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________________ समित जैन इतिहास । भगवान पार्श्वनाथ । काशी देश इक्ष्वाकुवंश-उपकुलके राना विश्वसेन राज्य करते थे। बनारस उनकी राजधानी थी और वहीं उनका निवासस्थान था। रानी ब्रह्मदत्ता उनकी पटरानी थी। पौषकृष्ण एकादशीको उन गनीने एक प्रतापी पुत्र प्रसव किया, जिसके जन्मने है। लोकमें मानंद और हर्षकी एक धारा बह गई। देवों और मनुष्याने मिलकर खूब उत्सव मनाया। उस पुत्रका नाम 'पार्थ 'स्वः मया भौर वहीं जैन धर्म २३ वें तीर्थकर हुये। युवावस्थाको प्राप्त करके राजकुमार पार्थ राज-काजमें व्यस्त होगये । वह अपने पिताके साथ प्रजाका हित साधने में ऐसे निश्त हुये कि उनका नाम और काम चहुं ओर फैल गया। लोग उन्हें " सर्वजन प्रिय " (1oples Fiulopirite ) हक पुकारने थे। एकदफा कुमार पार्श्वनाथ मित्र महिन वनविहार के लिये निकले । बागमें उन्होंने देखा कि उनक' नाना महीपाल का गज तापसके भषमें पंचाग्नि तप रहा है। वह उन्टा मुख किये हमें लटका हुमा था । कञ्चन-कामिनी का मोह उसने त्याग दिय! ५ : परन्तु फिर भी उसके त्यागमें की थी। उमे घमंड था कि मैं साधु हैं। मुझसा संसा में और कोई नहीं। इस घमंड के दपये वह अपने आप को भूल गया । उसकी आत्मोन्नतिका मार्ग अब कष्ठित होगया । लेकिन वह तप तपता और कायक्लेश सहता था। पामार और उनके मित्रोंको उसने देखा । बसको चीरनेमें
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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