचे मोरमांक गनास अपने बार प्रयोजनको प्रार ने हुए बनोंने कहा था कि:'पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताहिला, पश्चात्मालवसिन्धुटकविषये कांचीपुरीदिदो । प्राप्तोऽहं करहाटक बहुमदं विधावट संकटं, पदार्थी विचराम्यहं नरवते शाल-विक्रीडितं ।। इसमे प्रष्ट है कि करहाटक पहुंचनेमे पाले प्रमंतभद्रने जिन देशों सवा नगरो बारके किये बिहार किया था उनमें पाटलिपुत्र मार, मास, सिंध,व्य (पंजाब) देश, कांचीपुरमौर वैदिक Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] जिन इतिहास | का परिचय दिया प्रधान देश तथा जनपद थे। इनमें उन्होंने बाद करके धर्मप्रभावनाका प्रचार किया था। अपनी लोकहितकारी शकूगिंग द्वारा उन्होंने प्राणीमात्रका हित साधा था। केवल बाणीसे ही नहीं बल्कि अपनी लेखनी द्वारा भी उन्होंने अपनी लोहितैषिणी है। उनकी निम्नलिखित अपूर्व रचनायें बताई जाती है:१- मातमीमांसा, २ - युक्तयनुसन, ३- स्वयंस्तोत्र, 8जिनस्तुति शतक, ५- रत्नकांडक उपासकाध्ययन, ६ - जीवसिद्धि, तत्वानुशासन, ८ - प्रकृत व्याकरण, ९ प्रमाणपदार्थ, १०-धर्मप्राभूत टीका और ११ - गन्धहस्तिमहाभाष्य । खेद है कि स्वामी समंतभद्रजीक अंतिम जीवनका ठीक पता नहीं चलता । पट्टाबलियोंसे उनका अस्तित्व समय सन् १३८ ३० प्रगट होता है। मम० श्री नरसिंहाचार्यजाने भी उन्हें ईस्वी दुसरी शताब्दिका विद्वान इस अपेक्षा बताया है कि अरगोलकी मल्लि पेणमशनमें उनका उल्लेख गङ्गजब संस्थापक सिंहनंदि बाचार्य से पहले हुआ है, जिनका समय ई० दुसरी शताब्दिका अंतिम माग है। इसी परसे स्वामी समंतभद्रजीको जन्म और निधन तिथियो का मैदाज लगाया जासकता है। : इस प्रकार तत्कालीन दक्षिण भारतीय जैन संघ के यह चमकते हुये थे। इनके अतिरिक श्री पुष्पदन्त, मुनबकि, मामनन्दि यदि माचर्य भी उल्लेखनीय हैं; परन्तु उनके विषय में कुछ भविक परिचय प्राप्त नहीं है । १- विशेष के लिये श्री जुगलकिशोरबी मुस्तार "स्वामी " और " बीर " वर्ष ६ का " Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० कामताप्रसादजी कृत ऐतिहासिक ग्रन्थभगवान महावीर। या प्रा भने जावा किन्ने है: नीय बोर गायत्य ईन सज्ञ दिनों. २ प य स गया है। इसमें वो भगवान विना मान भगवन रुपमा देव, नेमिनाथ और 14E है : अंमें युद्ध, महावीर एवं महावीरकी वैज्ञता प्रमाण सदिय व हैं . पृ० २८. पकी जिद २) कची जिल्द १) भगवान पार्श्वनाथ। में भगवान न था। विस्तृत नसः गनिमे बतीय खोजपूर्ण जिच गया है। नया यह मिव या : किम. वामनाय ऐतिहामिल थे. वे जैन धर्म स्थापक नहीं थे। बेव धर्मकी प्राचीनत'. पुगवी माझा, बैद ग्रन्थ, बंद, हिन्दुपुगण, गमावण, महाभारत, भोग उपनिषदोंमें जैनधर्मका उलंय है। इस अन्धका बेन बजैनों में प्रचार करना योग्य है। १० ५०० . म २) मैनेजर, दिगम्बर नपुस्तकालय-परत । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा० कामताप्रसादजी कृतभ०महावीर और म० बुद्ध। इममें भ० महावीर और महामा बुद्धका तुलनात्मक पद्धतिमे विवेचन किया गया है । वो और वृद्धक मंदका ज्ञान प्राप्त करना हो तो इस ग्रन्थको मश्य पदिये। पृ० २७२ म० १॥ वीर पाठावलि। इसमें भ० रुषभदेर मनट मग्न. गम-नक्ष्मण, रुग्ण, नेमि. गाय, भ० पार्श्वनाथ. भल महार. भम्रट चंद्रगुप्त, वीर संघकी बिदुपियां, भ० कुन्दकुन्दाचार्य माम्बामी. म्राट् खारवेल. स्वामी मनमद्र सिद्धांत.. चक्रनिं मचन्द्राचार्य. भट्टारलं देव बादिके २० एनिमामि च णित किये गये हैं। पृ० १२५ मल्प ) व विद्यार्थियों को ॥ * पंच-रत्न । इसमें महाराज श्रेणिः पम्राट् मह'नेर कुरूंगाधीश्वर नग बिजनदेव को नापने नाम से पांच बारित उस्माम दासे है। मूल्य 1-) + नव-रत्न । हममें भरिष्टनेमि. चन्द्रगुप्त सारवेस, नामुण्डाव. मारसिंह, गंगराज, साविषन्वे बोर सती गनी ऐसे ९ ऐतिहासिक बनि १। मूव) मेनेजा, दिगम्मरनपुलकाब-सरख । Page #177 --------------------------------------------------------------------------  Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय शालपीठ अन्यागार कार्या पादित लिपिकोनी पलिकर कमावानी चाहिये। - - Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TIN